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प्रेमचंद की कहानियों में मध्यम वर्ग

 

वर्ग-भेद समाजार्थिक अर्थात्‌ सोशियो इकोनाॅमिक प्रक्रिया है। सामाजिक परिवर्तन के मुख्य तीन सिद्धांत माने गए हैं: उद्विकासीय सिद्धांत, चक्रीय सिद्धांत और संघर्ष सिद्धांत। वर्ग-भेद या वर्ग-विभाजन सामाजिक परिवर्तन के तीसरे सिद्धांत ‘संघर्ष’ की उपज है। ‘सामाजिक मानव शास्त्र’ नामक पुस्तक के लेखक सत्यव्रत सिद्धांतालंकार के अनुसार जब समाज में बचत होने लगती है, समाज संपन्न हो जाता है, तब आर्थिक दृष्टि से वर्ग-भेद उत्पन्न हो जाता है। कुछ धनी-संपन्न हो जाते हैं, कुछ निर्धन असंपन्न रह जाते हैं। इसे वर्ग-स्थिति (स्टेटस ऑफ़ क्लास) कहा जाता है‌। अर्थशास्त्रीय दृष्टि से विचार करने वालों का भी यही मत है। 

कार्ल मार्क्स ने सामाजिक विकास को पाँच चरणों में बाँटकर देखा (दिखाया) है; जैसे—आदिम साम्यवादी समाज, दास मूलक समाज, सामंती समाज, पूँजीवादी समाज तथा साम्यवादी समाज। उनके अनुसार सामाजिक विकास का चक्र साम्यवाद से शुरू होकर साम्यवाद पर आता है। आदिम साम्यवादी समाज वर्गहीन था। तब तक व्यक्तिगत सम्पत्ति की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि उत्पादन के साधनों और उत्पाद पर समस्त समुदाय का पूर्ण नियंत्रण था। फलस्वरूप, वर्ग-संघर्ष नहीं होने के कारण समाज वर्ग विहीन था। सामाजिक विकास के दूसरे चरण अर्थात्‌ दास मूलक समाज में मनुष्य पहली बार दो वर्गों में बँटे मिले: पहला, स्वामी वर्ग और दूसरा, सेवक वर्ग। इस चरण में उत्पादन-साधनों पर सामूहिक स्वामित्व के स्थान पर वैयक्तिक स्वामित्व की धारणा विकसित हुई। आर्थिक विकास ने गति पकड़ी। सामंती समाज, अर्थात्‌ फ़्यूडल सोसाइटी के गठन तक स्वामी-सेवक के बीच का संघर्ष तेज़ हो गया था। परिणामस्वरूप, सामंत और कृषि-दास नामक दो वर्गों का उदय हुआ‌। उत्पादन के साधनों पर सामंतों का अधिकार था। कृषि-दास शान्ति काल में कृषि व व्यापार कार्य में हाथ बँटाते थे, जबकि युद्ध-काल में अपने सामंतों के लिए सैनिक का काम करते थे। न चाहते हुए भी पूँजी का विकास होने लगा। फलस्वरूप पूँजीवादी समाज अस्तित्व में आया। समाज दो वर्गों में साफ़ बँटा हुआ था। पहला, पूँजीवादी और दूसरा, सर्वसहारा। कालांतर में पूँजीवादी वर्ग उच्च वर्ग कहलाया, जबकि सर्वहारा वर्ग निम्न वर्गीय चरित्र वाला बनकर रह गया। इसी दौरान मध्यवर्ग नामक तीसरे वर्ग ने जन्म लिया। 1765 में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद यह वर्ग महत्त्वपूर्ण बन बैठा। यह दोनों के बीच का वर्ग था। इसमें बुद्धिजीवी, कवि-लेखक, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, समाजसेवी– सब आते थे। मार्क्सवादियों के अनुसार भारत में इस वर्ग का उदय 19 वीं शताब्दी में तब हुआ, जब अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर पूर्ण प्रभुत्व कर लिया स्थापित कर लिया। मेरे विचार से इस वर्ग का प्रतिनिधित्व वे लोग करते थे, जिनकी उच्च वर्गीय स्थिति कमज़ोर पड़ गई थी और दूसरी तरफ़ निम्नवर्गीयों में से कुछ लोगों ने आर्थिक संपन्नता प्राप्त कर ली थी। यह वर्ग अपेक्षाकृत बड़ा था और प्रभावी भी। दूसरे शब्दों में सरकारी—ग़ैर सरकारी नीतियों को मनोनुकूल दिशा और गति प्रदान करने में सक्षम। इसके बावजूद इस वर्ग को एक साथ दो मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ रहा था। एक तरफ़ उच्च वर्ग से, दूसरी तरफ़ निम्न वर्ग से। दोनों के बीच सैंडविच की तरह पड़ा था मध्य वर्ग। यह स्थिति कमोबेश आज भी बनी हुई है। हिमांशु श्रीवास्तव के शब्दों में—मध्य वर्ग का हाल तो उसे गूँगे जैसा है, जो बोल तो नहीं सकता, मगर सुन सब सकता है . . .। यह वास्तव में एक बेचारा वर्ग है। निम्न वर्ग का आदमी दान ले सकता है, मदद के लिए किसी के सामने मुँह खोल सकता है, लेकिन मध्य वर्ग न तो दान ले सकता है, न किसी के सामने हाथ फैला सकता है। इस वर्ग के लोगों का हाल उसे भली लड़की जैसा है, जो न तो ससुराल में भोगी पीड़ा को मायके में कह सकती है और न तो ससुराल में मायके की गिरी हुई आर्थिक स्थिति पर चर्चा कर सकती है। 

