चाय
काव्य साहित्य | कविता उत्तम टेकड़ीवाल23 May 2017
रोज़ सुबह पीता हूँ मैं एक प्याली चाय।
पत्नी के हाथों की चाय!
जिन हाथों की मेहंदी ने
पिस कर घुल कर भी
रंगीन बनाया था मेरे जीवन को।
चाय की भूरी पत्तियों ने न जाने कब
सीख लिया था उस मेहंदी का गुण
जो महका रहे हैं मेरी प्याली को।
उसका अनूठा रंग फैल कर
छा गया है मेरी चाय के अस्तित्व पर।
सुबह की व्यस्त दिनचर्या में भी
मेरी चाय अपना स्थान निकाल ही लेती है।
नदी के उस जल की तरह
निकलता है चट्टानों को मिट्टी बनाते हुए
सागर की ओर बहता जा रहा असीम प्रेम में।
गिरता है पड़ता है पर निर्मल ही रहता है।
श्रेष्ठ है उस निर्मलता को समाए हुए मेरी चाय।
दूध की मिठास बसाए होती है चाय -
गाढ़े प्रेम की निस्वार्थ सादगी
जो जीवन के ताप में उबल कर
स्वाद के साथ वो आग भी देती है
जिससे मन तरोताज़ा रहता है
और आत्मा को तृप्त कर जाता है।
एक-एक चुस्की लेकर रोज़ पीता हूँ मैं
ज़िन्दगी की तरह अपनी चाय।
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