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यशोधरा बनी बुद्ध

 

रास की रात, 
पहर तीसरा, 
किसी गूढ़ कोने से आई 
बाँसुरी का गहरा आलाप . . . 
 
मदमस्त हो सुनता रहा मेरा मन 
प्रेम की कुछ दिव्य झंकार! 
कहती है जो मुझसे
तन पर लगा ले
जलती धूई का भस्म; 
बुलाये है तुझे—
तेरा आराध्य
तेरा गंतव्य
तेरा मौन विराट बुद्ध! 
 
किसी तलैया के मनोरम घाट में नहीं, 
किसी बोधि की मीठी छाँव में नहीं, 
बुलाए है तुझे 
जलती लकड़ियों की प्रदक्षिणा में
मसान के मध्य . . .! 
 
बढ़ाया मैंने अपना क़दम
चली बन मैं उसकी सहयात्री
रगड़ लिया मैंने अपने तन पर
प्रेम का महकता जलता भस्म 
ले ली आज मैंने भी समाधि 
बोधि प्रेम वट के तले
बन गई आज मैं—
शक्ति
लोकमाया
यशोधरा
 
मैंने थिरकते हुए . . . 
छोड़ा महल
बन गई अब मैं
अपने प्रेम में बुद्ध! 

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