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भैया तुम्हारा हैट कहाँ है

आज आकाश में श्वेत-श्याम घटायें उमड़-घुमड़ कर नाना प्रकार की आकृतियों का सृजन कर रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे प्रकृति रूपी चित्रकार नभ के चित्रपट पर श्वेत-श्याम रँगों से पवन रूपी तूलिका लेकर घटाओं की नवीन आकृतियाँ रच कर अपनी कला का प्रदर्शन कर रही है। बीच-बीच में दामिनी चमक कर उन कलाकृतियों को पार्श्व से ऐसे जगमगा देती जैसे दीवाली के अवसर की जलने-बुझने वाली बल्बों की झालर लगा दी गई हो जो रुक-रुक कर कलाकृतियों को प्रकाशित कर रही है। हम दोनों पति-पत्नी बैठक में बैठ कर प्रकृति के कला कौशल का अवलोकन कर रहे थे। खिड़की के सामने प्रांगण में लगे क्रिसमस ट्री और गुड़हल की शाखाओं की परस्पर छेड़खानी देखकर बच्चों की आँख-मिचौनी का आनंद प्राप्त हो रहा था। हम सोच ही रहे थे कि इस मनोहारी मौसम में कहीं घूमने जाया जाये या कुछ और किया जाये कि तभी दरवाज़े पर किसी कार के आकर रुकने की आवाज़ सुनाई दी।

"राकेश शर्मा जज साहब आये हैं," मेरी परिचारिका रीता ने आकर बताया तो मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा। राकेश मेरी देवरानी रश्मि के बड़े भाई हैं और इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त होकर गोमतीनगर के विश्वास खंड के अपने आवास में रहते हैं। देश-विदेश का पर्यटन करने और वहाँ के इतिहास को पढ़ने, देखने और फिर उस पर मनन करने में उनकी विशेष अभिरुचि है। उनके पास अनेकों देशों का भ्रमण करने के उपरांत प्राप्त किया गया वहाँ के इतिहास का विशद ज्ञान का भंडार है। आने के उपरांत पारस्परिक शिष्टाचार के उपरांत उन्होंने अपनी प्रिय चर्चा छेड दी। मुहम्मद की जीवनी से लेकर ग्रीस, टर्की, सीरिया, जर्मनी, बर्लिन, लेबनान, चीन आदि देशों के इतिहास-भूगोल की विशद चर्चा छेड़कर उन्होंने हमारे ज्ञान की अभिवृद्धि की और आह्लादित किया।

राकेश शर्मा के आने के समाचार से प्रसन्न होने का मेरा एक व्यक्तिगत कारण भी था। कुछ वर्षोँ पूर्व मेरे एक शोध-ग्रंथ अशरीरी संसार के लोकार्पण के पश्चात राकेश ने मुझे अपने फूफा जी के पुनर्जन्म की घटना सुनाई थी। मैंने उसका विवरण एक काग़ज़ पर नोट करके रख लिया था, जो खोजने पर भी नहीं मिला था। सात जुलाई दो हज़ार चौदह को मेरे आवास पर ज्ञान प्रसार संस्थान की गोष्ठी होनी निश्चित हुई। इस संदर्भ में तैयारी करते समय अचानक मुझे वह नोट मिल गया जिसे मैं कई वर्ष से रखकर भूल गई थी। मैं विचार कर रही थी कि अवकाश मिलते ही राकेश के पास जाऊँ और इस घटना को दुबारा सुनकर अपनी अगली पुस्तक के लिये लेखनीबद्ध करूँ। अचानक राकेश शर्मा के आने पर मैं इस सुअवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। अन्य देश-विदेश की चर्चा होनेके पश्चात मैंने विषय परिवर्तन करके राकेश से अपने फूफा जी के पुनर्जन्म की घटना को एक बार पुनः सुनाने का आग्रह किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकर किया।

