प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता
आलेख | साहित्यिक आलेख प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस1 Aug 2024 (अंक: 258, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
विधाता रचित लीलामय सृष्टि का मूल मंत्र है–“एकोहं बहुस्याम।” इस औपनिषदिक वाक्य का अर्थ है—एक से अनेक हो जाऊँ। यह अनेक होना इस लोक में स्त्री-पुरुष के मिलन के बिना सम्भव नहीं है। यानी सृष्टि के लिए स्त्री और पुरुष, दोनों समान रूप से आवश्यक हैं। यही नहीं, दोनों के बीच प्रेम होना भी आवश्यक है। विधाता ने स्त्री-पुरुष की रचनाकर अपनी प्यारी सृष्टि के सातत्त्व हेतु ढाई अक्षर के मूल मंत्र ‘प्रेम’ को उनके हृदय में आरोपित किया और तभी से सृष्टि की गतिशीलता निरंतर बनी हुई है। इस तरह, सृष्टि का सारतत्त्व है यह ढाई अक्षर का प्रेम। प्रेम मानव-हृदय का वह अलौकिक तत्त्व है, जो स्त्री-पुरुष के परस्पर आकर्षण में प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित होता है। आदमी तो आदमी देव-दानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, पेड़-पौधे इत्यादि सभी की इच्छा का अविराम स्रोत कहलाता है प्रेम। अतः, प्रेम सृष्टि की गतिशीलता का मूल कारण है।
प्रेम के विषय पर चर्चा करने से पूर्व प्रेम को समझ लेना आवश्यक है। धर्मग्रंथों, भारतीय शास्त्रज्ञों एवं कवियों की प्रेम विषयक मान्यताओं पर विचार कर लिया जाए।
हमारे शास्त्र प्रेम को भक्ति का दूसरा रूप मानते हैं। वे उसे मोक्षप्राप्ति का साधन मानते हैं। वे मुमुक्षुओं के लिए शुद्ध प्रेम को अत्यावश्यक बतलाते हैं।
नारदभक्तिसूत्र के अनुसार प्रेम अनिर्वचनीय है।
तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार इन्द्रिय, मन, बुद्धि उस प्रेम के पास नहीं जा सकती।
वृहदारण्यकोपनिषद् कहता है कि यह निश्चय है कि पति की प्रीति/सुख के लिए पति प्रिय नहीं होता है, स्त्री के मतलब के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती है; बल्कि, दोनों अपने-अपने मतलब के लिए एक दूसरे को प्रिय होते हैं। इसी तरह, पुत्र, वित्त, पशु, ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि सभी कुछ उनके मतलब के लिए नहीं, वरन् अपने मतलब के लिए ही किसी को प्रिय हुआ करते हैं।
हिन्दी शब्द सागर—“प्रेम वह मनोवृत्ति है, जिसमें साथ रहने की इच्छा होती है।”
मानविकी परिभाषा कोश—“किसी के प्रति प्रसन्नतामय गंभीर आकर्षण का भाव प्रेम कहलाता है।”
इस विषय में बाइबिल कहता है कि प्रेम में चार बातें आवश्यक होती हैं:
वह हमेशा रक्षा करता है।
वह हमेशा भरोसा करता है।
वह हमेशा उम्मीद करता है।
वह हमेशा दृढ़ रहता है।
क़ुरान के अनुसार:
-
जिस ईश्वर ने जन्म दिया है, उसकी उपासना करनी चाहिए। जीवमात्र से प्रेम, सहिष्णुता, भाईचारा और हमदर्दी रखनी चाहिए।
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पैग़म्बर मुहम्मद साहब ने प्रेम को विवाह तक पहुँचाने का आदेश दिया है।
भक्तिकालीन कवि तुलसीदास जी ने प्रेम को पारिभाषित करते हुए कहा:
“कामिहि नारि पियारि जिमि“
तथा
“सुर नर मुनि सबकै यहि रीति।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।”
तुलसीदास जी ने प्रेम के बिना सुख, संपदा और ज्ञान को तुच्छ माना है। उनके अनुसार प्रेम व्यापक, विराट व शक्तिशाली अनुभूति है। इसके जागृत होते ही आत्मा की तत्काल अनुभूति होती है। सब कुछ प्रफुल्लित, दिव्य, चैतन्य और आलोकमय हो जाता है। प्राणी प्रकृति के सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है। देह और चित्त से ऊपर उठकर आत्मा के आनंदमय स्वरूप में लीन हो जाता है।
कबीर दास जी ने इसके लिए कहा:
“जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्राण।”
यह कहकर जीवन व मानवता के विकास में प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन किया। प्रेम को अत्यंत व्यापक अर्थ दिया। उन्होंने कहा कि जिस शरीर में आत्मा प्रेम रस का पान नहीं करती, उस शरीर में आत्मा का आगमन वैसा ही है, जैसा सूने घर में अतिथि का आना। सृष्टि का उद्भव व विकास प्रेम से हुआ। जीवन के बाहर-भीतर, सब ओर प्रेम व्याप्त है। प्रेम से हृदय को रस, रूप, आनंद और तृप्ति मिलती है। लेकिन, प्रेम की कुछ कठिन शर्तें भी हैं।
“प्रेम न बाड़ी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै सिर दे सो लै जाय।”
तथा:
“प्रेम गली अति साँकरी, या में दो न समाय।”
घनानंद और सूरदास प्रभृति भी किसी एक से ही प्रेम होने की बात करते हैं। ‘एक हुतो सो गयो स्याम संग’। बल्कि, प्रेमी अपने प्रिय की अनुपस्थिति में भी किसी और से प्रेम नहीं कर सकता है।
घनानंद ने इसे अत्यंत सीधा रास्ता बतलाया, जहाँ चालाकी के लिए कोई स्थान नहीं होता है:
“अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
देव कवि इसे “तरवार के धार पे धावनो है।” कहकर अत्यंत कठिन बतलाते हैं।
कवि ठाकुर “मन की परतीति” यानी भरोसे को ही प्रेम मानते हैं।
कविवर दिनकर कहते हैं—“प्रेम निस्सीम होता है, सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे। बसती कहीं प्रीति अहरह सखि!”
आर्ट ऑफ़ लीविंग के अनुसार—“प्रेम ही आपका अस्तित्व है।”
समीक्षक शंभुनाथ कहते हैं—“यदि कोई कवि होगा तो उसके भीतर प्रेम होगा ही। प्रेम ही आदमी को कवि बनाता है।”
डॉ. बच्चन सिंह—“प्रेम वह अनुकूल वंदनीय मनोवृत्ति है, जो किसी व्यक्ति में अन्य के सौंदर्य, गुण, शील, सामीप्य आदि के कारण उत्पन्न होती है।”1
इस तरह, प्रेम की अनेक परिभाषाओं में जो महत्त्वपूर्ण बातें मिलीं, उनके अनुसार प्रेम की एक सर्वमान्य परिभाषा यह बनती है कि प्रेम पवित्र होता है। प्रेम से ही हमारा अस्तित्व है। प्रेम में अहंकार का विलय हो जाता है। प्रेम भरोसे का दूसरा नाम है। प्रेम में आशा और दृढ़ता होती है। प्रेम अपनत्व सिखलाता है। प्रेम अनिर्वचनीय है। प्रेम निस्सीम है। प्रेम से ही सुख, शान्ति और आनंद प्राप्त किया जा सकता है। प्रेम में धोखा यानी वासना का कोई स्थान नहीं होता है। प्रेम का लक्ष्य विवाह होता है। प्रेम में रक्षा और परस्पर सम्मान का भाव होना चाहिए इत्यादि।
प्रेम की उत्पत्ति का कारण आकर्षण होता है और आकर्षण का आधार है सौन्दर्य। सौंदर्य आन्तरिक और बाह्य दोनों हो सकते हैं/होते हैं। यद्यपि बाह्य सौंदर्य तत्काल किसी को आकर्षित कर लेता है। परन्तु टिकता तो आंतरिक सौंदर्य के कारण ही है। अर्थात् प्रेम सौंदर्य के पीछे चलता है। जो सुंदर लगता है, मनुष्य उसी से प्यार करता है। जब प्यार हो जाता है तब प्राणपण से उसका निर्वाह भी करता है।
