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वेदना

दिवाली मयस्सर नहीं ज़िन्दगी की इस पहेली में। 
अंधकार मन भावन है निष्ठुर समाज सी सहेली में। 
अपने पराये की ’भूपेंद्र’ जग एक झूठी माया है। 
देखता हूँ माँ बाप को अकाल मृत्यु की दहेली में॥ 
 
बर्बादी देखकर मेरी खिलखिलकर हँसते हैं। 
झूठी आबो-हवा में बहकर नित ताने कसते हैं। 
समय बदलते देर नहीं लगती रे जानवर ’भूपेंद्र’। 
दुखों की वेदी पर कभी मैं तो कभी वो भी जँचते हैं॥ 
 
कहावत है इज़्ज़तदार व्यक्ति ही हमेशा मरता है। 
क्यों वो समाज की कुछ नीच नज़रों से डरता है। 
घर से बाहर निकलने में आख़िर क्यों आहें भरता है। 
दास्ताँ अजीब, अकेले सहते अंदर ही अंदर घुटता है॥ 
 
माँ मेरी की आँखों में अंधकार छा गया है। 
रुग्ण वेदना ख़ुशियाँ बहाकर ले गया है। 
दीये तो हमारे घर में भी ख़ूब जला करते थे। 
तबाह ज़िन्दगी में घी लपटे ज़्यादा दे गया है॥ 
 
ये समय तो भाई अकेले ही काटना पड़ेगा। 
अपनों की तलाश में दुनिया को बाँचना पड़ेगा। 
समय अच्छा हो हर कोई आपका सारथी है। 
त्रासदी में रथ को अकेले ही निकालना पड़ेगा॥ 
 
नयनों में अपने कृज्ञता से उम्मीद का दामन पकड़े रहना। 
अगाध शान्ति में जाकर दयानंद निरंतर बहते रहना। 
मैं भाव का दीप जलाऊँगा, तुम प्रेम का घृत भरते रहना। 
करुणा भरी नयन वाणी से हर दिन दीपावली करते रहना॥ 

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टिप्पणियाँ

भीम सिंह 2021/12/01 05:43 PM

बहुत शानदार छोटे भाई

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