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क़िस्मत

कभी हँसाती है, 
कभी रुलाती है, 
कभी हौसला दिलाती है, 
कभी चिढ़ाती है, 
 
क्या है यह क़िस्मत? 
 
कभी दिखाई नहीं देती, 
कभी सुनाई नहीं देती, 
 
कभी महसूस नहीं किया, 
कभी कोई इशारा नहीं, 
हर शख़्स इस क़दर जी रहा है, 
जैसे इसके सिवा कोई दूसरा सहारा नहीं। 
 
कौन निर्धारित करता है इसे? 
 
कोई राजा है, कोई रंक है, 
कोई भिखारी है, कोई श्रीमंत है, 
 
कोई दाता है, कोई भिक्षुक है, 
कोई प्रहरी है, कोई महंत है, 
 
किस बिनाह पर यह निर्धारण होता है? 
 
ईमानदार क्यों ग़रीब रह जाता है? 
मेहनत को उन्नति क्यों नहीं मिलती? 
प्यार धोखा क्यों खाता है? 
उम्मीद का दम कौन तोड़ जाता है? 
 
क्या इसके लिए कोई न्यायालय है? 
कौन है न्यायधीश? 
कहाँ है वकील? 
कहाँ है पुलिस? 
 
क्या समीक्षा याचिका का प्रावधान है? 
त्रुटियों का कौन लेता संज्ञान है? 
 
यह इतनी बलशाली है, 
तो कहीं तो इसका नियंत्रण होगा? 
नियमित तौर पर ना सही अगर, 
कभी और कहीं तो इसका विश्लेषण होगा? 
 
कहीं ऐसा तो नहीं, 
ये दुनिया ही न्यायालय है, 
बुरा वक़्त दंड है, 
ज़िन्दगी इसकी कार्यालय है, 
 
अच्छाइयाँ हमारी वक़ील है, 
आचरण हमारी पुलिस है, 
और वह जिसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती, 
वही मुख्य न्यायाधीश है। 

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