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संकोच जी

“हाँ संकोच जी यहाँ बैठीं हैं। बिल्कुल ठीक है मैं नमस्ते कह दूँगी”........... क्रेडिल पर फोन का रिसीवर रखते हुए नीलम ने मेरी ओर देखा और फिर स्वयं पर नियन्त्रण रखने में असमर्थ  वह जोर से खिलखिलाकर हँसने लगी। हँसते-2 नेत्रों में पानी भर आया। पानी को पोंछते हुए बोली- “नीरजा! जानती हैं आप को निर्मल संकोच जी कहती हैं”, और फिर शैतानी से मेरी ओर देखकर बोली- “अरे आप भूल गईं क्या--वो राले में हम निर्मल के यहाँ डिनर पर गये थे ------ बड़ी सी लेक थी उनके घर के सामने?”

“ओह, वो निर्मल” ....  अचानक एक-एक कर समस्त घटनाक्रम मेरे नेत्रों के समक्ष चलचित्र सा साकार हो उठा। मैं स्वयं भी अपनी हँसी पर नियन्त्रण न रख सकी।

“संकोच जी”- कहने वाली निर्मल वाकई मेरे लिये एक नवीन प्रकार का चरित्र थीं। मैं सोचती हूँ कि मैं उन्हें भूल कैसे गई? एक रोमांचकारी घटना है उनसे सम्बन्धित।

सन्‌ 2002 की सितम्बर माह की घटना है यह। उस समय मैं और मेरे पति महेशचन्द्र अटलान्टा में अपने पुत्र देवर्षि के पास थे। कुछ वर्ष पूर्व मेरे उपन्यास “कालचक्र से परे” पढ़कर श्रीमती सुधा धींगड़ा का राले से मेरे पास फोन आया था। उन्हें उपन्यास बहुत पसन्द आया था और वह बार-बार आग्रह कर रही थीं कि मैं उनके पास आऊँ। मेरे पति सेवानिवृत्त हो चुके थे और हमारे पास समय भी था अत: हमने सुधा धींगड़ा जी का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया था। उन्होंने हमारे लिये अपने आवास पर राले में कुछ स्थानीय व कुछ दूर के कवियों एवं हिन्दी प्रेमी श्रोताओं को बुलाकर एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया था। मेरे पुत्र देवर्षि ने सदर्न पावर कम्पनी, अटलान्टा में अभी हाल में ही कार्य प्रारम्भ किया था अत: वह अत्याधिक व्यस्त था। मेरे पति के अभिन्न मित्र एवं लखनऊ विश्वविद्यालय के सहपाठी बसन्त कुमार तड़ियाल जो अब अटलान्टा निवासी हैं, कुछ वर्ष राले में व्यतीत कर चुके थे एवं सुधा धींगड़ा से भी परिचित थे। बसन्त का मंझला पुत्र आदित्य तड़ियाल भी राले में रहता था। वह सहर्ष हमें राले ले जाने को तैयार हो गये। कवि सम्मेलन के लिये हम लोग बसन्त एवं नीलम के साथ उनकी कार से राले पहुँचे। आदित्य तड़ियाल का घर एकदम स्वच्छ और व्यवस्थित था। मैं एक अविवाहित युवक को इतने व्यवस्थित रूप से देखकर वास्तव में चकित थी। मुझे उसके बड़े भाई अजातशत्रु के घर की स्मृति हो आई, जब हम एक बार उसके घर पर लन्दन (यू.के.) में रुके थे। अजातशत्रु एकदम मस्तमौला एवं घुमक्कड़ जीव हैं। हमें लेने के लिए वह एकदम ठीक समय पर रिचमंड स्टेशन पर पहुँच गया था। टेम्स नदी के सामने रिचमन्ड हिल पर उसका आवास था। सड़क के समीप सीढ़ी से नीचे उतरकर बेसमेन्ट में प्रविष्ट होने पर सामने ही ड्राइंगरूम था जो पहली नजर में साफ-सुथरा एवं व्यवस्थित प्रतीत हुआ था। हमारे बहुत मना करने पर भी हमारे उपयोग के लिए अजातशत्रु ने अपना बेडरूम दे दिया था। वह माना नहीं, बोला था- “पापा मम्मी आते हैं तो वे भी इसी में रुकते हैं।” नीलम ने आने से पूर्व मुझे जानकारी दे दी थी कि अजातशत्रु के घर पर खाना बनाने के बर्तन व सामान उन्होंने रख दिया है। अत: भोजन पकाने में अधिक असुविधा नहीं होगी। अजातशत्रु ने स्टेशन से हमें लेकर आते समय रास्ते में फूड स्टोर से दूध, ब्रेड, अण्डा, प्याज, आलू, गोभी, मक्खन, चाय की पत्ती, चीनी, काफी, आदि खरीद ली थी। घर आकर मैंने भोजन बनाने के विचार से प्रश्न किया - “खाना बनाने के बर्तन कहाँ रक्खे है?”

“आई डोन्ट नो, मम्मी केप्ट देम, लेट मी फाइन्ड आउट” (मुझे पता नहीं। मम्मी ने कहीं रखे हैं। मैं देखता हूँ।)---- तपाक से उत्तर मिला। अजातशत्रु के बहुत ढूँढने पर भी बर्तन न मिलने थे न मिले। खोजने के लिये मैं किचन में घुसी तो उसकी अव्यवस्था देखकर दंग रह गई। पर कुछ क्राकरी आल्मारी में दिख गई। माइक्रोकेव अवन सामने था। मैंने आलू धोकर फौइल में लपेट कर अवन में भूनने के लिये रख दिया। सिंक में पानी भरा हुआ था और उसमें मुझे कुछ बर्तनों के बीच में डूबा हुआ एक पैन दिखाई दिया। मैं शाकाहारी हूँ और सिंक में बर्तनों के बीच झाँकती मुर्गे की टाँग देखकर मैं सिहर उठी---उसमें से पैन निकालना मेरे वश की बात नहीं थी। अजातशत्रु ने पैन निकालकर धोकर मुझे दे दिया। हमने आलू, ब्रेड-बटर से काम चला लिया। दूध और चाय थे ही। अजातशत्रु ने ‘गुडनाइट’ करते हुए कहा- “अंकल! आंटी! डोन्ट माइन्ड। आई एम नाट ए गुड होस्ट। मेरा खाना तो होटल से ही आता है। आप कहें तो मैं होटल से डिनर आर्डर कर दूँ।” हमारे मना करने पर उसने बड़े भोलेपन से हँसकर कहा- “आई शैल लीव फार वर्क अर्ली इन दी मौर्निंग ऐंड मे बी कम लेट इनदी ईवनिंग। डोन्ट वेट फौर मी इन दी ईवनिंग्स। हाउस इज योर्स। व्हेनेवर यू गो आउट, लीव दी की इन दी वुडेन बाक्स नियर दी डोर। फील ऐट होम ऐंड बी कम्फर्टेबल।” (मैं प्रात: जल्दी काम पर चला जाऊँगा और शाम को लौटने में देर हो सकती है। अत: मेरी प्रतीक्षा मत कीजियेगा। जब कभी बाहर जायें तो बाहरी दरवाजे की चाभी दरवाजे के बगल में लगे लकड़ी के बक्से में रख दीजियेगा। आराम से अपना घर समझ कर रहियेगा।”) बाकी दिनों वाकई हम होस्ट थे और वह गेस्ट।

प्रात:काल जब हम सोकर उठे तो अजातशत्रु जा चुका था। मैंने सोचा क्यों न उसका घर व्यवस्थित कर दूँ। तब पाया कि उसके ड्राइंगरूम की आल्मारी में धूल की तह जमी हुई थी । मैंने एक गन्दा तौलिया उठाकर आलमारी पोंछकर सामान लगा दिया। करेन्सी नोट बिखरे हुए थे जिनको व्यवस्थित करके किताब से दबा दिया, परंतु कम से कम दो किलो वजन के विभन्न देशों के बिखरे सिक्कों को छांटना मेरे वश की बात नहीं थी। अत: मैंने उन्हें एकत्रित करके एक बड़े फलावर वाज में भरकर रख दिया। इतने में मेरे पति ने वह कमरा देखने के लिये खोला, जिसमें रात्रि में वह सोया था तो हँसते हुए मुझे बुलाया- नौ फीट लम्बे और उतने ही चौड़े छोटे से कमरे में एक चारपाई पड़ी थी...... चारपाई न कहकर गन्दे कपड़ों का ढेर कहना अधिक उपयुक्त होगा। ऊपर-नीचे, अगल-बगल, चारों ओर पहने हुए वस्त्र उल्टे-सीधे, ठूँस दिये गये थे। मेज पर किताबें भरी पड़ी थी। आश्चर्य से मेरे मुख से निकला- “हे भगवान यहाँ बेटू (अजातशत्रु) कहाँ सोया होगा?” 6फीट 4” लम्बे बेटू का शरीर उस कक्ष में कहाँ समाया होगा, मैं समझ नहीं पा रही थी।

नीलम ने मुझे बताया था कि जब वह बेटू के पास जाती है तो सारे कपड़े लान्ड्री करके रख देती हैं। वह स्वयं वस्त्र धोने या लान्ड्री करवाने का कष्ट नहीं करता है, आवश्यकता पड़ने पर वह नये कपड़े खरीद लाता है।

अब यहाँ राले में फर्श पर एक बूँद चाय गिर जाने पर तुरन्त दौड़कर किचेन टावेल लाकर फर्श पोंछते हुए आदित्य को देखकर मैं आश्चर्य चकित थी। दोनों सगे भाइयों के रहन-सहन में जमीन-आसमान का अन्तर था।

दूसरी सन्ध्या को सुधा धींगड़ा के यहाँ कवि सम्मेलन आयोजित था। हम लोग साढ़े चार बजे उनके आवास पर पहुँच गये। वहाँ हाल में लगभग पचास श्रोतागण उपस्थित थे। कुछ स्थानीय थे और कुछ दूर से भी आये थे। कुछ कविगण भी बाहर से आये थे। एक सैन्य अधिकारी की पत्नी जो पंजाब की थी और प्रसिद्ध कवियित्री थी, भी वहाँ उपस्थित थी। कवि सम्मेलन के दो सत्र हुए थे। दोनों सत्रों में हम दोनों पति-पत्नी ने कुल पाँच-पाँच या छ:-छ: कवितायें सुनाई थीं। अन्य कवियों ने अपनी एक-दो रचनाएँ सुनाई थीं। उन कवयित्री ने दो-तीन रचनायें सुनाई थीं। विदेश में अपने हिन्दी प्रेमी भाई-बहिनों को कविता सुनाने का आनन्द ही कुछ और होता है। कविताओं को सुनकर उनकी तल्लीनता एवं स्वाभाविक उद्‌गार देख-सुनकर लिखने की प्रेरणा मिलती है। बसन्त के एक मित्र नेगी साहब व उनकी पत्नी सूर्य बाला को मेरी कवितायें बहुत पसन्द आईं, तो मैंने उन्हे नी कविताओं का कैसेट -”गुनगुना उठे अधर” भेंट किया । अपने घर लौटने के उपरांत सूर्यबाला ने उसकी डी. वी. डी.  बनाकर हमारे पास भेजी थी और साथ ही स्नेहपूर्ण पत्र भी, जिसमें लिखा था कि उनके पति आफिस जाते समय रोज रास्ते में कवितायें सुनकर उनका आनन्द लेते हैं। साथ ही हम दोनों को अपने यहाँ आने का आत्मीय निमन्त्रण भी दिया था। वह अपने मित्रों को वहाँ हमारी रचनायें सुनवाना चाहती थीं।

हाँ तो राले के कवि सम्मेलन की समाप्ति के उपरान्त मैं एक ओर खड़ी थी कि पीछे अचानक किसी महिला के स्वर कान में पड़े - “अरे यार! ढाई घन्टे बोर करके मार दिया, मैं तो तुझसे बातें करने यहाँ आई थी। एक दो समझ में आईं, बाकी ऊपर से निकल गईं।”

 “ध्यान से सुनती तब समझ आती न?” नीलम का खनकता स्वर था।

 “तुझे तो मालूम है कि मैं चुप नहीं बैठ सकती। यहाँ तो मुझे मार ही डाला। जैसे ही बोलने को मुँह खोलती चुप रहने का इशारा कर दिया जाता।” - शिकायत भरा वही स्वर सुनाई दिया।