प्रेम रसराज है। वह सभी सात्विक भावों का मूल है। प्रेम ही श्रद्धा, भक्ति, ममता, करुणा, वात्सल्य, स्नेह इत्यादि रूपों में रूपायित होता है। प्रेम जीव की सहज वृत्ति है।
प्रेम एक ऐसी मीठी अनुभूति है जो हृदय को तृप्त कर प्रेमी जन को सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है। वह उन्हें शारीरिक और मानसिक संबल प्रदान कर उन्नतिशील बनाती है। जीवन में प्रेम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके बिना मनुष्य तरक़्क़ी नहीं कर सकता है। न ही उसे मुश्किलों से जूझने की हिम्मत मिल पाती है। प्रेम जीवित रहने का महत्त्वपूर्ण साधन है। यह एकाकीपन दूर करता है। यह केवल दो लोगों को ही आपस में एक दूसरे से नहीं जोड़ता है, बल्कि सम्पूर्ण संसार को एक दूसरे से जोड़ कर रखता है। यही जीवात्मा को परमात्मा से भी जोड़ता है। प्रेम में आत्मीयता होती है। आत्मीयता का फैलाव भी होता है। उसमें संकीर्णता नहीं होती है। प्रेम में एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना होती है। प्रेम क्षमा है। त्याग है। प्रेम में मनुष्य को जीवन की सार्थकता प्राप्त होती है।
प्रेम मादक भी होता है। इतना कि प्रेम में पड़े मनुष्य को अपने प्रेमी या प्रेमिका के अलावा दुनिया में कुछ और दिखाई नहीं देता है। बस, प्रेमी के लिए उसकी प्रेमिका और प्रेमिका के लिए उसका प्रेमी। इसके अलावा सब कुछ बेकार—महत्वहीन लगता है। यानी बाक़ी दुनिया है तो ठीक, नहीं भी है तो भी ठीक। उन्हें जैसे इन बातों से कोई सरोकार ही न हो। दोनों का सुख और दुख एक दूसरे से होता है। दोनों एक दूसरे में ही खोए रहते हैं।
सूरदास की राधा सुख के क्षणों में ही नहीं, वरन् दुख के क्षणों में भी श्रीकृष्ण के अलावा किसी और की अपेक्षा नहीं रखती है। वह श्री कृष्ण की याद में इस तरह डूबी रहती है कि जिन आँखों से उन्हें देखा था, उनसे किसी और को नहीं देखती। वह नज़रें नीची किये रहती है। जिन वस्त्रों से वह अंतिम बार अपने कान्हा से मिली थी, उन्हें कभी अपने से अलग नहीं करती है। (हरि श्रमजल भींज्यो उर आँचल, एहि कारन न धुआवति सारी)। यही नहीं, वह चाहती है कि बाक़ी लोग और शेष सृष्टि भी उसके दुख में दुखी हों। जब ऐसा होते नहीं देखती है तब परेशान हो जाती है। श्री कृष्ण के विरह-ज्वर में तपती राधा वृन्दावन के हरे-भरे पादपों को कोसती हुई कहती है—“मधुवन तुम कत रहत हरे? विरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?” राधा को लगता है, जिस कदंब वृक्ष पर श्री कृष्ण ने लीलाएँ की थीं, उसे श्री कृष्ण के विछोह में जीवित नहीं रहना चाहिए। जिस तरह यमुना/कालिंदी श्याम के विरह में काली पड़ गयी (देखियत कालिंदी अति कारी) उसी तरह मधुवन को भी हो जाना चाहिए। स्वयं राधा अहर्निश माधव के ही ध्यान में रहती है। उनके ही नाम जपती रहती है। विरहिणी राधा की विरहदशा के विषय में विद्यापति लिखते हैं—“माधव माधव रटइत रटइत राधा भेलि मधाई”| यही हाल प्रेमी घनानंद का होता है। जब उनकी प्रिया सुजान श्री कृष्ण में बदल जाती है और वे अपनी व्यथा श्रीकृष्ण को वैसे ही सुनाने लगते हैं जैसे सुजान को सुना रहे हों। इसी बात को उर्वशी में राजा पुरुरवा इस तरह कहते हैं, देखा जाए:
“एक मूर्ति में सिमट गयीं
किस भाँति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे,
इतनी सुंदर होती है नारी?”
राजा पुरुरवा को अपनी प्रेयसी उर्वशी में सभी सिद्धियाँ दिखाई देती हैं।
प्रेम एक ऐसा सुरमय उत्सव है, जिसमें शरीर वीणा के तार की तरह झंकृत होता है। उससे मादक सरगम निकलता है, जिसमें चेतना का ओर-पोर डूब जाता है। अदना आदमी की बात कौन कहे, आचार्य भवभूति के राम की चेतना भी प्रेम में इस क़द्र डूब जाती है कि वे निर्णय नहीं कर पाते हैं कि यह मद्यपान का असर है या विषधर सर्पदंश का प्रभाव? देखा जाए ‘उत्तर रामचरितम्’ का वह प्रसंग, जिसमें श्रीराम अपने प्रेम में डूबे मन की मादकता के विषय में कह रहे हैं:
“विनिश्चेतुं शक्यो न सुखमिति दु:खमिति वा। प्रमोहो निद्रा वा किमु विष विसर्प किमुमद:।”2
इतिहास साक्षी है कि धरती पर की बड़ी-से-बड़ी लडाइयाँ प्रेम की ही ख़ातिर हुई हैं। चाहे वह त्रेतायुग का राम-रावण युद्ध हो (एहि प्रीत कारण सेतु बांधल सिया उदेस सिरी राम जी), द्वापरयुग का कौरव-पांडव युद्ध हो (कौरव सभा में अपमानित हुई द्रौपदी का प्रण) या संयोगिता स्वयंवर की ख़ातिर पृथ्वीराज चौहान, जयचंद और मुहम्मद गोरी के बीच का ऐतिहासिक युद्ध। हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल के विषय में कहा ही जाता है कि अधिकतर युद्ध के मूल में स्त्री-सौन्दर्य (प्रेम) ही रहा था। “जेहि की बिटिया देखी सुंदर, तेहि पर जाय धरा तरवार।” न केवल वीरगाथा काल में, बल्कि भक्तिकाल और रीतिकाल की पृष्ठभूमि में भी प्रेम ही है। कहा जाता है कि लौकिक प्रेम ही कालांतर में अलौकिक प्रेम अर्थात् भक्ति का रूप ले लेती है। सभी भक्त कवि पहले प्रेमी ही थे। चाहे तुलसीदास हों या सूरदास। इसी तरह, रीतिकाल की आधारशिला भी सौंदर्य जनित प्रेम ही था। जिस नारी सौंदर्य-चित्रण में लगातार दो सौ वर्षों तक कविगण तन्मय रहे, वह नारी (अर्द्धांग) के प्रति प्रेम ही तो था। कहा भी गया है कि कोई किसी को तभी सुंदर लगता है, जब उसके लिए दूसरे के मन में लगाव हो। आधुनिक काल का छायावाद छाया के माध्यम से प्रेम की अभिव्यक्ति के कारण ही तो समकालीन आलोचकों की नज़र में किरकिरी बना रहा। अतः, यह सर्वमान्य सत्य है कि दुनिया की सुंदरतम रचनाएँ प्रेम पर ही केन्द्रित हैं, चाहे वह कालिदास का ‘शाकुंतलम्’ हो या दिनकर की ‘उर्वशी’, होमर के ‘इलियड’ व ‘ओडिसी’ हों या शेक्सपियर का ‘क्लियोपेट्रा’ या कि दुनिया के सात आश्चर्यों में एक ताजमहल। हर जगह प्रेम की झंकृति ही अनुभूत होती है। डी.एस. लारेंस कहते हैं कि संसार की आधी महान रचनाएँ प्रेम को लेकर ही लिखी गई हैं। यही बात सदी के महानायक अमिताभ बच्चन इस तरह कहते हैं कि सभी फ़िल्मों की बस एक ही कहानी होती है, प्रेम की कहानी। दो लोग (स्त्री-पुरुष) प्रेम करते हैं और बाक़ी या तो उन्हें मदद करते हैं या विरोध करते हैं। यानी सारी कहानियाँ प्रेम के इर्द-गिर्द ही बनाई जाती हैं। करोड़ों की कमाई करने वाले फ़िल्मिस्तान बाॅलीवुड की कमाई का ज़रिया ही है प्रेमकथा, जिससे उसे सारी दुनिया में विशेष महत्ता मिली हुई है। तभी तो शास्त्रकारों ने शृंगार को रसराज की उपाधि से विभूषित किया है।
प्रेम धरती पर का ऐसा असाध्य रोग है कि जिसे यह लगता है, उसे फिर नींद नहीं आती है। न भूख लगती है न प्यास, न रात सुहाती है न दिन। दिवस रुदन में रात आह भरने और ग़म खाने में कट जाती है। उर्वशी कार दिनकर इसे इस तरह शब्द देते हैं। देखा जाए:
“कहते हैं धरती पर सब रोगों से कठिन प्रणय है . . . दिवस रुदन में रात आह भरने में कट जाती है . . .”
+ + +
“मन खोया-खोया आँखें
कुछ भरी-भरी रहती हैं
भींगी पुतली में कोई
तस्वीर खड़ी रहती है”3
और “करवटों की सलवटों में साफ़ उड़ जाती है नींद।” इस विषय में एक शायर ने ठीक ही लिखा है—“मुहब्बत के जो क़ैदी हैं, न छूटेंगे जीते जी।” सुप्रसिद्ध गीतकार नीरज ने भी इसे असाध्य रोग ही माना है। वे कहते हैं—“प्यार अगर थामता न पंथ में उँगली इस बीमार उमर की . . .” यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रेमरोग के रोगी के लिए अब तक कोई दवा नहीं बनी है। लेकिन, कवि नीरज के अनुसार यह बीमारी जीवन को सँवारती है। बिगाड़ती नहीं है। यह जीवन को स्वस्थ और संतुलित करती है।
पेड़ से लता का लिपटना, समुद्र के आग़ोश में नदी का समाना क्या है? प्रेम ही न? करोड़ों मील दूर बैठे सूर्य की किरणों का स्पर्श पाते ही नदी-तालाब का कमल आख़िर क्यों दिल खोलकर हँसने लगता है?