राकेश शर्मा ने जो विवरण सुनाया वह उसी प्रकार लिख रही हूँ…।

"जिला इटावा से लगभग सत्तर किलोमीटर पर बम्हनीपुर नामक गाँव है जहाँ प्रमुखतः ब्राह्मण निवास करते हैं। वहाँ पर दो परिवार प्रमुख थे जिनमें एक मेरे फूफा जी का मिश्र परिवार था। फूफा जी का नाम अवध बिहारी लाल मिश्र था। वह बम्हनीपुर में अपनी हवेली में अपनी माता, पत्नी (मेरी छोटी बुआ) और अपने दो पुत्रों के साथ रहते थे। अपनी माँ को वह मैया कहते थे। उनके पास अच्छी ख़ासी ज़मींदारी थी, खेत-खलिहान थे, बाग़ थे और ट्यूबवेल था। वह बहुत शौकीन आदमी थे। उन्हें अपनी दुनाली बंदूक बहुत पसंद थी जिसे वह बाहर से आने पर मर्दानी बैठक में खूँटी पर अपने कुर्ते के साथ टाँग दिया करते थे। इसके बाद वह घर के अंदर जाते थे और्र हाथ-मुँह धोते थे। मेरी बुआ की जब शादी हुई तब उन्होंने हमारे आवास पर बैठक में ग्रामोफोन रक्खा देखा। मेरे पिताजी कुछ समय पूर्व ग्रामोफोन ख़रीद कर लाये थे। उन दिनों ग्रामोफोन का प्रचलन प्रारंभ ही हुआ था। ग्रामोफोन को देखकर फूफा जी मचल गये और पिताजी को वह उन्हें देना पड़ा। मैं तब छोटा था पर मुझे भली-भाँति याद है कि उन दिनों सडकें बहुत ख़राब स्थिति में होती थीं। पिताजी ने एक बैलगाड़ी में नीचे गद्दा बिछवाया। उसके ऊपर ग्रामोफोन रक्खा गया। उसके ऊपर से फिर गद्दा ढँक दिया गया। उसके चारों ओर भी कपड़ा लगाया गया ताकि उसमें झटके लगने से कोई नुक़सान न हो। बड़े क़रीने से ग्रामोफोन फूफा जी के घर भिजवाया गया था।

फूफा जी कबीरपंथी थे। उनकी मृत्यु होने पर उनका दाह-संस्कार नहीं किया गया था। ऋगीपुर में ले जाकर उनके पार्थिव शरीर को सिल्ली बाँधकर उनकी प्रथा के अनुसार गंगा में प्रवाहित कर दिया गया ताकि जल के जीव उनके अवशेष को खाकर अपनी क्षुधा तृप्त कर लें। मेरी बुआ की इच्छा ऐसी नहीं थी । वह उनका दाह-संस्कार कराना चाहती थीं। उनके शव प्रवाहित करने के पश्चात तेरहवीं आदि रस्में विधि-विधान से की गईँ थीं।

