अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

साहित्य की हत्या

जी हाँ चौंकिए मत! ये हत्यारे की अपराध स्वीकृति है, यह सौ टका सही है, साहित्य की भी हत्या होती है, साहित्य के सारे परिवार की होती है। कविता छंद की हत्या, ग़ज़ल, दोहा, मात्रा की हत्या, गीत नज़्म की चीर-फाड़ कोशिश, चौपाई को चौपट करने की हिम्मत, यहाँ तक कि शेर भी नहीं बचता भाई, हत्यारे के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है, समर्पण कर देता है। इसी पर याद आयी एक बीती शाम, मित्रों ने कहा चलो शायरी का दौर हो कोई शेर सुना दो। बस मौक़ा मिला और सुना दिया, ‘क्या सुनाएँ शेर हम खुदी शेर हैं’। यह सुन आस-पास ख़ामोशी छा गई। अब इधर लय को देखिए, बेचारी हत्यारे के डर से ही लुप्त हो जाती है और घनाक्षरी अक्षर-अक्षर बिखर जाता है। दुर्घटना घटने से पहले ही स्वर व्यंजनों में डूब जाते हैं। इधर निडर एक के बाद एक साज़िश रचता रहता है। सच कहूँ, लंगड़ा लेखक अपने दिमाग़ की भी कभी नहीं सुनता। दिमाग़ कहता है उँगलियों से तलवार मत थामो! मत थामो! लंगड़े हो लड़खड़ा जाओगे, पर मजाल है तरकश से तीर ना निकले। हाल यह है कि उँगलियाँ ही दिमाग़ को चला रही हैं। चाहती हैं उनकी प्रशंसा हो। कभी लाल स्याही की भी वाहवाही हुई है! न्यायालयों में शरीर के हत्यारे को कारागार भेज दिया जाता है, न्यायाधीश फाँसी की सज़ा सुना क़लम तोड़ देता है। 

देख लीजिए पट्टी बँधी ज़रूर है पर न्याय अंधा नहीं है, जब तक अंधा नहीं किया जाए। न्याय के तराजू में सब बराबर हैं, जब तक काँटे के साथ छेड़छाड़ न की जाए। साहित्य के न्यायाधीश भी अंधे नहीं हैं, नियमों के तराजू में पड़ोसी लेखक को तोलते रहते हैं, ख़ामोश नहीं रहते। विनम्र हैं, गरिमामय हैं, बुद्धिजीवी हैं, शांत रस दर्शाते हुए क्रोध रस को पी जाते हैं। कभी-कभार साहित्य वेदना आँखों से बरसाते भी हैं और कभी शहद वाणी में वार करके भी देखते हैं। लेखक यदि समझदार है तो समझ जाता है, यदि ज़्यादा समझदार है तो फिर धृष्टता दिखाते हुए वार को हास्य रस में झेल जाता है। नहीं समझा तो उसकी क़लम तोड़ने के लिए सभी प्रेमी उबलते हैं, फिर मन मसोस के रह जाते हैं। मात्रा हिसाब गड़बड़ी करने पर सज़ा तो दे नहीं सकते, सिर धुन लेते हैं। सही में, साहित्य हिसाब-किताब का पक्का है सच्चा है। गणित से कहीं कम नहीं। इसे हत्या से बचाने वालों को पूजा जाता है, पद्मश्री मिलती है। 

साहित्य न्यायालय के कटघरे में मैं स्वयं हूँँ। हत्या नहीं करूँ, ठानी भी। मनन भी किया और अपने लिए सुधार गृह के रास्ते भी खुले रखे परन्तु जो शास्त्र के शस्त्र से विहीन है वह भला कैसे सुधर सकता है? मैंने वह बिल्ली भी बनने की कोशिश की जो आँख बंद कर दूध पीती है और सोचती है उसे कोई नहीं देख रहा परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। मैं अपने आसपास अष्टावक्र भी नहीं चाहती। यह अच्छी तरह जानती हूँ कि साहित्य की अदालत रजत शर्मा की ‘आप की अदालत’ का कटघरा नहीं है जहाँ सौ ख़ून करके भी बा-इज़्ज़त बरी हो जाऊँ। 

आज तो मैं व्यंग्य की हत्या की भी दोषी हूँ। अपनी बात सभी सम्मानित साहित्यकारों के लिये दोहराती हूँ कि आप किसान हैं, इंजीनियर हैं, चित्रकार भी हैं, मूर्तिकार भी हैं, तभी आप श्रेष्ठ श्रेणी के क़लमकार हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

किरन सिंह 2022/06/29 06:44 AM

वाह सुरभि जी आपने बढ़िया तरीक़े से व्यंग्य को शब्द दिए ।

प्रदीप कुमार 2022/06/27 01:33 PM

बढ़िया व्यंग्य। हिन्दी साहित्य की एक सशक्त विधा। पढ़कर बहुत अच्छा लगा, बधाई।

पाण्डेय सरिता 2022/06/27 01:17 PM

सारगर्भित विषय पर सारगर्भित लेख

डा वासुदेवन शेष 2022/06/27 01:16 PM

सुरभि जी साहित्य और साहित्यकारों की वर्तमान स्थिति आपने अपने शब्दों बखूबी बयां किया है। यही वास्तविकता है यह व्यंग्य भले ही हो पर आईना दिखाने वाला है। आज न्यायालय और न्याय भी कठघरे में है। तराजू की काली पट्टी बाँध देने से कुछ नही होता। ईमान और इंसाफ दिखना चाहिए। आपका शीर्षक सटीक है तथ्य से पूरण है। बधाई स्वीकार करें।

डा सी कामेश्वरी 2022/06/27 09:55 AM

बहुत ही सुन्दर लिखा है । शब्द चयन बहुत ही बढ़िया। इसमें मुझे व्यंग्य के साथ साथ दुख की झलकियां भी दिखाई दी । अनोखे विषय के साथ आप प्रस्तुत हुई हैं। साधुवाद ।

डॉ पदमावती 2022/06/27 09:27 AM

वाह सुरभि जी आपकी कलम को नमन। आख़िर तीर दाग ही दिया जो आर-पार हो गया । बहुत सुंदर और बहुत बधाई ।

Rashmi TIWARI 2022/06/26 10:21 AM

A very nice article, a hasya vyang on the writing of some sahityakars who actually kill the subject which they try to create. Thoroughly enjoyed reading it.

भावना तिवारी 2022/06/26 09:24 AM

A beautiful piece of article depicting the अंतर्द्वंद of the writer for what one wants to write, what one is forced to write and what one writes.There are many a times we try to write keeping our surrounding mentality in view however that's exactly not wat v love to write. Bravo and kudos to Dr. Surabhy Dutt for always keeping her inner fire burning and Writing her mind out

विभावसु तिवारी 2022/06/26 09:07 AM

बहुत ही सुंदर सारगर्भित व्यंग्य। साहित्यक जीवन का एक अनूठा और द्वंद से जूझता विचार दर्पण।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं