वे लोग जो अब नहीं हैं . . .
काव्य साहित्य | कविता डॉ. पुनीता जैन15 Mar 2022 (अंक: 201, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
माँ
लाहौर में जनमी थीं
अक़्सर किसी अनारकली बाज़ार को
याद करती थीं . . .
याद करतीं भयभीत हो
अपना घर अपनी हवेली छोड़ भागना
मार काट के बीच लंबी कठिन यात्रा
बहन भाइयों का बिछड़ना
किसी का जबलपुर
किसी का बिलासपुर जा पहुँचना
बिछड़कर भी फिर मिल जाना
बचपन में अक़्सर
रात को खाना पीना खाकर
हम छत पर सोने जाते
माँ सुनाती कई सारी कहानियाँ
जो कहानियाँ नहीं हक़ीक़त थीं
जिसका दर्द, आहें, शोक, भय
उनके भीतर के गहरे अँधेरे कुएँ से
साँय साँय निकलते थे
हम ख़ामोशी से सुनते थे
ऐसे दर्द बड़े असहनीय होते थे
याद करती हूँ बार बार
तब भी यह याद नहीं पड़ता
कभी ग़ुस्से से/ घृणा से
माँ ने उस देश का नाम पुकारा हो . . .
दरअसल उस देश में लाहौर था
जो उनका ही नहीं/ पिता का भी जन्मस्थान था
जब भी पुकारा /दुख ने ही एक देश को पुकारा था
वे उखड़े हुए पौधे थे, जो यहाँ रोपे तो गये थे
पर कभी भी खिलकर फले फूले न थे
माँ अक़्सर सुनाती थी
दंगों और विभाजन की कहानियाँ
लगता माँ नहीं दर्द सुनाता है वह घटनाएँ
उनके नाना नानी मामा का ज़िन्दा जला दिया जाना
वह किसी रिश्ते को काट दिया जाना
वह किसी रिश्ते को बचा लिया जाना
याद नहीं आता
उस कठिन वक़्त का कोई एक क्षण
जब नफ़रत की कोई महीन रेखा
दर्द की सैंकड़ों लकीरों के बीच
उभरी हो उस चेहरे पर
माँ ने कभी नफ़रत नहीं की उस ज़मीन से
माँ सुनाती इसी के साथ
बापू का मारा जाना
उनका फूट फूटकर रोना /भूखे सो जाना
माँ की माँ/ बहन भाई/ मोहल्ले का रोना
घर घर की रसोई का /सूना रह जाना
हमारी ख़ामोश नमी शामिल होती उस मातम में
माँ के पास दुख की बेहिसाब कहानियाँ थीं
जिसकी नम गली से वह गुज़री थी
जो टूटने बिखरने की तकलीफ़ सुनाती थी
पर किसी ज़मीं से नफ़रत की बू
इसमें नहीं आती थी
अब अपने वक़्त की दुर्गंध से गुज़रती हूँ
तो सोचती हूँ
जो बापू की मौत पर ज़ार-ज़ार रोया हो
जो दर्द की सेज पर हर रात सोया हो
वह किसी देश /किसी पहचान से
नफ़रत कैसे कर सकता है . . .
वह माँ जैसा ही हो सकता है . . .
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