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कुछ अनोखे अनकहे क़िस्से

हम लोग अपने पारिवारिक मित्र श्री गोपाल सिंह और श्रीमती कमला सिंह के यहाँ जौनपुर के शिवपुर ग्राम में गये थे। कमला ने अमेरिका से आकर अपने गाँव में लड़कियों के लिये निःशुल्क विद्यालय खोला है। कमला हाल में सियाटल से स्पाइन का ऑपरेशन करा कर लौटी थीं। 

(1)

एक दिन गोपाल जी ने हम लोगों को अपने अफ़्रीका के सफारी पार्कों की यात्रा का वीडियो दिखाया। खुली जीप में बैठकर शेरों को बिल्कुल समीप से देखना बहुत रोमांचक अनुभव था। गोपाल जी ने बताया कि शेर हमला नहीं करते पर कभी-कभी दुर्घटना हो जाती है। मुझे भी बचपन में पापा के साथ जंगलों में घूमना और जानवरों को देखना स्मरण हो आया। बातों-बातों में श्री जी.के. वाजपेयी आई.पी.एस. का ज़िक्र आ गया। वह बलिष्ठ शरीर के बहुत बहादुर व्यक्ति थे। वाजपेयी जी शाहजहाँपुर में एस.पी. थे। एक दिन वह अपने साले के साथ जो ए.डी.एम. थे, जंगल में शिकार खेलने गये थे। उस समय जंगल भी बहुत घने थे और शेरों का शिकार प्रतिबंधित नहीं था। गोली ठीक से न लगने पर घायल शेर का पीछा करते समय शेर ने वाजपेयी जी के साले पर आक्रमण कर उन्हें घायल कर दिया। वाजपेयी जी बहुत बहादुर थे। साले को बचाने के लिये वह शेर से भिड़ गये। घायल शेर बहुत ख़ूँख़ार हो जाता है। उसने दोनों को घायल कर दिया। दुर्भाग्यवश दोनों अधिकारी काल कवलित हो गये। आज भी इस दुखद दृश्य की स्मृति से आँखें नम हो जाती हैं। वाजपेयी जी पापा के अभिन्न मित्रों में से एक थे। 

(2)

यदि अतिथि से आपकी कोई क़ीमती चीज़ टूट जाये और वह आपको ही सांत्वना देते हुए बेसाख़्ता कह उठे—“डोंट वरी” और विषय परिवर्तन कर कुछ और कहने लगे तो इस तरह का अचरज भरा वाक़या स्मृतियों में बसा रह जाता है। 

वाजपेयी अंकल बड़े बेतकल्लुफ़ व्यक्ति थे। उनका एक संस्मरण मुझे स्मरण हो आया है। तब मेरा विवाह नहीं हुआ था। जब पापा आगरा में एस.एस.पी. थे तब वाजपेयी जी एटा में एस.पी. थे। जब भी डी.आई.जी. रेंज मीटिंग करते थे तब वाजपेयी जी आकर हमारे यहाँ रुकते थे। आगरा का एस.एस.पी. का आवास 13 ए हेस्टिंग्स रोड पर था। आवास में सामने बरामदे के बाद बीच में बैठक (ड्राइंग रूम) थी और एक ओर दफ़्तर और दूसरी ओर पापा-मम्मी का शयन कक्ष था। ड्राइंग रूम के ठीक सामने भोजन कक्ष था और अगल-बग़ल दो कमरे थे। पापा के कमरे के सामने का कमरा हम दोनों बहिन और भाई का था और दफ़्तर के सामने का कमरा अतिथि कक्ष था। जब वाजपेयी जी हमारे अतिथि बनते थे तब भोजन कक्ष बीच में होता था और वह बिल्कुल हमारे सामने के कमरे में रुकते थे। 

वाजपेयी अंकल बहुत बेपरवाह, मस्त-मौला क़िस्म के व्यक्ति थे। उन्हें यह ध्यान नहीं रहता था कि लड़कियाँ सामने कमरे में हैं तो कपड़े ठीक से पहन कर सामने आयें। प्रातः उठकर जब वह व्यायाम दंड-बैठक आदि करते थे तब वह अपने कमरे का दरवाज़ा बंद करने या पर्दा ढँकने की आवश्यकता नहीं समझते थे। ड्राइंगरूम और डाइनिंग रूम (भोजन कक्ष) के बीच में एक खुली खिड़की थी जिसके बीच में एक शेल्फ़ बनी थी जिसके ऊपर सजावट की वस्तुएँ रक्खी जाती थीं। 

ड्राइंग रूम की खिड़की के शेल्फ़ पर काँच के दो बड़े-बड़े सुंदर सुराहीनुमा जग रक्खे थे जो वहाँ बहुत सुंदर लगते थे। वे मुझे ही नहीं पापा को भी बहुत प्रिय थे। कारण यह था कि जब पापा इटावा में पुलिस अधीक्षक थे तब वहाँ की नुमाइश में महिलाओं की राइफ़िल शूटिंग प्रतियोगिता हुई थी। मुझे लड़कियों की राइफ़िल शूटिंग प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था। मैंने राइफ़िल चलाना सीखा तो था परंतु अपने फुफेरे भाई सदन दद्दा के कहने पर प्रतियोगिता में पहली बार ही भाग लिया था। इनाम मिलने पर पापा ने मुझे बहुत शाबाशी दी थी। 

