ये हम ही थे . . .
काव्य साहित्य | कविता डॉ. पुनीता जैन15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
शब्द /जंगल के हरे भरे पेड़ थे
जड़ें थी जिनकी गहरी /पत्तियाँ हरी-भरी
फल-फूल से लदी
ये हमारी ही जमातें थी
जिसने काट दी शाखाएँ/ तने /जड़ें/
जलाया ले जाकर उन्हें
शहर के बीचोंबीच
घिसा और बनाया नुकीला
तैयार किया युद्ध के शस्त्र की तरह
यह हमारी ही जमातें थी
जिसने हरे-भरे शब्दों को
बदल दिया तीर-भाले में
ये हमारी ही जमातें थी
जिन्होंने दिखाया भय /आक्रांताओं का . . .
शब्दों के उपवन / जो सूखने को तैयार नहीं थे/
भय से सूख गये वे/ जले /और
करने लगे हथियारों संग हमजोली . . .
ये हमारी ही जमातें थीं
जिसने खोदी अपनी ही जमातों की जड़ें . . .
शब्दों में भर भरकर गहरे विष . . .
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