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मर्यादा

 

 

बात उन दिनों की है, जब दुनिया गारथ नहीं हुई थी। यानी की लोगों की आँखें शर्मो-हया से भरी-पूरी हुआ करती थीं। लोग अपनी, अपने बच्चों या भाई-बंद की ही ग़लतियों पर शर्मिंदा नहीं होते, बल्कि अपने गाँव इलाक़े की त्रुटियों कमियों पर भी लज्जा से गड़ जाते थे। लोग क्या कहेंगे कि फ़लाने गाँव की यह कहानी है? इसीलिए किसी ग्रामीण के ऐबों-कमियों को दाब-ढँककर या सुधार कर अपने गाँव-जवार के सम्मान की रक्षा में तत्पर रहते थे। ऐसे ही समय में मेरे गाँव में एक चोर था (आज साहस करके मैं बतला रही हूँ।) नाम था उसका गिदड़ा। गिदड़ा की करतूतों से सभी अवगत थे। फिर भी उसके लिए किसी विशेष सज़ा का प्रावधान नहीं था। 

सभी को पता था कि गोहाल में अगर कोई पाड़ा न मिल रहा हो तो वह गिदड़ा के छोटे-से आँगन में ज़रूर बँधा मिलेगा। किसी के कुएँ के पाट पर केवल रस्सी पड़ी है तो बाल्टी गिदड़ा के घर मिलेगी। यही नहीं, माल-मवेशी बाँधने जोरने वाला गेठा नहीं मिल रहा है तो चले जाइए गिदड़ा के घर। दो-चार झिड़की खाकर वह आपको आपका गेठा पकड़ा देगा या अनुरोध करेगा कि खूँटी पर लटक रहे गेठों में से अपना पहचान कर ले लें। 

ऐसा था गिदड़ा चोर और ऐसे हुआ करते थे तब के हमारे गाँव के लोग, जो अपना खोया सामान उसके घर पा जाने के विषय में आश्वस्त रहते थे। गिदड़ा भी जानता था कि चोरी पकड़ी जाने पर दो-चार लप्पड़-थप्पड़ या गालियाँ भर देकर लोग अपनी चीज़ें ले जाएँगे, बस। अब जब सामान मिल ही चुका है तो क्या अपने ही ग्रामीण को दस लोगों के सामने जलील करेंगे? यह भाव रखने वाले और फिर गाँव के किसी-न-किसी दरवाज़े पर तो अवश्य ही कोई कुटुम्ब होगा, जो दूसरे गाँव का होगा। उसके सामने गिदड़ा को जलील करने पर गाँव की ऐब की बात इलाक़े में फैल न जाएगी? तब गाँव की छवि तो ख़राब होगी ही। क्या जानें आगे बेटे-बेटियों के शादी-ब्याह में कोई अड़चन ही आ जाए। 

इतनी दूर की बातों का ख़्याल रखने वाले ग्रामीणों के पास झिड़की, गालियाँ और लप्पड़-थप्पड़ (वह भी उसी के आँगन में) से ज़्यादा कोई सज़ा थी ही नहीं। 

ऐसे में ही एक सुबह शोर की आवाज़ से जब हम बच्चों की आँखें खुलीं तो आँगन की दादी-काकियों के पीछे-पीछे हम बच्चे भी दहलीज़ से होते हुए बाहर सड़क पर आ पहुँचे। वहाँ लोगों का हुजूम था। गोल घेरा बनाकर सटे चिपके लोगों के पैरों के बीच से आँखें मलते हम भाई-बहन घेरे के अंदर प्रविष्ट हुए तो देखा कि बीच में कोई मरियल-सा आदमी गुड़ी-मुड़ी होकर पड़ा है। उसे गालियाँ देते हुए बीच-बीच में कोई पैर से ठोकर भी मार देता था। बचाव में उसने अपना सर दोनों हाथों और पैरों के बीच छिपा रखा था। 

कुछ देर तक यह तमाशा चलता रहा। लोग आपस में बतिया रहे थे। उसका सार था कि ज़माना कितना ख़राब हो गया है। दुनिया गारथ हो गई है। ऐसे में आदमी रात में चैन की नींद कैसे सो सकता है? आज ऐसा हुआ तो कल पता नहीं और क्या-क्या हो? 

बड़ों की चिंता ने हमें भी चिन्तित कर दिया। हम सोचने को विवश थे कि अगर सुबह चूड़ा कूटने के लिए रात ही आँगन के बड़का नाद में धान फूलने न दिया जाएगा तो भला चूड़ा कैसे कूटा जा सकेगा? . . . और नाद का फूल रहा धान ही उस रात गिदड़ा ने चुराया था। वह भी हमारे ही आँगन से चिंता तो लाज़िमी थी। 

