प्रेमचंद के कथा साहित्य में चित्रित बेरोज़गारी की समस्या
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. पवनेश ठकुराठी15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
31 जुलाई प्रेमचंद जयंती पर विशेष
कथाकार प्रेमचंद के ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ आदि उपन्यासों तथा ‘अपने फन का उस्ताद’, ‘ज्वालामुखी’, ‘बड़े बाबू’, ‘दो सखियां’, ‘दो बहनें’ आदि कहानियों में शिक्षित बेरोज़गारी और बेरोज़गारी से संबंधित संदर्भों का निरूपण हुआ है। इनके ‘गबन’ उपन्यास में रमानाथ के माध्यम से बेरोज़गारी की समस्या व्यक्त हुई हैः “एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था, लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था।”1 इस उपन्यास में रमानाथ के मित्र रमेश बाबू के संवाद भी बेरोज़गारी और नौकरी की समस्या की ओर संकेत करते हैं: “और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जाएगी? महीनों दौड़ना पडे़गा, महीनों! बीसियों सिफ़ारशें लानी पड़ेंगी। सुबह-शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?”2
इनके ‘कर्मभूमि’ उपन्यास में सुमेर, मैकू, काले खां आदि के माध्यम से रोज़गार की समस्या व्यक्त हुई है। रोज़गार की समस्या के कारण मैकू और सुमेर हड़ताल करने का समर्थन नहीं करते। इस संदर्भ में मैकू के विचार उल्लेखनीय हैं: “हड़ताल दस-पांच दिन चली, तो हमारा रोज़गार मिट्टी में मिल जाएगा। अभी पेट की रोटियाँ तो मिल जाती हैं। तब तो रोटियों के लाले पड़ जाएँगे।”3 बेरोज़गारी की समस्या के कारण ही इस उपन्यास का मुस्लिम चरित्र काले खां चोरी, डकैती करने के लिए मजबूर होता हैः “सबको अच्छा-अच्छा पहनते, अच्छा-अच्छा खाते देखता हूँ, तो हसद होता है, पर मिले कहाँ से? कोई हुनर आती नहीं, इलम है नहीं। चोरी न करूँ, डाका न मारूँ, तो खाऊँ क्या?”4
इनकी ‘अपने फन का उस्ताद’ कहानी का पहाड़ी चरित्र प्रानपद भी एक बेरोज़गार युवक होता है, किन्तु वह अपने एक्टिंग के हुनर से नौकरी पाने में सफल हो जाता हैः “मैंने इतनी देर में अच्छी तरह समझ लिया कि आप में एक्ट करने की बेनजीर (अद्भुत) क़ाबिलियत मौजूद है। यह जानकर आज से अपने थिएटर में एक सौ रुपया महावार तनख़्वाह पर आपको मुलाज़िम रखता हूँ।”5
इनकी ‘ज्वालामुखी’ कहानी में शिक्षित बेरोज़गारी की समस्या का निरूपण हुआ है। इस कहानी का पुरुष चरित्र (कथावाचक) शिक्षित होने के बावजूद नौकरी पाने में असफल रहता हैः “महीनों इस तरह दौड़ते गुज़र गए, पर अपनी रुचि के अनुसार कोई जगह न आई। मुझे अक्सर अपने बी.ए. होने पर क्रोध आता था। ड्राइवर, फायरमैन, मिस्त्री, ख़ानसामाँ या बावर्ची होता, तो मुझे इतने दिनों बेकार न बैठना पड़ता।”6 इस कहानी में सुंदर रमणी के माध्यम से भी शिक्षित बेरोज़गारी की समस्या व्यक्त हुई है। इस संदर्भ में रमणी द्वारा आवेदक (कथावाचक) के समक्ष रखे गये तथ्य उल्लेखनीय हैं: “आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि इस पद के लिए मेरे पास एक लाख से अधिक प्रार्थना-पत्र आए थे। कितने ही एम.एम. थे, कोई डी.एससी. था, कोई जर्मनी से पीएच.डी. उपाधि प्राप्त किए हुए था, मानो यहाँ किसी दार्शनिक विषय की जाँच करानी थी। मुझे अबकी ही यह अनुभव हुआ कि देश में उच्च-शिक्षित मनुष्यों की इतनी भरमार है।” 7
इनकी ‘बड़े बाबू’ कहानी का कथावाचक भी एक शिक्षित बेरोज़गार युवक है, जो बेरोज़गारी के दंश को समझता है। इसीलिए तो वह नौकरी की ख़ातिर सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार रहता:
“ग़ैरत को फ़ना कर देना होगा।”
“मंजूर”
“शराफत के जज़्बातों को देखकर ताक पर रख देना होगा?”
“मंजूर”
“मुखबिरी करनी पडे़गी?”
“मंजूर”8
इस कहानी का कथावाचक परिस्थितियों से हारा हुआ और बेरोज़गारी के आतंक से त्रस्त युवक है। इसीलिए तो वह बडे़ बाबू से कहता हैः “जरूरत ने मेरी ग़ैरत को मिटा दिया है। आप मेरा नाम उम्मीदवारों में दर्ज कर दें। हालात मुझसे जो कुछ कराऐंगे वह सब करूँगा और मरते दम तक आपका एहसानमंद रहूँगा।”9
इनकी ‘दो सखियाँ’ कहानी में पद्मा के पत्र के माध्यम से उसके पति की बेरोज़गारी का पता चलता हैः “सबसे कठिन समस्या जीविका की है। कई विद्यालयों में आवेदन पत्र भेज रखे हैं। जवाब का इंतज़ार कर रहे हैं। शायद इस महीने के अंत तक कहीं जगह मिल जाए। पहले तीन-चार सौ मिलेंगे। समझ में नहीं आता, कैसे काम चलेगा।”10
इनकी ‘दो बहने’ कहानी में रूपकुमारी के संवाद के माध्यम से तत्कालीन भारतीय समाज में मिश्रित बेरोज़गारी के प्रभाव का पता चलता हैः “आजकल यह भी ग़नीमत है, नहीं अच्छे-अच्छे एम. ए. पासों को देखती हूँ कि कोई टके को नहीं पूछता।” 11
इस प्रकार स्पष्ट है कि कथाकार प्रेमचंद के ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ आदि उपन्यासों तथा ‘अपने फन का उस्ताद’, ‘ज्वालामुखी’, ‘बड़े बाबू’, ‘दो सखियां’, ‘दो बहनें’ आदि कहानियों में शिक्षित बेरोज़गारी और बेरोज़गारी से संबंधित संदर्भों का निरूपण हुआ है। प्रेमचंद के उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ज्ञात होता है कि आज की तरह ही आज़ादी से पूर्व भी भारतीय समाज के लोग बेरोज़गारी की समस्या से जूझ रहे थे। शिक्षित बेरोज़गारी आज की तरह तब भी देश में व्याप्त थी।
संदर्भ:
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गबन, पृ. 25
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वही, पृ. 31
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कर्मभूमि, पृ. 185
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वही, पृ. 245
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प्रेमचंद कहानी रचनावली (खंड-दो), पृ. 9.
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वही, पृ. 1.9
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वही, पृ. 113
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प्रेमचंद कहानी रचनावली (खंड-चार), पृ. 2..
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वही, पृ. 2.1
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वही, पृ. 297
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प्रेमचंद कहानी रचनावली (खंड-छह), पृ. 598
डॉ. पवनेश ठकुराठी,
लोअर माल रोड, तल्ला खोल्टा, अल्मोड़ा, उत्तराखंड-2636.1
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