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अंगिका लोकगीतों में श्रीरामचंद्र के जन्मप्रसंग

 

बारह कलाओं से युक्त परात्पर ब्रह्म के सातवें अवतार श्रीरामचंद्र का दाशरथि ‘राम’ के रूप में प्राकट्य सभी जानते हैं। परन्तु, संभवतः सभी यह नहीं जानते होंगे कि उनके प्राकट्य में अंगजनपद का भी योगदान रहा है। 
‘रम्+घञ्= रामः’ का अर्थ है सर्वत्र और सर्वदा विराजमान रहने वाली दिव्यात्मा, जो सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं। ऐसे परमप्रभु की नरलीला हेतु नर-तन धारण करने का माध्यम अंगभूमि बनी थी। राजा दशरथ का पुत्रेष्टियज्ञ करवाने वाले ऋषिश्रेष्ठ शृंगीऋषि अंगजनपद के ही थे। उन्हें अंगजनपद के तत्कालीन राजा रोमपाद, जो राजा दशरथ के मित्र थे, उनकी सहायता से अयोध्या बुलवाया गया था। ज्ञातव्य है कि शृंगीऋषि राजा रोमपाद के जामाता थे और रोमपाद की पालिता पुत्री शांता मूलतः राजा दशरथ और रानी कौशल्या की पुत्री थी। इससे अवध व अंगनरेश की अंतरंगता का भी पता चलता है। इस बात का साक्ष्य न केवल महर्षि वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ में मिलता है, वरन् भवभूति रचित ‘उत्तर रामचरितम्’ में भी यह प्रसंग वर्णित है। उदाहरणस्वरूप उत्तर रामचरितम् के प्रथम अंक का 44वाँ श्लोक देखा जा सकता है। यथा—“कन्या दशररथो राजा शांतां नाम व्यजीजनत्। अपत्य कृत्तिकां राज्ञो रोमपादाय तां ददौ।” रामचन्द्र का‌ दूसरा सम्बन्ध प्राचीन अंगजनपद-वर्तमान बिहार प्रांत के एक प्रखंड बक्सर (व्याघ्रसर) में ही पहली बार श्रीरामचंद्र ने महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में ताड़का और सुबाहु जैसे असुरों पर विजय प्राप्त की। जिससे प्रसन्न हो महर्षि ने आशीर्वाद स्वरूप उन्हें ‘बला’ और ‘अबला’ जैसी अजेय सामरिक शक्तियाँ प्रदान की थीं। यहीं उन्होंने अहिल्या का उद्धार भी किया था। इन सभी कृत्यों से अल्पकाल में ही उनकी यशोगाथा चतुर्दिक प्रसरित हुई थी। तीसरा सम्बन्ध—अंगभूमि से श्रीरामचंद्र का विवाह का भी सम्बन्ध है। प्राचीन अंगजनपद, जिसकी पूर्वी सीमा बंगाल तक, पश्चिमी सीमा बक्सर तक, उत्तरी सीमा नेपाल तथा दक्षिणी सीमा कोयलांचल तक थी, उसी के एक नगर जनकपुर में जग्जननी वैदेही सीता से उनका विवाह हुआ था। इस तरह, रामचन्द्र के जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों में अंगभूमि का संगसाथ बना रहा था। 

ऐसे में अंगभूमि की नारियों के कंठ में बसने वाले सुमधुर अंगिका लोकगीतों में श्रीरामचंद्र के जीवन की अनेक मनोहर झाँकियाँ ‌मिलना स्वाभाविक ही है। अंगिका लोकगीतों में श्रीरामचंद्र के जीवन प्रसंग भरे हुए हैं। 

अंगिका लोकगीतों में श्रीरामचंद्र अवतारी होते हुए भी लौकिक पात्र हैं। उनका आविर्भाव मानवी के गर्भ से जन्म होता है। वे‌ अलौकिक गुणों से युक्त दाशरथि राम हैं। लोकमानस में प्रतिष्ठित मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम सामान्य पुरुष जैसा व्यवहार भी करते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे तीनों लोकों के स्वामी होते हुए भी श्रीकृष्ण गोकुल में कन्हैया ही बने रहे। अध्ययन की सुविधा के लिए अंगिका लोकगीतों में आगत श्रीरामजन्मप्रसंगों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा–‌1. जन्मपूर्व के प्रसंग तथा 2. जन्म के बाद के प्रसंग। 

श्रीरामजन्म के पूर्व के प्रसंगों के अंतर्गत पुत्र प्राप्ति हेतु राजा दशरथ और कौशल्या की व्याकुलता—संतति की स्वाभाविक कामना और तीन रानियों के होते हुए भी पुत्रशून्य होना अयोध्यानरेश के लिए विकट प्रश्न था। सोहर गीतों में राजा और रानी की व्याकुलता की प्रबल अभिव्यक्ति हुई है। इससे संबंधित दो तरह के गीत मिलते हैं। एक वे गीत, जिसमें राजा और रानी पुत्र प्राप्ति के लिए समाज में प्रचलित पूजा-पाठ और चिकित्सकीय उपचार करते हैं। दूसरे में, शास्त्रोक्त विधि से पुत्रकामेष्ठि यज्ञ का आयोजन करते हैं। 

सोहर गीतों में राजा-रानी, दोनों में पुत्र की कामना समान रूप से देखी जाती है। 

निःसंतान रानी मातृत्व सुख के लिए दासी की ख़ुशामद करती है कि वह अपने बच्चों में-से एक बच्चा रानी को पैंचा दे दे, ताकि उसको खेलाकर वे बच्चे को खेलाने का सुखानुभव प्राप्त कर सकें। इसका उदाहरण प्रस्तुत है : “अंगना बोहारैतें तोहें राजाजी के चेरिया न गे। चेरिया एगो होरिला पैंचा देबैतें, कि ओहि ले धैरज धरबै न गे।” लेकिन, दासी उन्हें यह कहकर मना कर देती है कि कोख का बालक कोई नमक-तेल है कि पैंचा दिया जाए? कहती है: “नोन पैंचा हे रानी, तेल पैंचा हे। रानी हे बड़ी रे जतन केर होरिलबा, सेहो कैसें पैंचा देबो हे।” 

यह हृदयद्रावक वार्तालाप सुनकर राजा का मन दुखी हो जाता है। फिर, वे बढ़ई से कठपुतली बनवाकर रानी को बहलाने का प्रयत्न करते हैं। पर, रानी ख़ुश नहीं हो पाती हैं। क्योंकि, काठ की पुतली न तो हँसती थी न ही बोलती थी। इससे रुआँसी होकर रानी शिकायत करती हैं: “राजा हे, काठ के कठपुतली मुखहुँ न बोलय नैनमो न ताकय हे . . .” और तब कलपती हुई संतति प्राप्ति के लिए किये अपने सारे प्रयत्नों व पूजा-पाठ के विषय में राजा को कह सुनाती है। यथा: “कासी सेबलाँ कुसेसर सेबलाँ, आरो अदितबाबा हे। राजा सेबलाँ म बाबा बैजनाथ, कि तैयो न आस पूरल हे।” अंत में यह भी कहती है कि संतान के बिना जन्म व्यर्थ हुआ जा रहा है। ऐसे में, अब और शरीर धारण का क्या प्रयोजन? देखा जाए—“कथी लाए देव दियावन, भगती अराधल रे। कथी लाए सून संसार, सरीर कोना साधव रे।” अत्यंत मार्मिक सोहर में चिंता से व्याकुल रानी को राजा बहुत समझाते हैं, पर वे नहीं मानती हैं। निरुपाय दोनों पंडित से ग्रह दशा का विचार करवाते हैं—“विपर सगुन के पोथिया उनटाय देहो, संतति कहिया होएत हे?” लेकिन, जब ज्योतिषी बतलाते हैं कि किसी भी उपाय से पुत्र की प्राप्ति सम्भव नहीं है। क्योंकि, पुत्र सुख उनके भाग्य में नहीं है . . . “पुरब के चाँद पछिम होएत हे . . . संतति तोहरा न होएत हे।” प्रतिकूल ग्रहदशाओं की बात जानकर राजा भी दुखी हो जाते हैं—“एतना बचनियाँ राजा सुनलन, सुनहू पैलन हे।”

सोहर गीतों में गुरु बसिष्ठ द्वारा बतलाई गई और राजा दशरथ के द्वारा लाई गई व किसी गीत में स्वयं गुरु बसिष्ठ द्वारा लाई गई औषधियों का‌ पान करना भी वर्णित हुआ है। द्रष्टव्य है: “बगियहिं घूमै बसिठ मूनि, मनेमन सोचै हे। राजा बन फरलै अकन फूल रानी क पियाबहो हे . . . ” यही नहीं: “कहवाँ सें लोढिया, कहाँ सें सिलोटिया न हो। ललना रे, कोनी गाम सें बहिनी मँगावल, औखध पीसी देथिन हे।” और किसी गीत में: “कहवाँ रे कन्या कुमारी, औखध पिसाएति हे।” यहीं नहीं, किस दिशा में लोढी सिलोट रखकर औषधि पीसी गई व किस मुख होकर उसका पान किया गया, इसका ब्योरा भी सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए देखा जाए, “कौने मुख राखब लोढिया, कौन मुख सिलोट भल हे। ललना रे कौन मुख भरब कटोर, कौने मुख औखध भल पीयति हे।” . . . “दखिन मुख राखब लोढिया, पछिम मुख सिलोट भल हे। सुरुज मुख भरब कटोर, पीसी रानी पीयति हे।” इस तरह से औषधि का संधान व दिन तिथि देखकर औषधि उखाड़कर लाना, बहन या कुमारी कन्या के हाथों से पिसवाने और विधि-विधान पूर्वक औषधिपान के कई सुंदर-मनोहर सोहरगीत बहुतायत में पाए जाते हैं। 

पुत्रप्राप्ति हेतु शास्त्र-सम्मत विधियाँ भी अंगिका लोकगीतों में वर्णित हुई हैं। गुरु बसिष्ठ ऋषि-मुनियों से परामर्श कर यज्ञ का आयोजन करते हैं। यथा: “करि असलान राजा दशरथ बदन निरेखल हे . . .। गुरु बसिठ क बोलाबल औरो मुनि लोग हे। सब मुनि एक मत कैलनि . . . ललना रे, होम करि भसम बनाओल, पिंड दुई निकालल हे। ललना रे, इहे पिंड रानी क खियाबह, तब वंश बाढत हे।” इस तरह के अनेक गीतों में गुरु के हाथों यज्ञ से प्राप्त पिंड खाने के बाद श्रीराम चारों भाइयों के जन्म की मनोरम कथा वर्णित हुई है। 

गर्भाधारण के बाद कौशल्या रानी के स्वप्न में शुभसूचक चीज़ें देखना तथा पंडित से उसके अर्थ पूछने का भी उल्लेख मिलता है। जैसे—“गैया जे देखलाँ बछडुआ संग, बाभन तिलक लेल हे। ललना रे, अमवात देखलाँ भरल फल, पनमाँ सोहाबन हे।” इसका अर्थ पंडित द्वारा बतलाया जाता है—“गइया तोर लछमी, बाभन नरायन हे। ललना रे, अमबाँ तोहरोऽ बालक छिकौं, पनमा सोहाबन हे।” 

