बँटवारा
काव्य साहित्य | कविता उत्तम टेकड़ीवाल10 Feb 2017
बाबू जी एक रोटी को हमेशा
भाईयों में बाँटते थे एक जैसा
रोटी एक थी उसके हिस्से हम
रोटी एक थी पर ख़ुश थे हम
ख़ून का रिश्ता वो हमारा
रोटी का रिश्ता बना न्यारा
उम्र के साथ रोटियाँ बढ़ती गईं
बँटवारे का हिस्सा परवान चढ़ती गईं
फिर सिर्फ़ हिस्से का हिसाब रह गया
न जाने वो एक रोटी कहाँ खो गई
माया का जादू ऐसा चल गया
भूख मर गई, लालच पल गया
एक रोटी बँट कर भी परिवार बनाती है
एक कोशिका बँट कर ही शरीर बनाती है
एक देश, एक मानवता, बनती है पृथ्वी एक
बँट पाये त्रिदेव भी जब, बनती है सृष्टि एक
बँटना और बँट कर बनना ही है निरंतर ब्रह्म
बनते प्रेम बाँध से, बाँटते लालच, ईर्ष्या, दंभ
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