अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अस्तित्व

मैंने ख़ुद को
एक अरसे से नहीं देखा ...
या शायद ख़ुद को
कभी नहीं देखा।

 

एक अनकहा-सा
दबाव रहता है...
कभी मर्यादाओं का ..
कभी रिश्तों का ..
जब देखा जो देखा
उनकी नज़र से देखा।

 

कभी बेटी
कभी बहन
कभी बहू
कभी पत्नी
कभी माँ
कभी सखी
ये सारे उद्बोधन ..
हो गए हावी ...
और मैं भूल गई ..
मैं मानस भी हूँ ..
मैं भूल गई ....
इन सब रिश्तों से परे
मैं ....हाँ मैं भी हूँ ..और जीत गई
समाज की मानसिकता।
जकड़ दिया गया मुझे
नारी होने के दायरे में
अब मैं मानस नहीं ..
बस एक नारी हूँ।
अनगिनत रिश्तों ..
और मर्यादाओं के
बोझ से दबी ...
अपनी कुंठाओं
से निरंतर संघर्ष करती ..
बस एक नारी ...

 

जब देखा ख़ुद को
बस एक नारी देखा।
कभी अबला
कभी सबला
कभी तितली
कभी चिड़िया
कभी धरती
कभी शक्ति
कभी भक्ति
कभी बस 'चीज़'
बस ये ही रह गई
पहचान मेरी ...
खो गया कहीं
*अस्तित्व* मेरा ...
खो गया वो मेरा
साधारण-सा मन ...
खो गया अहसास
मैं भी मानस हूँ पहले ...
धुँधला गया है ये सच
मेरे भी है सपने ...
सादा से
चंचल से
शरारती से
निश्छल से
और रह गया एक
सच बाकी ....
नारी ही हूँ और कुछ नहीं
और कुछ नहीं
किसी ने कभी देखा...
एक अरसे से मैंने
ख़ुद को नहीं देखा ...
या शायद ख़ुद को
कभी नहीं देखा।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं