दुख
काव्य साहित्य | कविता प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कौन हो तुम
क्यों चुभते हो
अहर्निश मेरे
अन्तर्मन में
क्यों छेद-बेधकर
गलाते रहते हो
मेरे मन को
कुछ छीजता रहता है
कट-कटकर
जैसे सारे शरीर का मांसपिंड
गिर जाएगा एक दिन
और मैं
निरुपाय, बेबस
करुण आँखों से
देखती रह जाऊँगी
अपने ही टुकड़े-टुकड़े
वुजूद को
नहीं, तुम उससे भी घातक हो
तुम हज़ारों-हज़ार
दीमक से अधिक
बेधक हो
छिपकर बैठे
मेरे अंतस में
गहरी वेदना की
हूक हो, जो
तड़पाती है, पर
जान नहीं लेती है
वैसे ही जैसे
बूचड़खाने में
कसाई हलाल किये जीव की
खाल उतारता है
अंग-अंग काटता है
छेदता-बेधता है
उसके जीवित रहते ही
नहीं, तुम
उससे भी क्रूर हो
कसाई का काटा
फिर भी कुछ ही
घंटों में दम तोड़ देता है
पर, ऐ दुख
तुम्हारा काटा
तड़पता है
पल-पल, छिन-छिन
माथा धुनता है
हर रात, हर दिन
कोई उपाय पाता नहीं
न कोई इलाज
न कोई दवा
न कोई युक्ति
न कोई मुक्ति
ऐ दुख, तुम
इतने मारक
क्यों हो?
कहते हैं, दुख
सुख का पूरक होता है
पर, कैसे पूरक?
जीवन जगत
संतुलन से है न?
यहाँ कहाँ संतुलन?
कैसा संतुलन?
प्राणों में ज़हर घोलकर
तुम संतुलन करते हो?
ऐ दुख,
यह कैसा न्याय है?
सुख, तेरा भाई
जितना आनंदित करता है
उससे, करोड़ों गुणा ज़्यादा
तुम तड़पाते हो
यह कैसा न्याय है?
कहते हैं, कोबरा
बड़ा ज़हरीला होता है
उसका काटा
पानी भी न माँगता है
पर, वह ऐसा पापी नहीं
वह तो क्षण में मौत देता है
कितना अच्छा है वह
और एक तुम हो?
ऐ निर्लज्ज
कितने क्रूर हो?
तुम जब आते हो
संगी-साथी
साथ छोड़ देते हैं
मुँह मोड़ लेते हैं
जैसे, कभी
जाना ही न था
पहचाना ही न था
फिर, निःशब्द एकांत में
तुम घुस आते हो
बड़े सुकून से
मेरे मन को
अस्तित्व को
कुतरते जाते हो
बड़ी बेफ़िक्री से
तुम किसी से
डरते क्यों नहीं?
ऐ दुख, यही तेरा चरित्र है?
कैसा विचित्र है?
विधाता ने तुझे
सिरजा ही क्यों?
पछताए नहीं?
शरमाए भी नहीं?
ज़रा भी भरमाए नहीं?
क्यों, आख़िर क्यों?
सिरजा, विधाता ने तुम्हें?
वे तो परमपिता हैं
शोभता है, उन्हें यह?
ऐ दुख, तुम
उनसे मिलना
तब कहना
कितना-कितना
कोसते हैं
हम तुम्हें
ऐ दुख, मेरे लिए न सही
कम-से-कम अपने लिए ही
तुम थोड़ा सुकून, थोड़ा आराम
थोड़ा सुख
ज़रूर माँग लेना
पाप की जलन से
कब तक जलोगे तुम?
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