एक बार जब वाजपेयी जी हमारे अतिथि कक्ष में रुके थे तब सुबह के समय मम्मी और मैं बैठक में खड़े होकर कुछ बात कर रही थीं। उसी समय पापा भी वहाँ पर आ गये। वह बाह जा रहे थे। पापा की आवाज़ सुनकर वाजपेयी जी व्यायाम करना छोड़ कर, अंडरवियर बनियाइन में खिड़की पर आये और दौड़कर आवाज़ लगाई, “राधेश्याम” और खिड़की का पर्दा झटके से हटाया। हम लोग उन्हें इस दशा में देखकर सन्न रह गये कि इतने में दोनों जग झन्न करते हुए फ़र्श पर गिर कर चकनाचूर हो गये। पापा के मुख पर यह देखकर हवाई उड़ने लगीं पर वाजपेयी जी निर्लिप्त, निर्विकार भाव से बोले, “अरे . . . डोंट वरी।”

पापा ने यह कहने की कोशिश की कि “यह नीरजा के इनाम के हैं” . . .

पर बात बीच में काट कर “डोंट वरी” कहते हुए वाजपेयी जी बेतकल्लुफ़ी से बोले, “शर्मा! मीटिंग तो कल है। तुम रुको, मैं भी बाह चलूँगा। उधर तीतर बहुत हैं।”

मैं स्तब्ध थी कि मेरे इनाम के जग तोड़ने का उन्हें कोई अफ़सोस नहीं था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उनसे हमारा नहीं बल्कि हमसे उनका नुक़्सान हुआ है। मुझे वाजपेयी जी की निर्विकार भावना और पापा की आश्चर्यचकित मुद्रा अभी भी याद है। 

(3)

वाजपेयी जी तीतर के शिकार के बेहद शौक़ीन थे। वह भयंकर मांसाहारी थे। जब वह आगरा आते तो कुछ दिन रुककर बाह और बटेश्वर के तीतरों का शिकार करते थे। पापा शाकाहारी थे। एक बार पापा ने कहा, “तुम सारे तीतर ख़त्म कर दोगे। इतनी हत्या क्यों करते हो?”

इस पर वाजपेयी जी ने उत्तर दिया, “अमां यार! ये क्या हल जोतेंगे?”

एक बार मेरे फुफेरे भाई श्री सोमेश चंद्र पाठक (सदन दद्दा) हमारे यहाँ आये हुए थे जब वाजपेयी जी भी हमारे अतिथि बने। आई.जी. (अब पुलिस महानिदेशक) साहब ने आगरा में रेंज के पुलिस अधीक्षकों की मीटिंग रक्खी थी। वह बिना गोश्त के भोजन नहीं करते थे। हमारे घर पर तो केवल शाकाहारी भोजन बनता था अतः पापा ने आई.जी. साहब व अन्य अधिकारियों के रात्रि भोज के लिये होटल से मुर्गे का गोश्त मँगवा लिया था। पापा ने बँगले के गार्ड के सिपाहियों और अपने हमराह (गनर) व वाहन चालक (ड्राइवर) के खाने के लिये भी अधिक मुर्गे मँगाये थे। जैसे ही रात्रिभोज समाप्त हुआ और पापा आई.जी. एवं अन्य अधिकारियों को विदा करने के लिये बाहर निकले, वाजपेयी जी ने बचे हुए मुर्गों के गोश्त का भगौना बाहर ले जाकर गार्ड रूम के पास बनी कोठरी में बंद करके ताला लगा कर चाभी अपने पास रख ली। पापा जब लौट कर अंदर आये तो सिपाहियों को खिलाने को कुछ नहीं था। पापा ने उन लोगों के लिये अलग से खाना मँगवाया। 

वाजपेयी जी का कार्यक्रम सुबह वापस एटा जाने का था। उनकी और सदन दद्दा की परस्पर ख़ूब छनती थी क्योंकि दोनों के शौक़ एक से थे—शिकार करना और गोश्त खाना। हमें पता नहीं चला और सदन दद्दा एवं वाजपेयी जी कहीं बैठकर या तो गप्पें मारते रहे या कहीं तीतर का शिकार कर आये और अचानक दोपहर को बारह बजे प्रकट हुए। हम लोग चकित रह गये जब देखा कि सदन दद्दा और वाजपेयी जी भोजन कक्ष में भगौना मेज़ पर बीच में रख कर बैठ गये हैं और चपरासी उनके सामने प्लेट रख रहा है। जब तक हम कुछ समझ पाते तब तक दोनों सज्जन अपने दोनों हाथों से मुर्गे की बोटियाँ उड़ाने में व्यस्त हो गये। उनके दोनों हाथों से शोरबा रिस रहा था। हमें यह ज्ञात नहीं था कि रात का बचा गोश्त इन लोगों के क़ब्ज़े में है। उनको शेर की तरह गोश्त पर जुटे देखकर हमारे रोंगटे खड़े हो गये। हम लोग घबराकर अपने कमरे में भाग गये। वे लोग पूरा भगौना रिक्त करके उठे तब मेज़ की दुर्दशा देख कर हम लोग विचलित हो उठे। प्लेट के बाहर मेज़ पर मुर्गों की हड्डियों का ढेर लगा था। हमारे नेत्रों के समक्ष उन दोनों का दोनों हाथों से भोजन करने का दृश्य साकार हो उठता था अतः कई दिन तक हम लोग उस मेज़ पर भोजन न कर सके

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