आख़िर क्यों प्रसन्न हो जाती है कुमुदिनी चन्द्रमा को देखते ही? और पूर्णिमा के पूरे चाँद को देखकर ऊँचे-ऊँचे ज्वार के रूप में क्यों तड़प उठता है महामिलन को समुद्र? अनुभवी लोग इसे ही प्रेम कहते हैं। विज्ञान भी स्वीकारता है कि स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम– आकर्षण जैविक कारणों से होता है।
यानी यह अवश्यंभावी है।
सांसारिक प्रेम के अनेक प्रकार हैं। माता-पिता का संतान के प्रति प्रेम (वात्सल्य), भाई-भाई या भाई-बहन के प्रति प्रेम (सौख्य), मित्र का मित्र के प्रति प्रेम, पति-पत्नी का परस्पर प्रेम, गुरु-शिष्य का प्रेम, जीवात्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम इत्यादि। इन सभी तरह के प्रेम के मूल में स्त्री-पुरुष का प्रेम ही होता है।
प्रेम की भाषा अजीब होती है। कभी सरल तो कभी विरल। कभी सहज और कभी असहज। प्रेम की भाषा मुखर ही नहीं, मौन भी होती है। कोई कहकर अपने हृदयगत प्रेम को अभिव्यक्त करता है तो कोई करके। गोपियों ने कहकर अपना प्रेम प्रगट किया और राधा ने करके। बल्कि, प्रेमाभिव्यक्ति का मौन रूप अधिक गंभीर, अधिक प्रभावपूर्ण व अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
कविवर बिहारी के प्रेमी जोड़े प्रेमालाप के लिए आंगिक भाषा का भी उपयोग करते हैं। ऐसे उदाहरण उनके ‘बिहारी सतसई’ में देखे जा सकते हैं। जब उनके प्रेमी युगल भरी महफ़िल में आँखों के इशारे से बात करते हैं। वे कहते हैं:
“भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात।”
और:
“क्यों बसिये, क्यों निबहिये,
नीति नेहपुर नाहिं।
लगालगी लोचन करै,
नाहक़ मन बंधि जाइ।”
तथा:
“कहा लडैतै दृग करै
परै लाल बेहाल,
कहूँ मुरली कहूँ पीत पट
कहूँ मुकुट वनमाल।”4
बिहारीलाल के नायक-नायिकाओं की आँखें केवल बात ही नहीं करतीं, वे लड़ती-झगड़ती भी हैं। एक दूसरे को पटकनी भी देती हैं। उपर्युक्त उदाहरण में राधा की लड़ाकिन आँखों की चोट से ‘श्री कृष्ण का बेहाल होना’ (सुध बुध खोकर पड़े रहना) तथा आँखों की लड़ाई के फलस्वरूप ‘मन का बाँधा जाना’ इसके प्रमाण हैं।
राधा और कृष्ण के मुरली प्रसंग में बिहारी का एक अत्यंत प्रसिद्ध दोहा है, जिसमें राधा श्रीकृष्ण की मुरली चुरा लेती है। श्रीकृष्ण उनसे अपनी मुरली वापस माँगते हैं। उस समय राधा उनसे बात करना चाहती है। राधा जानती है कि मुरली मिल जाने पर कृष्ण से उनकी बात नहीं हो पाएगी। वे मुरली बजाने में मग्न हो जाएँगे। इसलिए, वह देना नहीं चाहती है। इस प्रसंग का उदाहरण द्रष्टव्य है:
“बतरस लालच लाल की,
मुरली धरी लुकाय
सौंह करै भौंहनि हँसै
देन कहै नटि जाय।”
उपर्युक्त दोहे में राधा सौगंध खाकर कहती है कि उसने मुरली नहीं ली है। लेकिन फिर भौंहों के इशारे से हँस भी देती है। जिससे श्री कृष्ण जान जाते हैं कि मुरली राधा के पास है। इसीलिए, वे राधा से मुरली वापस देने के लिए अनुरोध करते हैं। तब राधा नकार देती है। संप्रेषण का यह सारा व्यापार इशारों में ही संपन्न होता है। यह प्रेमी युगल की आपसी चुहल है। शरारत है। पर, यह दोहा आंगिक भाषा का यह अच्छा उदाहरण है।
