कोरोना माय
कथा साहित्य | कहानी प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
“अहे दीदी, सुनल्हौ कुच्छू?”
पारो माय फुसफुसाती हुई आँखों और अपने हाथों की उँगलियों के इशारे से मुझे कुछ बताने के लिए हाथ में झाड़ू लिए हुए ही मेरे पास उचक आई तो मेरा ध्यान उसकी तरफ़ गया। मन तो नहीं था उसकी बातों में पड़ने का। लेकिन, उसकी भाव-भंगिमा की विचित्रता ने बरबस ध्यान खींच लिया।
“क्या है पारो माय?”
मुझे अपनी ओर पाकर वह धीरे से बोली–
“ई कोरना माय के भी उपाय निकल गया दीदी।”
उसके चेहरे पर आश्वस्ति का भाव स्पष्ट दिख रहा था। महीनों से कोरोना की भयावहता की चिंता और आसन्न आ पड़ी भुखमरी की आशंका से बढ़ती जा रही झुर्रियों वाले चेहरे पर डूबती हुई उसकी आँखों में चमक भर आई थी। उसकी बात सुनते ही मेरे मन में उत्सुकता जाग गई।
“उपाय . . . क्या उपाय निकला?” अकचका कर पूछा मैंने।
मुझे अपनी तरफ़ पाकर वह सुसंवाद सुनाने के लिए विह्वल हो रही थी।
“कोरना माय के पूजा के उपाय दीदी।”
“कोरना माय, . . . और पूजा?”
मेरे अविश्वास भरे चेहरे को पढ़ती हुई बोली, “हों दीदी . . . ई जो कोरना माय आई है न, पूरे दुनिया घूमने के लिए, ई माता की बहीन है। सुन नय रहे हैं, पूरे दुनिया में नरी लोगों को सता रही है। मैया अपना संसार देखने खातिर निकली है। मतर, लोग त बुझबे नै करता है। यह शीतला माय की सबसे बेसी दुलारी बहीन है। जिस तरह संकर भगवान की बेटी पाँचों बहीन बिसहरी है न, उसी तरह से . . .”
मैं आँखें फाड़े उसको देखे जा रही थी। समझ नहीं पा रही थी कि उसे कैसे रोकूँ? रोकूँ या नहीं? इस ग़रीब अशिक्षित बूढ़ी की आशा की एकमात्र डोर . . .
“अच्छा कहिए, हुनके रचे हुए संसार में हुनको कोय रोक सकता है भला? रोक पाया है कहियो? . . . मतर कि डरे-मारे लोग केबाड बन्द करिये न देता है . . . तही गोस्सा से विकराल होती जा रही है . . . की त कहते हैं . . . डिल्ली, बम्बै, अमेरका सिनी कंहीं बाज नै आ रहे लोग सिनी . . . ई त देबी नै न सहेगी . . . हुनी अगिया-बैताल होती जा रही है . . . अब सम्हार-समेट के लेली परथना त करना ही न पड़ेगा?”
बूढ़ी पारो माय ने हाथ की झाड़ू ज़मीन पर रखकर सिर पर आँचल ठीक किया। फिर दोनों कान छू कर हाथ जोड़ लिए। मैं भौंचक्की-सी उसको देखे जा रही थी।
कहाँ तो महामारी की भीषणता से जूझते लोग, सारी दुनिया में कोहराम मचा है। अन्न-पानी, दवा-दारू की भयंकर क़िल्लत। चारों ओर लोगों के संक्रमित होने, अस्पताल पहुँचाये जाने, वहाँ सही व्यवस्था न होने, दवा नहीं मिलने, गैस सिलिंडर नहीं मिलने, अपने-पराए की सेवा-सुश्रुषा से वंचित होने, एकाकीपन से मरीज़ों के बोर होने और अंततः मर जाने की ख़बरों की दहशत चारों ओर फैली है। आदमी से ही नहीं, हवा-बयार से भी डर रहे हैं लोग। सभी घरों की खिड़कियाँ-दरवाज़े बंद, जवान, बूढ़े, बच्चे सभी तूफ़ान में दड़बों में छिपे पंछियों की तरह घर में ही गुटर-गूँ कर रहे हैं। सब तरफ़ सैनिटाइज़र छिड़कने, खाने के सामानों को सैनिटाइज़ करने में लगे लोग और सैनिटाइज़ नहीं कर पाने की लाचारी से भयभीत लोग, अख़बार नहीं मिलने पर टीवी के समाचारों, सीरियलों और फ़िल्मों से संतोष करते लोग, हालाँकि समाचारों में या टीवी पर भी क्या देखते हैं? वही ख़बरें। वही दहशत, वही हाहाकार। वही लाचारी और काल का विकराल रूप। किंकर्तव्यविमूढ़ लोग कुछ नहीं सोच पाते हैं। एक ओर प्रधानमंत्री मोदी जी में देवत्व का अवतार देखते, उनकी घोषणाएँ, घोषणाओं का क्रिर्यान्वयन, अलग-अलग तरह की मेडिकल टीमें, सामाजिक कार्यकर्ता और दूसरी ओर लाशों से पटे अस्पताल, श्मशान और क़ब्रगाह। ऐसे ही में मैंने पारो माय को समझाकर कहा था कि जब तक समय बदल नहीं जाता है, तब तक वह काम पर न आवे। केवल महीने के अंतिम दिन आकर पैसे ले जाया करे। उसे आश्वस्त करने के लिए कुछ पैसे एडवांस भी दे दिए थे। पर, मुश्किल से दो सप्ताह रुकी होगी वह घर पर। फिर गेट पर आ खड़ी हुई। मुझे लगा कि वह और पैसे लेने आई है। लेकिन, जब उसने बताया कि उसे कोरोना नहीं हुआ है और किसी से सटे नहीं, इसलिए डेढ़ किलोमीटर का रास्ता पैदल चल कर आई है, तब मुझे आश्चर्य और ग़ुस्सा दोनों हुआ। उसे डपटते हुए घर में घुसने से रोकना चाह रही थी मैं। तब तक मेरी नज़र उसकी लाचारी भरी आँखों से टकरा गई। वह बोल पड़ी–“हम घर में नै घुसेंगे दीदी। यहीं बरतन आन दीजिए। हम धोकर रख देंगे। आप सनटायज कर लीजिएगा।”
नहीं चाहते हुए भी बड़े वाले कठौत में भरकर उसे बरतन दे आई। वापस आकर बैठते ही मेरे माथे में ‘क्यों’ का कीड़ा कुलबुलाने लगा। आख़िर आई क्यों पारो माय? पैसे तो मैंने अग्रिम दिए ही थे। यह किफ़ायती बूढ़ी उतने पैसे इतनी जल्दी ख़त्म नहीं कर सकती। सोचते ही मन में पारो माय की सभी अच्छाइयाँ घूम गईं। कम बोलने वाली, सलीक़े से पहनने-ओढ़ने वाली, हर काम समय से और सही-सही करने वाली ईमानदार और सहृदय पारो माय। यह हम दोनों पर इतना भरोसा करती है। फिर भी मेरी बात नहीं मानकर . . . इतना समझाने पर भी क्यों चली आई?