मैने मुड़कर पीछे देखा - कुछ गोल सा मुख, कटे हुए बाल पोनी टेल में बंधे, गोरा रंग, भरे शरीर की अधेड़ आयु की एक स्त्री गुलाबी प्रिन्टेड सलवार-सूट पहने नीलम से हँस कर बातें कर रही थी। उसकी बात सुनकर कुछ क्षण के लिये मैं खिन्नमना हो गई कि इतने में वह कवयित्री जो पंजाब की रहने वाली थी मेरे समीप आकर बोलीं - “मुझे आपकी कवितायें बहुत पसन्द आईं। मैं भी नारी सम्वेदनाओं पर लिखती हूँ परन्तु आपकी रचनाओं में गहराई और अनुभूति अधिक है। भाषा तो बहुत सुन्दर है। बधाई।”

 “पर ऐसा अगता है लोगों को मेरी कवितायें पसन्द नहीं आईं”, अनायास मेरे मुख से निकल पड़ा।

 इतने में कुछ अन्य महिलायें मेरे निकट खिसक आईं। एक बोल पड़ी - “न समझने वाले एक दो ही हैं। यहाँ जितने लोग एकत्रित हैं एक दो को छोड़कर, सभी प्रबुद्ध श्रोता हैं।” एक अन्य श्रोता ने पीछे से कहा, “ऐसा साहित्यिक वातावरण हमें यहाँ कहाँ मिल पाता है।” एक महिला बोलीं- “ आपकी सरस्वती वन्दना और ‘ऐ मेरे प्राण बता’ गीत मुझे बहुत अच्छे लगे। आपकी आवाज बहुत प्यारी है। गीत सुनकर मैं रोमांचित हो उठी?” वह महिला देवरिया की निवासी थीं। घर-परिवार के विषय में प्रश्न करने लगीं। मेरे आँसू पुँछ गये कि कुछ श्रोताओं को कवितायें बोरिंग लगी तो कुछ को बहुत अच्छी भी।

तभी नीलम ने मुड़कर उस स्त्री से मेरा परिचय कराया “नीरजा! यह निर्मल है, मेरी सहेली”, और “निर्मल ये नीरजा हैं। ये लोग इन्डिया से आये हैं। मेरे गेस्ट हैं।” मुझे तो जैसे साँप सूँघ गया उन्हें देखकर और सिटपिटा वह भी गई मुझे नीलम की अतिथि के रूप में जानकर। एक क्षण को उनका मुख फक्क पड़ गया पर तुरन्त ही सहज होकर हँसते हुए बोलीं, “यार माफ करना। हिन्दी विन्दी मुझे कम आती है। वो तो नीलम ने बुलाया था, इसलिये मैं आ गई थी। यार मुझसे चुप नहीं बैठा जा सकता है।” उनकी चिरौरी करती भावभंगिमा देखकर मुझे भी हँसी आ गई। मेरे सामने एक अन्य परिचिता की छवि घूम गई जिन्होने मुझसे कहा था, “मिसेज द्विवेदी! आप अकेले चुप कैसे बैठ लेती हैं? मै तो दस मिनट भी चुप रहूँ तो मेरी जीभ मुँह में अन्दर ही अन्दर कुलबुलाने लगती है।” मैने निर्मलमना होकर निर्मल से कहा, “निर्मलजी! आप की बात से मेरा मन निर्मल हो गया।” निर्मल ने यह सुनते ही दूसरे दिन अपने घर पर डिनर रख दिया और मैंने धन्यवाद सहित स्वीकार कर लिया।

बसन्त और नीलम अटलान्टा आने के पूर्व राले में रहते थे। वहाँ उनके कई अमिल मित्र हैं। दूसरे दिन प्रात: से ही किसी न किसी से मिलने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। शाम की चाय बसन्त के एक अन्य मित्र के यहाँ थी; वहीं से सबको एकत्रित होकर निर्मल के यहाँ जाना था।

निर्मल का घर देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। उसके घर के सामने बहुत बड़ी, सुन्दर झील थी और उसमे विहार करने हेतु किनारे पर छोटी डोंगी जैसी नौका बंधी थी। निर्मल डिनर की तैयारी में व्यस्त थी और जिह्वा को विश्राम दिये बिना बोले जा रही थी। मेरे कर्णतंतुओं में पता नहीं क्या विशेषता है कि कस को अनवरत बोलते सुनकर मुझे झुँझलाहट होने लगती है, और यदि अकेले में किसी ऐसे व्यक्ति का साथ पड़ जाये, तो यह झुँझलाहट पगलाहट में परिवर्तित होने लगती है।