उपर्युक्त उदाहरण में फिर भी आंगिक भाषा का प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं तो किसी भाषा का प्रयोग किये बिना भी प्रेम की अनुभूति और अभिव्यक्ति होते हुए दिखाया गया है। काव्य में इस तरह के भी बहुत-से उदाहरण मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ दिनकर की ‘गीत-अगीत’ कविता देखी जा सकती है।
अपनी ‘गीत अगीत’ कविता में कविवर दिनकर ने प्रेम के अनकहे–मौन रूप को अधिक महत्त्वपूर्ण, अधिक प्रभावी और अधिक सुंदर बतलाते हुए कहा है:
“दो प्रेमी हैं यहाँ एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से खींच यहाँ लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
‘हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना’, यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत-अगीत कौन सुंदर है।”5
कवि कहते हैं कि आल्हा गाने वाले प्रेमी के गीत की कड़ी बन जाने की अभिलाषा रखने वाली उसकी अनन्य प्रेमिका की हृदयगत सुखानुभूति का महत्त्व उसके प्रेमी के प्रेमाभिव्यक्ति में गाए सुरीले गीत से कम नहीं, बल्कि अधिक है। अपने तीन बन्द के तीन बिम्बों वाले गीत में उन्होंने नदी व गुलाब, शुक व शुकी तथा प्रेमी युगल के माध्यम से प्रेम की पूर्णता के लिए भाषा की अनिवार्यता को सिरे से झुठला दिया है। अपनी ‘प्रीति’ शीर्षक कविता में वे इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं—“बोले प्रेम विकल होता है। अनबोले सारा दुख सह सखि!/मन की बात न श्रुति से कह सखि!” आगे वे कहते हैं कि प्रेम को थाहना भी नहीं चाहिए, क्योंकि वह निस्सीम होता है। द्रष्टव्य है—“कितना प्यार? जान यह मत सखि!/सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे/बसती कहीं प्रीति अहरह सखि!”
कवि–साहित्यकार कहते हैं, प्रेम की भाषा यदि सीखनी हो तो फूलों से सीखो, तितलियों और भौरों से सीखो। ये सभी प्राकृतिक उपादान सरल और सहज रूप में प्रेम करते हैं और निभाते भी हैं। क्योंकि, इनमें न कोई बनावट होती है, न दिखावट। बस शुद्ध प्रेम होता है।
प्रेम अमर है। अनिर्वचनीय है। प्रेम निस्सीम है। प्रेम ईश्वरीय वरदान है। प्रेम ब्रह्मानंदसहोदर है। प्रेम प्रेमी जन की अमूल्य निधि है। इसी प्रेम के लिए राधा और मीरा ने घर-बार, सुख-सुविधा, सब छोड़ दिया। मुगलानी ताज बेगम ने अपना धर्म छोड़ दिया। प्रेमी कवि घनानंद ने देश तक छोड़ कर दर-दर की ठोकरें खाईं। सच्चे प्रेम की बहुत कड़ी शर्तें हैं। यह सुख से अधिक दुख देता है। यह स्वार्थ नहीं, त्याग चाहता है।
‘सिर दे, सो लै जाय’ तथा ‘प्रीति स्वाद कुछ ज्ञात उसे, जो/ सुलग रहा तिल-तिल, पल-पल सखि!। अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि!’ इस अनमोल प्रेम से बड़ी कोई सम्पत्ति नहीं। यह अमर है। नश्वर शरीर के सामने नहीं रहने पर या नष्ट हो जाने पर भी बना रहता है। राधा-कृष्ण, नल-दमयन्ती का प्रेम कभी ख़त्म हो सकता है? बल्कि, प्रेम की उत्पत्ति का क्षण भी अमरता का क्षण होता है। इस विषय में दिनकर कहते हैं:
“है अमर वह क्षण कि जिस क्षण
ध्यान सब तजकर भुवन का
मन सुने संवाद तन का
तन करे अनुवाद मन का।”6
यही बात उर्दू शायर हफ़ीज़ इस तरह फ़रमाते हैं, देखा जाए:
“मुहब्बत की दुनिया में सब कुछ हसीं है
मुहब्बत नहीं तो कुछ भी नहीं है।”
प्रेम के दो रूप माने गए हैं—शरीरी और अशरीरी। लौकिक और पारलौकिक। भक्तिकालीन कवि और महादेवी प्रभृति प्रेम को अशरीरी/आध्यात्मिक मानते हैं। रीतिकाल में प्रेम के दोनों रूप देखे जाते हैं। आधुनिक काल में कविवर दिनकर और रजनीश प्रेम को शरीरी मानते हुए भी उसमें अशरीरी भाव देखते हैं। वे प्रेम से होकर अध्यात्म की ओर जाते हैं। उनके लिए प्रेम अध्यात्म की ओर जाने का आवश्यक सोपान है। हमारे चार पुरुषार्थों में भी मोक्ष से ठीक पहले काम अर्थात् प्रेम का स्थान है। दिनकर अपनी उर्वशी में इसी बात इस तरह लिखते हैं:
“देह प्रेम की जन्मभूमि है”
तथा:
“जगता प्रेम प्रथम लोचन में
तब तरंग निभ मन में।
प्रथम दीखती प्रिया एक देही
फिर व्याप्त भुवन में।
+ + +
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है
तब वायव्य गगन भी।”7
अशरीरी प्रेम की परिभाषा बतलाते हुए संत कवि कबीर दास कहते हैं:
“अघट प्रेम ही हृदय बसे, प्रेम कहिये सोय।”
क्योंकि, शरीरी प्रेम तो समय, परिवेश और परिस्थिति आदि के कारण घट-बढ़ सकता है। उसके लिए वे कहते हैं:
“घड़ी चढ़े घड़ी उतरे, वह तो प्रेम न होय।”8
यद्यपि कबीर का यह प्रेम लौकिक प्रेम नहीं, आध्यात्मिक है। सूफ़ी कवि जायसी के प्रेम की तरह।
भारतीय संस्कृति में वासनात्मक प्रेम के लिए कोई जगह नहीं है। यहाँ पाश्चात्य दुनिया के प्रेम को हेय माना गया है। यही वजह है कि विवाह पूर्व प्रेम में उलझी (बहकी) शकुन्तला को कालिदास ने दुर्वासा ऋषि से शापित करवाया है (विचिन्तयन्ती यमनन्यमनसा/तपोधनं वेत्स न मामुपस्थितम्॥ स्मरिस्यसि त्वां न स बोधितोपि सन्/ कथां प्रमत्त: प्रथमं कृतामिव॥ अभिज्ञान शाकुन्तलम् चतुर्थोsक: पृ. 157) और कामायनी में बिगड़े हुए मनु को सारस्वत प्रदेश के नागरिकों से पिटवाया गया है। भारतभूमि पर प्रेम की सार्थकता सन्तानोत्पत्ति में माना गया है।
उर्वशी में दिनकर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है:
“नहीं पुष्प ही अलम्,
यहाँ फल भी जनना होता है।
जो भी करतीं प्यार
उसे माता बनना होता है।”9
प्रेमिका—स्त्री का माता रूप हमारे समाज में काम्य है। उसे अलौकिक माना गया है। प्रेम के फलस्वरूप माता बनी स्त्री दिव्य हो उठती है। उर्वशी की सखी मेनका नारी के उस अलौकिक रूप का वर्णन किस तरह करती है, देखा जाए:
“गलती है हिमशिला सत्य है,
गठन देह की खोकर
पर, हो जाती वह असीम
कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शान्ति
कैसी मन में जगती है
रूपमती भी सखी!
