रेखा के आर-पार . . .
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विभा कुमरिया शर्मा15 Jul 2025 (अंक: 281, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
एक साँस आती है,
तो दूसरी जाती है,
जीवन और मृत्यु,
कोई द्वंद्व नहीं है,
एक ही धड़कन के,
दो अदृश्य छोर हैं।
हम जीते हैं,
और मरने की बातें करते हैं,
एक अपरिहार्य अभ्यास हो जैसे,
मरते हैं जब,
जैसे किसी अधूरे गीत की,
अंतिम पंक्ति बन जाना है।
हर सुबह की आँखों में,
रात का कोई सपना,
चुप्पी साधे दुबका हो,
और हर दिन का उजाला,
शाम की परछाइयों से मिल,
जैसे गोधूलि की कोई बेला हो।
चलते हैं हम सब,
एक ऐसी पगडंडी पर,
जहाँ हर क़दम,
जीवन की उम्मीद लिए होता है ।
और हर ठोकर,
मृत्यु की आहट और
मौन की चेतावनी देती है।
यह जीवन,
सिर्फ़ उपलब्धियों का पुल नहीं,
बल्कि खो जाने का डर भी है।
वह डर जो साथ चलता है,
हर मुस्कान के पीछे।
एक डर और
संबंधों में रुकावट है।
मिट्टी की तरह हम,
अपने ही स्पर्श से गढ़े जाते हैं।
और मौन की तरह,
अपने आप में खो जाते हैं।
जीवन एक फिसलती रेखा है,
जो कभी थमती नहीं।
बस पार हो जाती है।
ज़िन्दगी बिना कहे, बिना रुके,
निरंतर चलती रहती है।
अंत में कोई जान नहीं पाता,
जो अभी था वह कब,
हमेशा के लिए था हो गया।
शेष तस्वीरें टँगी रह जाती हैं
दीवारों पर बनकर संवेदनहीन।
बस कुछ अधूरे प्रश्न,
कुछ अधूरी इच्छाएँ,
कुछ अधूरे स्वप्न
जो रेखा के आर-पार
हो जाने पर भी,
रह जाएँगे अनुत्तरित।
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