इधर बड़ों की बतकही चालू थी, उधर दहलीज़ की किवाड़ के पीछे लगी काकियों को खीरोदी (कूटने पीसने वाली महिला), हाथों के इशारे और आँचल से दबे मुँह की फुसफुसाती-आवाज़ से सारा वृतान्त सुना रही थी कि कैसे मुँह अँधेरे जब वह आँगन में नाद के पास पहुँची तब नाद को ख़ाली पाकर घबरा उठी थी। फिर साहस करके पानी की गिरी बूँदों के पीछे-पीछे जाकर गिदड़ा के दरवाज़े तक पहुँची। पूरी तरह आश्वस्त होकर ही उसने दादी को यह पक्की ख़बर दी और चोर पकड़ा गया। लोग इधर इन धौल-धप्पों में लगे थे, उधर बुज़ुर्ग चिन्तित थे कि यह क्या हो गया? जिस बात से डर रहे थे, वही हो गई। अब करें तो क्या? लेकिन, नवतुरिया जवान गिदड़ा को छोड़ने-माफ़ करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। उनका मत था बहुत हो गया। इस बार तो गिदड़ा को पुलिस के हवाले ज़रूर किया जाएगा। जब चूतड़ पर पुलिस के डंडे पड़ेंगे तब ख़ुद ही रास्ते पर आ जाएगा। उन्होंने हमारे चरवाहे को चौकीदार के घर दौड़ाया। चौकीदार हाज़िर हुआ। उसे हुक्म दिया गया कि वह गिदड़ा की कमर में रस्सी बाँधकर थाने ले जाय और उसे जेल में बन्द करवा आए। लेकिन न जाने क्यों पेट की दर्द की बात कहकर चौकीदार ने अपनी लाचारी दिखलाई और तय हुआ कि चौकीदार गिदड़ा की कमर में रस्सा बाँध देगा। वह स्वयं जाकर पुलिस को अपना जुर्म बतलाएगा। क्योंकि, गाँव से अगर कोई उसको रस्सा लगाकर ले जाएगा तो चार कोस पैदल रास्ते को पार करने में भला कौन नहीं जान जाएगा कि चोर और साथ का आदमी किस गाँव का है? 

उस बदल चुके ज़माने में लड़कों को बरज पाने में असमर्थ हमारे दादा ने गिदड़ा को हमारे दरवाज़े पर आकर कुछ खा लेने का हुक्म दिया। क्योंकि पेट के लिए ही तो वह चोरी करता था। अब भूखा पेट एक सवा मन का बोझ लेकर चार कोस पैदल जाते हुए रास्ते में कहीं वह मर-मरा न जाए, उनको इस बात की फ़िक्र थी और फ़िक्र वाजिब थी। अतः, लड़कों ने इसे मान लिया। भरपेट दही-चूड़ा और गुड़ खाकर जब गिदड़ा आया तब चौकीदार पासवान ने कमर में मोटा रस्सा बाँध दिया। बाक़ी बचे रस्से को उसकी देह से लपेटते हुए उसका छोर उसके कंधे पर रखा। लोगों ने धान का बोरा उसके सिर पर चढ़ा दिया और सिखला दिया कि वह किन शब्दों में अपना जुर्म बतलाएगा। फिर सबूत के तौर पर धान का बोरा दिखलाएगा। जुर्म का क़ुबूलनामा अच्छी तरह रटवा कर जोश से भरे नवयुवक गिदड़ा को विदाकर जब हमारे दरवाज़े पर पहुँचे तब दादा का तमतमाया चेहरा देख निस्तब्ध रह गए। लेकिन, अब कुछ भी बदल पाना सम्भव नहीं था। गाँव के जिन-जिन कुटुम्बों को नहीं जानना था, वे सब आज गाँव को चोर का गाँव के नाम से जान चुके थे। अब इज़्ज़त लौटाना असम्भव था। अपनी ग़लती का एहसास होते ही डरे घबराए युवक एक एककर खिसक लिये। सारा गाँव मानो साँसें रोके इस घटना के परिणाम की प्रतीक्षा में था। दिन-पर-दिन बीतते तीन दिन और तीन रातें बीत चुकी थीं। चौथे दिन प्रायः दुपहर के समय कमर में बँधे रस्से के दूसरे छोर को हाथों में सँभाले गिदड़ा आकर दरवाज़े पर हाज़िर हो गया। डरते-झिझकते भी लोग हमारे दरवाज़े पर पहुँच गए। दादा गिदड़ा से पूछताछ कर रहे थे कि तीन दिनों तक वह कहाँ और कैसे रहा? दादी चिन्तित स्वर में पूछ रहीं थी, कहीं उसे जेहल तो नहीं हो गया था? गिदड़ा ने दोनों प्रश्नकर्ताओं और प्रश्नवाचक-से बन रहे लोगों को आश्वस्त करते हुए सगर्व बतलाया कि उसे जेहल नहीं हुआ। थानेदार ने केवल जूतों और गालियों के बीच उससे उसका नाम-धाम-पेशा पूछा। फिर चूड़ा तैयार करने में भिड़ा दिया। आज जब एक बोरा चूड़ा तैयार हो गया तब सेर भर उसके गमछे में डालकर गालियों और धमकियों के साथ उसे भगा दिया। हिदायत भी दी कि चोरी न करे और कभी थाने पर आना ही पड़े तो चौकीदार या गाँव के किसी आदमी को साथ लेकर आए। नहीं तो शिकायत नहीं लिखी जा सकेगी। गिदड़ा के अनगढ़ चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभर आई थीं। 

सारी बातें कह अदब से झुका गिदड़ा दादा के सामने था। स्वयं को भारमुक्त पाकर दादा ने आँगन की ओर मुँह करके गिदड़ा के लिए खाना भिजवाने का हुक्म दिया। 

जाते समय गिदड़ा को पाँच सेर चावल भी दिया गया इस हिदायत के साथ कि वह चोरी छोड़कर काम काज करे। पर उसका तो सोचना था कि वह चोर है तो काम-काज क्यों करे? वह तो उसका पेशा नहीं है और मर्यादा तो अपने ही काम में है। 

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