जो हो, आकार-प्रकार और प्रभावशालिता के कारण मध्य वर्ग गवर्निंग एलीट क्लास कहलाया, जो आगे चलकर तीन उपवर्गों में विभक्त हुआ: उच्च मध्य वर्ग, मध्य मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग‌। जहाँ तक प्रेमचंद की कहानियों में आए मध्य वर्ग का प्रश्न है तो यहाँ निम्न मध्य वर्ग का वर्चस्व दिखाई पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कहानीकार स्वयं निम्न मध्य वर्ग से आते थे। नलिन विलोचन शर्मा के शब्दों में, “उन्होंने जीवन पर्यंत इसकी कठिनाइयाँ झेलीं तो यह लाभ उठाया कि ज़रा से फ़ासले से किसानों को देखा, तनिक ऊपर रहने वाले संपन्न अभिजात स्तर पर का पूरा परिचय पाया और ज़मींदारों और राजाओं-नवाबों की झलक भी पाई।”

भारत में वर्ग-भेद के कई आधार थे; जैसे धन, राजनीतिक सत्ता, निवास स्थान, व्यवसाय की प्रकृति, शिक्षा, धर्म इत्यादि। 

प्रेमचंद की कहानियों की संख्या 224 से लेकर 310-312 तक मानी जाती है। ‘प्रेमचंद: क़लम का सिपाही’ नामक पुस्तक के परिशिष्ट में अमृतराय ने उनकी कहानियों की संख्या 224 बताई है। बाद में ‘गुप्तधन’ में और 56 कहानी संगृहीत कीं। कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ के प्रथम खंड में तीन कहानियाँ डालीं। इस तरह, कुल कहानियाँ 310 हुईं। 

