मदर स्पैरो
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुषमा गुप्ता12 Apr 2017
बचपन के आँगन में
चिड़िया-सी चहकती थी ...
अपने बाबुल के साये में
महफूज़ महकती थी ....
लगने न दी भूले से भी
कभी खरोंच मुझको...
अल्हड़-सी मस्त सी
बेफ़िक्र जां गुज़रती थी।
आज प्रभु बना दे फिर
वही चिड़िया मुझको.....
हाँ.. आज प्रभु बना दे
फिर वही चिड़िया मुझको .
बस एक फ़र्क
इस बार तू करना...
मेरे परों में ऐसा
विश्वास दे तू भरना...
समेट पाऊँ अपने
माँ पापा को ...
अपने डैनों में ...
ऐसा इन्हें सशक्त
ऐसा इन्हें विस्तृत करना...
ताउम्र परवान चढ़ा के
जीना मुझे सिखाया है ...
अब थाम के हाथ उनका
हर ठोकर से बचा लूँ उनको।
फट-सा जाता है ये सीना
जब आँख उनकी नम देखूँ ...
अब हालात की आँधियों से
बस बचा लूँ उनको ...
बस अपनों पंखों तले
छुपा लूँ उनको।
हाँ ...प्रभु बना दे
फिर वहीं चिड़िया मुझको ...
पर इस बार हमारे
रोल रिवर्स करने होंगे ..
बेबी स्पैरो नहीं
मदर स्पैरो बनाना होगा मुझको।
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