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वसंत का आगमन 

 

आज फिर जब प्रवीर लंच के लिए घर आए तो रमा और कामवाली बाई के बीच बक-झक चल रही थी, रीमा किचन में फटाफट-फटाफट हाथ चलाए जा रही थी और कामवाली बाई पर बरसी जा रही थी, “क्या तुम्हें ही ठंढ लगती है? महारानी जी अब आठ बजे के बजाए दस बजे आने लगीं हैं, इनकी वजह से समय पर कुछ भी नहीं हो पाता और जब तक इनको गर्म-गर्म चाय न मिले तब तक ये किसी काम को हाथ नहीं लगाएँगी, एक मैं ही फ़ुज़ूल की हूँ कि ठंढ हो, गर्मी हो मेरी दिनचर्या पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता . . . बाक़ी सब तो अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं . . .”

बदले में कामवाली बंगालन बाई भी कहे जा रही थी, “थोड़ा देरी से आने पर मेमसाहब कितना बोलता है, अरे ठंडा है तो थोड़ा देर धूप में खड़ा हो जाता है इसीलिए देर हो जाता है।” 

“वाह, वाह तो महारानी जी धूप सेंककर आतीं हैं और ज़बान भी चलाती हैं, यहाँ तो सारा दिन चाय बनाने और सभी की फ़रमाइश पूरी करते-करते दिन निकल जाते हैं। धूप सेंकना तो दूर धूप देखना भी नसीब नहीं होता। रोज़ बासी घर में पूजा करती हूँ, कुछ भी ख़्याल है इसका तुझे?” 

“हाँ तो आकर सबसे पहले पूजा वाला कमरा ही तो साफ़ करता है . . . इतना ठंडा में भी मशीन में कपड़ा नहीं धोता है . . . बाल्टी में भरकर रख देता है . . .”

“तो कौन से तुम्हें ठंढे पानी से धोने होते हैं, तेरे आने से पहले गीजर ऑन कर देती हूँ . . . बोल मत तू कुछ . . . ऐसा कर तू काम छोड़ दे महारानी जी . . . वो भी तो तू नहीं छोड़ती . . .” 

आज पक्षियों की चहचहाहट से रमा की नींद तड़के ही खुल गई, वह सवेरे-सवेरे घर के सामने खिले लाल-लाल पलाश के फूल निहारने बालकनी में चली आई। सूर्योदय की मीठी धूप के साथ सुबह की मीठी बयार उसे छू रही थी। पक्षियों का कलरव सीधे-सीधे उसे आनंदित कर रहा था। उसका मन झूम उठा। वह गुनगुनाने लगी, गुनगुनाती हुई बड़े प्रेम से उसने चाय बनाई और पति के साथ चाय पीने बैठ गई। ठीक आठ बजे कामवाली बाई ने जब डोर बेल बजायी तो उसने गुनगुनाते हुए दरवाज़ा खोला और कामवाली बाई से कहा कि जा जाकर पहले चाय पी ले, मैंने तेरे लिए रख दी है। कामवाली बाई ने अपने आँचल से नारंगी, पीले, गेंदे के फूल के साथ लाल और सफ़ेद गुड़हुल के फूल निकाले और मुस्कुराती हुई सीधे पूजा वाले कमरे में चली गई और कहने लगी, “मेमसाहब आज देखो कितने रंग-बिरंगे फूल लेकर आई हूँ। ख़ूब अच्छे से पूजा करना।”

रमा ने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ मेरी अच्छी सुनीता, तू जानती है कि मुझे भगवान को फूल चढ़ाना पसंद है इसलिए तू इसका ख़्याल रखती है, तू बड़ी अच्छी है रे . . .” 

प्रवीर सब सुन रहे थे, उन्होंने मन ही मन कहा—वसंत का आगमन हो चुका है। 

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