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रेत समाधि (Tomb of sand) 

समीक्षित पुस्तक: रेत समाधि (उपन्यास)
लेखक: गीतांजलि श्री
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002 
पृष्ठ संख्या: 376
मूल्य: `450.00

रेत समाधि एक सूफ़ियाना प्रेम कहानी है जिसमें कहानी की मुख्य किरदार एक 80 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला है जिसके अन्तर्मन में बीते समय की कुछ यादें जो कि यथार्थ परिस्थितियों के कारण वर्षों दबी रहती हैं आगे चलकर अचानक उमड़कर बाहर आती हैं। लेखिका गीतांजलि श्री मनुष्य के व्यक्तित्व की गहराई में उतरकर उसे परखने की कोशिश करती हैं। कहानी तीन खंडों में विभाजित है—पीठ, धूप और हद-सरहद।

पहले खंड पीठ में कहानी दिल्ली की गलियों से शुरू होती है: मुख्य किरदार 80 वर्षीय वृद्ध महिला के पति की मृत्यु हो जाती है और वह वृद्धा घोर अवसाद में चली जाती है, वह खाट पकड़ लेती है। वृद्धा का नाम चंद्रप्रभा देवी है जिसे उपन्यास में ‘अम्मा’ से संबोधित किया गया है, वह दीवार की ओर मुँह कर पड़ी रहती है—न बोलना न चालना न खाना न पीना। बस हमेशा दीवार की ओर मुँह कर पड़ी रहती है, बच्चे परेशान, बच्चे उन्हें उठाने की कोशिश करते हैं—अम्मा उठो कुछ खा लो, अम्मा उठो कुछ पी लो, अम्मा उठो देखो बाहर धूप खिली है . . . लेकिन गठरी बनी अम्मा बुदबुदाती है–नहीं, मैं नहीं उठूँगी . . .

 अम्मा कहती है-(पृष्ठ–12-रेत समाधि) 

“-नहीं, मैं नहीं उठूँगी। गठरी लिहाफ़ में ढुकी बुदबुदा देती

नहीं अब तो मैं नहीं उठूँगी”

इस वाक्य ने उन्हें (बच्चों को) हिला दिया और बच्चे ज़िद करने लगे। वे डर जो गए। हाय उनकी अम्मा। पापा गए और उसे भी ले गए। सोती मत रहिए, उठिए। 

सोती रहती हैं, पड़ी रहती हैं। आँखें मूँदे। पीठ करके कानाफूसी चलती। पापा थे तो हरदम उनकी देख-रेख में मुस्तैद, लाख थकान हो तो भी। चूर-चूर होते जाने के चूरे में व्यस्त, जीवंत। खीजती, ख़फ़ाती, सँभालती, फफाती, साँस पर साँस चलाती। और अबकी नहीं उठना मुझे जैसे पापा ही जीने का मक़सद थे। गए तो गया। थकी बेचारी, अकेली हारी। उसे उठाओ, उलझाओ, उसका मन लगाओ, अकूत दया उनमें, गंगा जी की तरह बहती और माँ की पीठ पर लहर जाती।

“अब्ब नई”-माँ चीखना चाहती। उसका मरा मरा स्वर निकलता

नहीं नहीं मैं नहीं उठूँगी . . अब तो मैं नहीं उठूँगी . . अब तो मैं नई उठूँगी”

मतलब यहाँ अम्मा कहती हैं कि अब अगर मैं उठूँगी तो नए रूप में, अब मैं नई बनकर उठूँगी। कहानी एक ओर मन के उन्मुक्त उड़ान की है तो दूसरी ओर मन के छटपटाहट की भी है। एक साथ मन कई दिशाओं में विचरण करता है, आपस में उनकी ताल-मेल नहीं होता, अम्मा भी कुछ ऐसा ही सोचती हैं। कहानी की भाषा शैली काव्यात्मक है तथा बँधी-बँधाई लीक से हटकर है। 

दूसरा खंड है—धूप, धूप प्रतीक है—ज़िन्दगी के उजाले का, एक नई शुरूआत का। इस खंड में ‘अम्मा’ अपनी बेटी के घर चली आती है या बेटी द्वारा लाई जाती है। बेटी जो अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीना चाहती है, अविवाहित है और उसका एक पुरुष मित्र है। बेटी के साथ अम्मा का रिश्ता एक चिढ़ के बावजूद बड़ा तरल-सा बहता है। बेटी के घर आकर अम्मा आज़ाद महसूस करती है, यहाँ आकर उसकी दुनिया स्त्री की अंतरंग दुनिया होती है और साथ रहता है एक ट्रांसजेंडर का जिसे साधारण बोल-चाल की भाषा में ‘हिजड़ा’ कहते है—नाम है रोज़ी। गीतांजलि श्री ने एक हिजड़े के मनोविज्ञान को भी खुलकर सामने लाया है, हिजड़ा जिसका नाम है—रोज़ी जो आधी कहानी के बाद रज़ा मास्टर बन जाता मतलब उसके अंदर स्त्री और पुरुष दोनों ही चरित्र घुले-मिले रहते हैं। रोज़ी के सानिध्य में अम्मा पहनावे–ओढ़ावे से लेकर हर दैनिक दिनचर्या में बिलकुल बदल जाती है, ऊर्जा से सराबोर हो जाती है। उसका कारण यह होता है कि एक रोज़ी या रज़ा मास्टर ही एक ऐसा किरदार है जिसका अम्मा के साथ रिश्ता विभाजन के पहले का है और इसी कारण रोज़ी बुआ या रज़ा मास्टर के आने से वह आत्मविश्वास से भर जाती है। कहानी के किरदार बड़े अनूठे हैं—बेहद साधारण, मध्यमवर्गीय . . . यहाँ दरवाज़ा भी बोलता है, छड़ी भी एक किरदार है, दीवार, चिड़िया, कौआ सभी बोलते हैं, अपने होने का संकेत देते हैं। कहानी के वाक्य कहीं-कहीं इतने लंबे हैं कि बिना फ़ुलस्टॉप, कोमा के एक पृष्ठ के एक ही वाक्य हैं तो कहीं कहीं बस दो या तीन शब्दों में एक वाक्य क्या एक पाठ ख़त्म हो जाता है जैसे एक वाक्य है—रोज़ी बुआ मर गई—इस वाक्य के साथ एक अध्याय भी समाप्त हो जाता है। 

