मन का चोला
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुषमा गुप्ता12 Apr 2017
ये छलका-छलका-सा
भरा-सा क्या है?
ये उलझा उलझा-सा
डरा-सा क्या है?
पलकें तो सूखी हैं
आँखें भी खाली हैं
फिर ये भीगा-भीगा-सा
सीला.. -सा क्या है?
क्या ये मन है मेरा?
हाँ.... मन ही होगा।
वरना ये अंदर- अंदर
नम-सा क्या है।
सारे कोने टटोल लिये
मन के मैंने ..
इस उद्विग्नता का रिसाव
स्रोत कहाँ है?
बहुत खंगाला बहुत बीना
तब थोड़ा-थोड़ा शायद
समझ रही हूँ ..
ये तो मेरा नारी
अस्तित्व है।
नारी शरीर का चोला
जो मेरे मन के ऊपर है
और स्थिर है।
औरररर नारी के तो
हर क़दम पर
सोच का पहरा है।
कुरूप कुटिल जटिल
मानसिकता का।
हाँ!!! अब समझी ..
ये घबराया-सा निडर-सा
उड़ता-सा थमा-सा
चलता-सा रुकता-सा
गिरता-सा सँभलता-सा
फूल-सा पर बींधा-सा
मेरा मन है.....
मेरे नन्हे से निश्छल मन का
निडर होने की कोशिश करता
नारी शरीर का चोला।
और इस चोले से ढके
मन का तो विचलित होना
स्वाभाविक है, स्थायी है
हाँ ...क्योंकि मेरे मन का
चोला नारी शरीर है ....
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