कई सोहर-गीतों में रानियों के नवों महीनों के गर्भकाल के लक्षणों के भी विस्तृत व स्वाभाविक चित्र मिलते हैं; यथा—“परथम मास जब चढल, देवता मनाबल रे। दोसर मास जब चढल, चित फरियायल रे . . . सातम मास जब आएल . . . गरमी मोहे न सोहाबै . . . आठम मास चढल, छन छन चीर पहेरहुँ, त छन छन ससरै हे।” उपर्युक्त गीत में स्वाभाविक लज्जा के साथ ही शारीरिक व मानसिक परिवर्तन का चित्रात्मक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। किस महीने में खाने में अरुचि होती है, किस महीने में अधिक गर्मी लगती है तथा किस महीने में कमर से वस्त्र खिसकने लगते हैं इत्यादि का सटीक वर्णन किया गया है। किसी गीत में रानी की खटाई खाने की इच्छा की भी चर्चा मिलती है। देखा जाए—“राजा लेने अइहो एकेगो अमोलबा, अमोलबा हम खाएब हे।” 

किसी भी शारीरिक वेदना से अधिक कष्टदाई प्रसव-वेदना का शब्दों द्वारा कितना सही, सटीक व मार्मिक वर्णन अंगिका गीतों में हुआ है, यह भी दर्शनीय है: “. . . दरदिया मोर उठल हे . . .। लाज सरम के बात, कहलो न जाएत हे। सुनलो न जाएत हे। जँघिया सें ऊठल दरदिया, कमरिया मोर फाटल हे। मुहमाँ पियर भेल, दरदिया सें बेआकुल हे।” . . . “अंग काँपे गहन जकताँ, डँरबा चिल्हकि मारै हे। ललना रे, मारै पँजरबा में टीस कि राजाजी बोलाए दहो हे।” असह्य पीड़ा में प्रसविनी रानी राजा को याद करती हैं, जिन पर उन्हें अथाह विश्वास है। शुभ संवाद सुनकर आनंद-विह्वल राजा स्वयं घोड़े पर सवार होकर दगरिन को बुला लाते हैं। यथा—“एतना बचन जब राजा सुनलन, घोड़ा पीठि भेलन असवार कि दगरिन मनाबल हे।” द्वार पर स्वयं राजा को देखकर दगरिन का मान बढ़ जाता है। वह फूली नहीं समाती है। विशेष अवसर देखकर रानी वाली डोली में बैठकर महल तक जाने की अपनी दिली इच्छा व्यक्त करती है। राजा उसका मान रखते और उसी डोली पर दगरिन को लाते हैं। परन्तु, श्रीराम चारों भाइयों के जन्म के बाद उसकी फ़रमाइशों की झड़ी लग जाती है। देखा जाए—“दगरिन माँगै इनाम हाथी घोड़ा रथ पलकिया न हो . . .। माँगै अजोधा ऐसन राज . . . रतन के गहनमाँ, हीरा के मुँन्दरिया न हो।” हर्षातिरेक की अति है। अत्यंत सुखद व सुंदर अवसर, राजा ने चार अलौकिक पुत्ररत्न प्राप्त किए हैं—“कोसिला के जनमल रामचनदर, कंकई भरत भेल हे। ललना रे, सुमितरा लछमन रिपुसूदन, सब घर सोहामन लागै हे। चहुँ दिस भेल इंजोत, सब सुखसागर हे।” स्वयं श्रीराम का जन्म हुआ है। फिर, चहुँ दिस इंजोत भला क्यों न हो? और ऐसे में दगरिन मनचाही माँग क्यों न करे? 