उपन्यास का तीसरा खंड कौतूहल से भर देता है, तीसरा खंड है—हद-सरहद। 

कहानी के तीसरे खंड में प्रवेश करने पर अम्मा कि असली कहानी समझ आती है कि अम्मा दरअसल है कौन? यहाँ गीतांजलि श्री ने बँटवारे के दर्द का क्या ख़ूब वर्णन किया है! बँटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाली चंदा का निकाह वहाँ के अनवर के साथ होता है और बँटवारे के बाद वह हिंदुस्तान चली आती है और पाकिस्तान की चंदा हिंदुस्तान आकर चंद्रप्रभा बन जाती है। मतलब हिंदुस्तान आकर यही चंदा, चंद्रप्रभा देवी के नाम से दूसरी और नई ज़िन्दगी शुरू करती है। फिर जब हिंदुस्तान में उसके दूसरे पति का देहांत हो जाता है तो उसके मन में अपने पहले पति अनवर से मिलने कि इच्छा उत्पन्न होती है और वह बेटी से पाकिस्तान जाने कि ज़िद कर बैठती है। बेटी के साथ वह पाकिस्तान चली आती है, सरहद पार कर जब वह बेटी के साथ पाकिस्तान चली आती है तो वहाँ के सुरक्षाकर्मी उन दोनों को क़ैद कर लेते हैं, अम्मा सरहद के बारे में सुरक्षाकर्मियों से कहती है—जानते हो सरहद क्या होती है? बॉर्डर? क्या होता है बार्डर? वुजूद का घेरा होता है, किसी शख़्सियत की टेक होता है। कितनी ही बड़ी, कितनी ही छोटी। रुमाल की किनारी, मेजपोश का बॉर्डर, मेरी दोहर को समेटती कढ़ाई, खेतों की मेड़, इस छत की मुँडेर, तस्वीर का फ्रेम, सरहद तो हर चीज़ का है। सरहद बंद नहीं करती, खोलती है। आकार बनाती है, किनारा सजाती है। क्या है बार्डर? वुजूद को उभारता, ताक़त देता न कि चीरता। 

“मनहूसों दिल के बीच में सरहद खींच दोगे तो उसे बार्डर नहीं कहते, चोट कहते हैं। दिल की सरहद में दिल लॉक कर दोगे तो दिल टूट जाएगा।”

फिर धीरे-धीरे रहस्य खुलता है कि वह पति अनवर की तलाश में पाकिस्तान तो जाती ही है साथ में वहाँ मरने (समाधिस्थ) भी जाती है। कहते हैं सच्चा प्रेम वह होता है जो खो जाता है। ‘रेत समाधि’ एक सच्चे प्रेम की दास्तां है जहाँ प्रेमिका जिस जगह पर अपने प्रेमी से बिछड़ जाती है या उसका प्रेमी जिस जगह पर उससे खो जाता है उसी जगह वह भी दफ़न हो जाना चाहती है। 

 376 पृष्ठों का यह उपन्यास ‘रेत समाधि’ में गीतांजलि श्री की बेजोड़ कल्पना देखने को मिलती है और यह लेखन की सारी सरहदों को तोड़ती है। उपन्यास में किरदारों का नाम नहीं है बल्कि उन्हें बड़े, बहू, बेटी से संबोधित किया गया है। कहानी की नायिका अम्मा का नाम चंद्रप्रभा देवी है, यह भी पाठकों को कहानी के अंत में ही पता लगता है। कहानी में बहुत से लुप्त होते शब्द जैसे दोहर, होरहा, सतपहिता, ढुकना इत्यादि का प्रयोग किया गया है। उपन्यास को आहिस्ता-आहिस्ता पढ़ने पर यह सीधे-सीधे हृदय को स्पर्श करता है। 

राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित रेत समाधि (मूल्य-399 रू/) जिसका अँग्रेज़ी अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने ‘टुम्ब ऑफ़ सैंड’ के नाम से किया है। हाल ही के दिनों में ‘टुम्ब ऑफ़ सैंड’ को बुकर प्राइज़ से नवाज़ा गया, यह हम सब के लिए बड़े गर्व की बात है, मैं कथाकार गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल की आभारी हूँ जिन्होंने हिन्दी साहित्य को दुनिया के स्तर पर ला खड़ा किया है।

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