पारो माय दो ही घरों में काम करती है। इसे न तो हड़बड़ी का काम पसंद है, न ही अधिक कमा लेने का लालच। आधी उम्र में ही विधवा हो गई पारो माय ने अपने चारों बच्चों को अकेले दम पर पाला-पोसा है। तीन-तीन बेटियों का शादी-ब्याह किया। फिर भी, उसके ऊपर किसी का कोई क़र्ज़ नहीं है। यह चादर के अनुसार ही पैर फैलाने में विश्वास करने वाली है। अपनी बात की साख पर अपने परिवार और समाज में सम्मान पाती रही है। मेरा मन उसके जीवन के क़िस्सों के इर्द-गिर्द घूम रहा था कि तभी पारो माय का इस तरह आ जाना याद हो आया। बरतन धोकर बाहर आँगन में रख चुकी थी वह। सदा की तरह दो-दो बिस्कुट के साथ दो चाय लेकर मैं वहीं पहुँच गई। दूर ही चाय रखने का इशारा करके वह अपनी पीढ़ी पर बैठ गई। हमारी चाय ख़त्म होने वाली थी। इसी बीच उसने दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से निकाले गए और जेठ की चिलचिलाती धूप में छोटे-बडे़ बच्चों और थोडे़ बहुत सामान के साथ भूखे-प्यासे पैदल ही चले आते हुए लाचार मज़दूरों की ख़बरें सुनाईं। उनके कष्ट से उसकी आँखें भर आई थीं। जबकि, उसे तसल्ली थी कि दिल्ली में रहने वाली उसकी बेटियों को वहाँ अपना घर है। उन्हें कोई नहीं निकाल सकता। बल्कि, उन्हें अभी पहले से दुगुना राशन मिलता है। इसलिए, अभी कमाने के लिए जाने की ज़रूरत भी नहीं है। यहाँ पर सब्ज़ी बेचने वाले उसके बेटे को ज़रूर दिक़्क़त हो गई है। न तो कोई सब्ज़ी मिलती है, न ही कोई सब्ज़ी ख़रीदने आता है। फिर भी, राशन मिल जाने से जैसे-तैसे घर चल ही जाता है।
जब घर चल ही जाता है तो आने की क्या ज़रूरत है इस महामारी में? पूछने पर उस दिन कुछ नहीं बोली थी वह। अगर उसके पैदल आने से मुझे कष्ट है तो एक दिन छोड़कर आया करेगी, मुझे यही समझाया उसने। ताकि कम-से-कम बरतन और बाहरी बरामदा व आँगन धुल जाए। मैं जूठे बरतन जमा करके रख दिया करूँ। मुझे समझा कर गई वह।
बहुत रोकने पर भी दो दिन से अधिक नहीं रुकी वह। उसको देखकर मैं सोच में पड़ जाती थी कि बूढ़ी औरत तीन किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करके आती-जाती है महामारी के समय। मुझे उसका कष्ट पीड़ित कर रहा था। मैं समझ रही थी काम छूट जाने के डर से ही वैसा कर रही है और मेरे किसी भी तरह समझाने से वह नहीं मानेगी। इधर मैं उस के बारे में गंभीर थी। उधर बरतन धोने के लिए गई पारो माय वापस आँगन में आ बैठी थी। मुझे लगा पैसे लेने के लिए ही बैठी है। मैं पैसे देने गई तो उसने छूट गया क़िस्सा पूरा किया।
“जानते हैं दीदी, ई करोना माय के पूजा जल आरो लड्डू से होता है। भोरे-भोरे नहाकर भिजले कपड़ों भरी लोटा जल और लड्डू आम गाछी में चढ़ाना चाहिए। हिनका फूल नै चढ़ता है। सिनूरो नै चढ़ता है। हिनी कुमारी माता छिकाथ। बड्डी दुलरी। तनियो टा जों खोंट हो जाय त तड़ सना गोस्साइए त जाती है . . .”
पारो माय कोरोना माय की पूजा के विधि-विधान समझा रही थी और मैं सोच में डूबी हुई थी कि इतने सीधे-सरल लोग कितनी आसानी से हर मुश्किल घड़ी में ईश्वर की आराधना का मार्ग खोज लेते हैं और उन्हें अपना सब दुख-कष्ट समर्पित कर आते हैं, यह कहते हुए कि अब आप मारें या सम्हारें; सब आपके हाथ में है। फिर, चिंता मुक्त होकर आगे बढ़ चलते हैं . . . तभी तो . . . यही जिजीविषा . . . यही आशा तो इन्हें जिलाए रखती है। वरना, हम जैसे पढ़े-लिखे लोग ख़ुद तो निराश होते ही हैं, आसपास के लोगों में भी निराशा फैलाते हैं। पारो माय क़िस्सा पूरा कर चुकी थी। जाने क्यों, क़िस्सा के अंत में पारो माय के धरती छूकर माथे पर लगाने और कोरोना माय की जय की जयजयकार की ध्वनि के साथ मेरे मुँह से भी जय की ध्वनि निकल पड़ी।
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