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समय की अवस्थाएँ

अपने स्कूली छात्रों को देख कर एक दिन यूँ ही ख़्याल आया, हम भी कभी ऐसे ही थे। 

अतीत की कितनी ही अप्रिय घटना हो, अपना प्रभाव सदा मन पर नहीं रख सकती, कितनी ही बार कुछ घटनाएँ ऐसी हुईं जिन्होंने भय की पराकाष्ठा तक भयभीत कर दिया, कुछ समस्याएँ जिनका समाधान दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता था, ऐसी स्थिति में भय और चिंता ही मन का केंद्र विषय हो जाता है। 

मगर उनमेंं से कितनी हैं जो आज भी हमें उतना ही चिंतित और भयभीत कर सकें। क्या आज भी किसी अतीत की घटना का हमारे लिए उतना महत्त्व है? शायद नहीं। 

और आज की परिस्थितियों का भी निश्चित रूप से कल कोई मूल्य नहीं रह जायेगा। क्योंकि हमारा मन समय सापेक्ष है, अब क्योंकि समय सतत परिवर्तनशील है तो मन भी सतत बदलता रहता है। 

बचपन मेंं किसी बच्चे के लिए खेल, खिलौने ही रुचिकर होते हैं, उसे काग़ज़ के नोटों और खिलौनों में चुनाव करना हो तो निश्चित रूप से वो खिलौने चुनेगा, जवानी में मित्र या कोई प्रेयसी। 

आज आम तौर पर हर व्यक्ति का चुनाव पैसा है, लेकिन क्या ये भी बच्चे के खिलौने की तरह बेमूल्य हो सकता है? 

जब मन की वह अवस्था स्थायी नहीं है तो कोई भी अवस्था स्थायी कैसे हो सकती है। 

इसे मन की अवस्था कहो या समय की, एक ही बात है, दोनों ही अवस्थाधर्मी हैं। 

बचपन वाला शरीर, जवानी वाला शरीर दोनों ही नहीं रहे, अतीत हो गए। 

वर्तमान शरीर भी अवस्था परिवर्तन की ओर सतत अग्रसर है, नहीं रहेगा। 

पहले मन खिलौनों से खेलता था अब धन दौलत से। 

मन का क्रियाकलाप नहीं बदला, बस खिलौना बदल गया। 

आज उन खिलौनों का हमारे लिये कोई महत्त्व नहीं रहा, तो आज के खिलौनों का महत्त्व कल कैसे रहेगा, लेकिन पहले मन बच्चा था अब बूढ़ा हो चला है, अभ्यास इतना अधिक हो चुका कि शायद मरणासन्न अवस्था मेंं भी ये मोह न छूटे। 

शरीर बदल गया मन बदल गया, मनुष्य की प्राथमिकताएँ सतत बदलती रहती हैं। 

इस चराचर जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है, तो मनुष्य क्यों समझ लेता है कि वह हमेशा ही बरक़रार रहेगा, और यदि ऐसा नहीं सोचता है तो क्यों ऐसे ढंग से जीता है, जिसमें भविष्य के लिए कोई सार्थक योजनाएँ नहीं बनाता। 

कई धनपति और प्रतापी लोग हुए जिनका आज नामोनिशान भी बाक़ी नहीं, तो क्यों इन्हीं लौकिक सम्पत्ति के कुचक्र में पड़कर अमूल्य जीवन को कौड़ी के मोल बेचने को आमादा है। 

इस बात के पक्के प्रमाण उपलब्ध हैं कि संसार मेंं कुछ भी स्थायी नहीं है, सब क्षणिक है। 

फिर उसकी सम्पत्ति ओर लौकिक सुख आख़िर कब तक टिक सकेंगे। 

थोड़े से विवेक से काम ले तो ये सब समझना इतना मुश्किल नहीं है। 

लेकिन इंसान अपनी बुद्धि को हमेशा अपनी स्वार्थ सिद्धि के प्रपंचों में उलझकर रखता है। 

इसलिए इस रहस्य का अनावरण नहीं हो पाता। 

और संसार के मनमोहक खेल खिलौनों में ही उलझा रहता है। 

ख़ैर जो भी हो खिलौने तो खिलौने हैं, उनकी क्या बिसात, टूट भी जाते हैं, छूट भी जाते हैं। 

वक़्त के बारे में एक कहावत मशहूर है:
 
“अच्छा हो या बुरा, लेकिन बदलता ज़रूर है।” 

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