कुछ समय के पश्चात समीप के गाँव में एक यादव परिवार में सुना गया कि एक बच्चे का जन्म हुआ है जो अपने माता-पिता से तरह-तरह की बातें करता है जैसे- यह घर छोटा है मेरी तो बहुत बड़ी हवेली है। यहाँ पर मोटर का इंजन नहीं है। मेरे पास मोटर का इंजन है, बड़े-बड़े खेत-खलिहान हैं। मेरे पास दुनाली बंदूक है। मेरी मैया हवेली में रहती है। जब बार-बार बच्चा इस तरह की बातें करता और बम्हनीपुर गाँव का नाम लेता तो लोगों ने सोचा कि गाँव पास में ही तो है क्यों न परख लिया जाय। जब वे लोग बच्चे को लेकर गये तो गाँव शुरू होने के पहले फूफा जी के खेत दिखाई दिये। बच्चा दौड़ते हुए वहाँ पहुँच गया। बड़े ध्यान से खेत को देखकर बोला- पहले तो यहाँ धान बोया जाता था, अब दूसरी चीज़ क्यों बोई गई है? उसने अपने दोनों बेटों को पहचान लिया। ट्यूबवेल देखकर वह अपने बेटों से पूछने लगा – अरे यहाँ बड़ा पहिया लगा था अब छोटा पहिया क्यों लगा दिया? (वास्तव में इंजन में पहले बड़ा पहिया था और अब ज़रूरत के अनुसार छोटा पहिया लगा दिया गया था)। बच्चा आगे दौड़ते हुए हवेली पहुँच गया। बैठक में खूँटी खाली देखकर वह चौंक पड़ा। बोला—मेरी दुनाली बंदूक यहाँ खूँटी पर थी, कहाँ चली गई? फूफा जी की मृत्यु के पश्चात मेरे बड़े फुफेरे भाई बंदूक को हवेली के अंदर अपने कमरे में टाँगने लगे थे। मैया को देखते ही बच्चा एकदम से दौड़कर कूदता हुआ उनके पास पहुँचा और उनकी गोद में बैठ गया। मेरी बुआ को देख कर बच्चा शर्मा गया। बुआ भी उसे देख कर लजा गईँ। बच्चे ने घर के सदस्यों को पहचाना। सामान भी पहचाना। ग्रामोफोन को पहचान कर और ठीक से रक्खा देख कर बहुत प्रसन्न हुआ। यह सब देख कर मैया भी वात्सल्यमई हो उठीं। उनके मन में अजब सी हलचल हो रही थी अतः उन्होंने उसकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने उससे पूछा, "लला! तुमने घर की बड़ी बटलोई किसको दी थी? बरसों से नहीं मिल रही है।" बच्चा एकदम से बोल पड़ा— "मिन्नो डुको ले गईँ थीं मोढी के ब्याह के लिये।" यह बात मैया जानती थीं और किसी को नहीं मालूम थी। मिन्नो डुको की नीयत बिगड़ गई थी और उन्होंने बटलोई देने को मना कर दिया था। बच्चा फिर बोला—अभी मिन्नो डुको को बुलाओ। मिन्नो डुको को बुलाया गया। पहले तो उन्होंने मना किया पर जब बच्चे ने ज़ोर से कहा कि मोढी के ब्याह में तुम ले गईँ थीं तो वह शर्मिंदा होकर बच्चे के पैर छूकर माफ़ी माँगने लगीँ और बटलोई वापस करने का वादा करके चली गईँ। शाम को वह बटलोई वापस भी कर गईँ। इस समय तक सबको इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि फूफा जी ने वास्तव में पुनर्जन्म लिया है। बम्हनीपुर के दूसरे ब्राम्हण परिवार से फूफा जी के सम्बंध मधुर नहीं थे। जब बच्चे को उन लोगों की तरफ़ ले जाया गया तो उसने उनके प्रति बेरुख़ी दिखाई जबकि उसने अपने घर के सदस्यों एवँ आत्मीय जनों के प्रति प्रेम पूर्ण व्यवहार किया। यहाँ तक कि अपने पूर्व जन्म की पत्नी की ओर लजीली दृष्टि से देखा। बुआ भी उस नन्हें बालक से सकुचा रही थीं।

यह ख़बर जब उड़ते-उड़ते मेरे पिताजी ने सुनी तो उन्हें इस बात पर कतई विश्वास नहीं हुआ। वह इस तरह की बातों को कोरी गप्प मानते थे। चूँकि यह उनकी बहिन से सम्बंधित बात थी अतः उन्होंने उस बच्चे की स्वयं परीक्षा लेने का विचार किया। पिताजी बिना किसी को सूचित किये उस गाँव में यादव के घर पर जा पहुँचे। बच्चा पिता जी को देख कर एकदम से प्रसन्न हो उठा। लपक कर उनके पास आया और ख़ुश होकर उनको देखते हुए बोला— भैया, तुम्हारा हैट कहाँ गया? मेरे फूफा जी मेरे पिता जी को भैया कह कर सम्बोधित करते थे। पिताजी यह सुनकर चौंक पड़े। वास्तव में ख़ास बात यह थी कि वर्षोँ पूर्व जब फूफा जी जीवित थे तब मेरे पिताजी पैंट पहनते थे जिसके पाँयचे में साइकिल से चलते समय क्लिप लगा लेते थे और सर पर हैट लगाते थे जो मेरे पास अभी भी रक्खा है। वास्तव में इधर कई वर्षोँ से पिताजी ने हैट लगाना छोड़ दिया था और दोनों कँधों पर फैलाकर तौलिया डालने लगे थे। वह स्वयं हैट वाली बात भूल चुके थे और जब बिना सूचना वह बच्चा उन्हें देखते ही यह प्रश्न कर बैठा कि— भैया तुम्हारा हैट कहाँ गया तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। उन्हें रंच मात्र भी शंका न रही कि फूफा जी ने सचमुच ही पुनर्जन्म लिया है। घंटा-दो घंटा वहां पर रुक कर पिता जी वापस लौट आये थे। लौटकर पिताजी मुझसे बोले— मुन्ना! उस बच्चे ने जब मुझसे कहा–

"-भैया तुम्हारा हैट कहाँ गया?" तो मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ।

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