मुझे तो वही त्रिया लगती है
जो गोदी में लिए क्षीरमुख
शिशु को सुला रही हो।”
दिनकर अपनी ‘उर्वशी’ में च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या से तो माता बनी स्त्री का गुणगान करवाते ही हैं। वे अप्सरा मेनका से भी उसका गुणगान करवाते हैं।
प्रेमी अक्सर प्रेम में कुछ ऐसी हरकत भी कर जाते हैं, जिनसे प्रेमिका की रुसवाई हो जाती है। जैसा कि शकुन्तला के प्रेमी राजा दुष्यंत ने किया था। इससे प्रेमिका को अपार कष्टों का सामना करना पड़ता है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रेम पूर्व जन्म के संस्कार से उत्पन्न होता है। कुमारसंभवकार कालिदास लिखते हैं:
“भावस्थिराणि जनमांतर सौहृदानि।”10
यह जन्म-जन्मांतर का प्रेम होता है। अतः, प्रेम को हल्के में नहीं लेना चाहिए। हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसे भी प्रेमी हैं, जो सपने में भी अपनी प्रेमिका की रुसवाई पसंद नहीं करते। रीतिकालीन कवि घनानंद ऐसे ही सच्चे प्रेमी हैं, जिन्होंने अपनी प्रेमिका के लिए अपने आश्रयदाता की उपेक्षा और देश-निकाला तक सहा। इसी तरह, भक्तिकाल की प्रेम दीवानी मीराबाई भी हैं, जिन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के लिए अपने देवर राणा के दिए अनेक कष्ट सहकर भी उनसे प्रेम करना नहीं छोड़ा। जबकि, श्रीकृष्ण का साथ उन्हें मूर्ति के रूप में प्राप्त हुआ था। साक्षात् नहीं। तब भी श्री कृष्ण की प्रेमदीवानी मीराबाई ने हरि विमुख लोगों को हँकाकर कहा:
“हे री मैं तो प्रेम दीवानी”
+ +
“हौं तो साँवरे के रंग राची”
+ +
“मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई
अंसुअन जल सींचि-सींचि
प्रेम बेलि बोई।
अब तो बात फैलि गई
जानत सब कोई।”11
प्रेम की महत्ता बतलाते हुए गीतकार नीरज कहते हैं, धरती पर अगर प्रेम नहीं होता तो यह धरती रहने के लायक़ नहीं होती। वे डंके की चोट पर कहते हैं:
“मेघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन हर सीता होती
सुंदरता कंकड़ी आँख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
+ + + + +
निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरण की
और ज़िन्दगी लगती जैसे—
डोली कोई बिन दुलहन की
+ + +
तुम चाहे विश्वास न लाओ
पर मैं तो यही कहूँगा
प्यार न होता धरती पर
तो सारा जग बंजारा होता।”12
कवि और आगे बढ़कर कहते हैं:
“प्यार सो जाता जहाँ
भगवान सो जाता वहीं है।”13
यहाँ कवि नीरज और दिनकर का सांसारिक प्रेम ही आध्यात्मिक प्रेम बन जाता है। देवोपम बन जाता है।
क्योंकि उसमें कामना, वासना और स्वार्थ का लेशमात्र अवकाश नहीं है। इस विषय में प्रेम के सच्चे साधक घनानंद की भी यही राय है:
“अति सूधो सनेह को मारग है
जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं।”14
अर्थात् प्रेम में सयानापन या चालाकी नहीं चलती। चालाकी करना मस्तिष्क का काम है। जबकि, प्रेम हृदय का व्यापार है। यहाँ मस्तिष्क की एक भी नहीं चलती है। अतः, प्रेम लेने का नहीं, देने का नाम है।
आदान का नहीं, प्रतिदान का नाम है।
प्रेम स्वार्थ नहीं, त्याग का नाम है। इसीलिए, संत कवि कबीर साहब कहते हैं:
“प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सिर दै सो लै जाय।”15
प्रेम बहुत क़ीमती है। बल्कि, वह अनमोल है। उसका मोल सभी नहीं दे सकते। परन्तु, अगर कोई सच्चे मन से चाहे तो वह ग़रीब-अमीर, राजा-प्रजा का भेद नहीं मानता है। वह सर्वसुलभ है। आख़िर ब्रह्मानंद सहोदर जो है। यही कारण है कि हर कवि—लेखक प्रेम पर लिखना चाहता है। इसे यों कहें कि हर साहित्यकार पहले-पहले प्रेम पर ही लिखता है। तब किसी अन्य विषय पर। चाहे वह आदिकवि वाल्मीकि हों, महाप्राण सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला हों या राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर। कविवर पंत ने लिखा ही है:
“वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकल कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।”16
संदर्भ:
-
विकीपीडिया आदि
-
उत्तर रामचरितम्: भवभूति,
-
उर्वशी: दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, चौथा पेपर बैक संस्करण 2008, पृ. 28
-
संक्षिप्त बिहारी सतसई: बिहारी लाल, इंडियन प्रेस, इलाहाबाद, पृ. सं. 21
-
गीत अतीत: रामधारी सिंह दिनकर दिनकर रचनावली, सं. नंदकिशोर नवल एवं तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, पृ. 65
-
वही
-
वही
-
कबीर, कबीर ग्रंथावली,
-
उर्वशी: दिनकर, लोकभारती, चौथा संस्करण, 2012, पृ. 30
-
कुमारसंभव: कालिदास
-
मीरा के पद: मीराबाई
-
नीरज की कविताएँ:नीरज
-
वही
-
घनानंद के सवैये: घनानंद,
-
कबीर के दोहे: कबीर दास
-
पंत रचनावली
प्रो. प्रतिभा राजहंस
2/ विक्रमशिला कालोनी, रामसर
जंगली काली स्थान के पास,
भागलपुर-812002
बिहार
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