अंगिका के चौमासा, छैमासा और बारहमासा में श्रीराम जन्म का महीना, तिथि और वार का विस्तृत वर्णन मिलता है—“पहिलऽ महीना सखि चैत सोहाबन राम जनम सुखसार हे।” तत्पश्चात् कुलगुरु बसिष्ठ के द्वारा नवजात बालकों का ग्रह-दशा विचार किया जाता है। देखा जाए—“आबह हो गुरुजी, बैसह . . . बबुआ के लगन बिचारह हो . . . चैतहि मास छई सुकुल पच्छ नवमी जे तिथि भेल हो। ललना रे, दिन सुदिन रामचन्द्र जनम लेल हो। ललना रे, बारह बरस राम होइतै तो बन क सिधारिते हो।” . . . “ललना रे, रामजी जाएत बनबास, कंकई सिर अपजस हो।” इतना सुनते ही राजमहल में सब तरफ़ आनंद छा गया। लेकिन, रामवनगमन जानकर राजा दशरथ दुखी हो गये, जबकि रानियाँ ख़ुश हुईं। रानियों का तर्क था कि बालकों के जन्म से उनका बाँझिन नाम छूटा है और बड़े होने पर जो कुछ होगा, उसके लिए अभी से दुखी क्यों हुआ जाए? “छूटल बंझिनियाँ के नाम, रामजी जनम लेल हो।” वात्सल्यमयी माँ भविष्य की चिंता को महत्त्व न देकर वर्तमान के सुख में सब भूल जाना चाहती हैं। 

प्रायः सभी सोहर सुखांत हैं। संतान प्राप्ति के लिए किया जाने वाला देवाराधन सफल होता है। सोहर गीतों में राजा-रानी का प्रेम-मिलन, हास-परिहास, प्रेम-शृंगार इत्यादि के बोलते हुए चित्र मिलते हैं। 

जन्म के छठे दिन रात में छठी-पूजन किया जाता है। छठी की विधियाँ संपन्न करने में बच्चे की पीसी/बुआ की मुख्य भूमिका होती है। इसलिए, पीसी को बहुत आदर के साथ बुलवाया जाता है। पुत्रजन्म से आनंदित हो वे भाई और भाभी से बहुमूल्य नेग की माँग करती हैं। द्रष्टव्य है—“छठम दिन छठियार, साठि अरावली रे . . .। ननदो बोलाबल रे। आबहु ननदो गुसाउनि, नगर सोहाउनि है . . .।” सोने की पालकी में चढ़कर आई और पटोर पहनाकर ऊँचे पलंग पर बैठाई गई ननद आनंदातिरेक में नेग की पूरी सूची भाई-भाभी के सामने रख देती है।

“ललना रे, लेबै म जड़ी के कंगनमाँ, . . . तबे रे छठी पूजब रे।” फिर माँग पूरी हो जाने पर “पहिरि ओहरि ननदो बैसलि, दिये लागली असीस हे . . .। सोने फूल फूलै रामचंदर, बहूरि हम आएब हे।”

श्रीराम के जन्मोत्सव पर सब‌ ओर से आनंद बधाबे आते हैं। बधाई देने वाले न केवल पृथ्वी पर के बड़े राजे-महाराजे ‌ हैं, बल्कि ऋषि-महर्षि और देवलोक के देवता भी चले आते हैं। उदाहरणार्थ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं—“कोसिला के राम जन लेल, कंकई भरत भेल हे। ललना सुमितरा लखन सतरूहन, महल बध‌इया बाजे हे। केओ मुनि उठलन गाबैत, केओ बजाबैत रे . . .। राजा दशरथ, मोहर लुटाबैत रे . . .। गगन में देव सब आएल, फूल बरिसाएल रे। आजु सुमंगल दायक, सब बिधि लायक़ हे। ललना रे, जनमल रामचनदर, आनंद उर छाएल रे।” जब भगवान विष्णु ने स्वयं अवतार लिया हो तो भला ऋषि-महर्षि और देवलोग आनंद बधाबे क्यों न देंगे? 

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि श्रीराम के जन्मसंबंधी अंगिका सोहर-गीतों में उनके जन्म से पूर्व की चिंता के साथ ही जन्मोपरांत हर्षोल्लास तक के सारे दृश्य पूरी जीवंतता से दृश्यमान हैं। 

आशा-निराशा व आनंद-उत्सव की अनेक सुंदर छवियाँ विद्यमान हैं। 

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