कहानीकार प्रेमचंद के मध्यवर्गीय पात्रों में ज़मींदार, रईस, मुखिया, सरपंच, प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, समाजसेवी, जज, वकील—सब आते हैं। ये सारे पात्र अपनी तमाम ख़ूबियों-ख़ामियों के साथ उपस्थित हैं। उच्च वर्गीय पात्रों से सहमते-डरते-झिझकते-उलझते-पुलझते हुए तो निम्न वर्गीय पात्रों को सहमाते-डराते-उलझाते-पुलझाते और उनकी जड़ें खोदते हुए। ऐसे पात्रों में ‘सभ्यता का रहस्य’ कहानी का जज, ‘पशु से मनुष्य’ का डॉक्टर मेहरा, ‘बार एट ला’, ‘धर्म संकट’ का पश्चिमी सभ्यता में रँगा पंडित कैलाश नाथ, पश्चिमी सभ्यता में रँगा बैरिस्टर पंडित कैलाश नाथ, ‘गरीब की हाय’ का मुंशी राम, सेवक, ‘बेटी का धन’ का ज़मींदार ठाकुर जतन सिंह, ‘सज्जनता का दंड’ का इंजीनियर सरदार शिव, ‘जुलूस’ का दरोगा बीरबल सिंह, ‘पूस की रात’ का महाजन सहना, ‘ठाकुर का कुआँ’ का ज़मींदार, ‘सवा सेर गेहूँ’ का क्रूर ज़मींदार, ‘कफन’ का ज़मींदार आते हैं—सब के सब क्रूर, स्वार्थी और अत्याचारी हैं। कुछ ऐसे भी पात्र हैं जो अपनी सज्जनता के लिए आदरणीय हैं, जैसे—‘नमक का दरोगा’ का वंशीधर, ‘पंचपरमेश्वर’ का अलगू। कुछ का हृदय परिवर्तन भी होता है; जैसे: ‘जुलूस’ का दारोगा बीरबल सिंह, ‘बड़े घर की बेटी’ की आनंदी आदि। मध्य वर्गीय पात्रों का एक वर्ग महात्मा गाँधी और कांग्रेस के नेतृत्व में छेड़ी गई जंगे आज़ादी में शरीक था; जैसे: ‘जुलूस’ का इब्राहिम, दारोगा बीरबल सिंह की पत्नी मिट्ठी बाई, ‘समर यात्रा’ के कोदई चौधरी और नोहरी, ‘मैकू’ कहानी के कुछ पात्र। 

कहानीकार प्रेमचंद के मध्यवर्गीय पात्र संघर्षपूर्ण जीवन जीते हैं। वे फूँक-फूँककर क़दम रखते हैं। इस चक्कर में उनका समय भी बर्बाद होता है। कहानीकार ने निम्न और उच्च वर्गों की भाँति मध्यवर्ग के सारे पहलुओं को स्वाभाविक रूप में वर्णित-चित्रित किया है। विचार और तर्क उनके बड़े अस्त्र हैं। डॉक्टर युगेश्वर भले ही यह कह लें कि प्रेमचंद ने तो मध्य-वर्ग, विशेषतः निम्न मध्यवर्ग का चित्रण वर्गवादी दृष्टि से नहीं किया है, लेकिन ‘पशु से मनुष्य’ कहानी के पात्र प्रेम शंकर का यह कथन “समाज का चक्र साम्य से आरंभ होकर फिर साम्य पर ही समाप्त होता है” कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष द्वारा सामाजिक विकास-चक्र की ओर अवश्य इंगित करता है। ज्ञातव्य है कि मार्क्स ने इस विकास-चक्र को आदिम साम्यवादी समाज से शुरू कर साम्यवादी समाज तक दिखाने का प्रयास किया है। हाँ, प्रेमचंद की कहानियों में यह वर्ग-संघर्ष बहुत हद तक गाँधीवादी तरीक़े से होता है। न केवल उनकी कहानियों में, बल्कि, उपन्यासों में भी गाँधीय दर्शन स्वाभाविक रूप से उपस्थित है। 

समासतः, बेनीपुरी के शब्दों में “आधुनिक युग के वेदव्यास प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में मध्य वर्ग, विशेषतः निम्नमध्यवर्गीय सामाजिक व्यवस्था और उसे ढोने वाले चरित्रों को उनकी तमाम ख़ूबियों-ख़ामियों और मजबूरी के साथ पूरी ईमानदारी से दिखाया है।” 

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस, मारवाड़ी महाविद्यालय, भागलपुर-812007
pratibha.rajhans40@gmail.com

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