शाम का समय था, ठन्डी हवा चल रही थी, अन्ध्ोरा हो गया था। नीलम का मन झील देखकर चंचल हो उठा। वह बोलीं “चलो बोटिंग करते हैं।” सबके सब झील के किनारे पहुँच गये। मुझे ठन्ड अधिक लग रही थी। मुझे बोटिंग बहुत पसन्द है परन्तु उस दिन न जाने क्यों मेरी अन्तरात्मा बोटिंग करने जाने की गवाही नहीं दे रही थी। इस विचार से ही झुरझुरी आ रही थी और मैं पानी में जाने के नाम से ही भयभीत हो रही थी। अत: मैंने बोटिंग हेतु अनिच्छा प्रकट की। नीलम ने कहा- “आप नहीं जाना चाहतीं तो कोई बात नहीं। आप घर में अन्दर निर्मल के पास रुक जाइये।” मुझे लगा कि निर्मल के साथ अकेले बैठकर विरामरहित बकबक सुनने से तो पानी में डूबना अच्छा है । मैं शीघ्रता से बोल पड़ी- “नहीं, केाई बात नहीं। मैं भी आपके साथ ही चलती है।” अमेरिका में कानून है कि नाव पर बैठने से पूर्व लाइफ जैकिट पहनना आवश्यकता होता है। सब लोग लाइफ जैकिट पहन चुके थे। वहाँ बची मेरे साइज से बहुत बड़ी एकमात्र लाइफ जैकिट मैंने भी अपने शरीर पर झुला ली।

झील में नीचे जहाँ नाव बँधी थी, उतरने के लिये सीढ़ियाँ नहीं थीं। वहाँ अर्ध गोलाकार चबूतरा बना था, जिस पर लोहे की रेलिंग लगी थी। रेलिंग के नीचे से झुककर और बाहर निकलकर नाव पर बैठा जाता था। नीलम सबसे पहले नीचे उतरकर नाव पर किनारे बैठ गई। मैं उतरकर दूसरे किनारे पर बैठ गई। अब  नीलम की सहेली का बेटा आकाश उतरकर नीलम की तरफ बैठ गया। इतने में नीलम का बेटा आदित्य मेरी तरफ को नाव में बैठने के लिये उतरा ही था कि छपाक की आवाज के साथ नाव नीचे झुकी और मैं पानी में सिर के बल डुबकी लगाकर जमीन पर खड़ी हो गई। नाव उल्टी होकर तैरने लगी। गनीमत थी कि उस स्थान पर पानी केवल कमर तक ही गहरा था। नीलम, आदित्य और उसका मित्र आकाश सभी पानी में भीगे खड़े थे। आकाश तो बिना एक क्षण गँवाये, “साँप-साँप” चीखता बाईं ओर मुड़कर किनारे पर छलांग लगाता, भाग खड़ा हुआ। बाद में उसने बताया कि इस झील में पानी के जहरीले साँप बहुतायत में हैं। बसन्त ने नीलम को सहारा देकर ऊपर चढ़ा लिया- वह तो जीन्स टॉप में थी फुर्ती से ऊपर चढ़ गईं। आदित्य किनारे से भागते  हुए अपने मित्र को  देख चुका था, अत: वह भी उधर से कूदते-फाँदते ऊपर चढ़ गया। एकमात्र बेचारी मैं साड़ी पहने विवश सी नीचे खड़ी रह गई । बसन्त ऊपर आने के भिन्न-भिन्न उपाय बता रहे थे। मेरे पति व आदित्य ने मेरे हाथ पकड़कर मुझे ऊपर खींचने का प्रयास  किया पर व्यर्थ । हाथ ऊपर खींचते तो साड़ी पैरों में उलझ जाती, पैर छुड़ाती तो पल्ला बहकर नाव में अटक जाता। जब तक पल्ला छुड़ा पाई तो साड़ी, पेटीकोट, और अपने से दुगने साइज की लाइफ जैकिट पानी भरकर इतने भारी हो गये कि मैं स्वयं अपना वजन उठाकर रेलिंग तक नहीं पहुँच पाई । सूचना पाकर घबराई हुई निर्मल टार्च लेकर वहाँ आई और बोलीं, “भाभी! आप बाईं ओर से चलकर किनारे पर चढ़िये । मैं टार्च दिखा रही हूँ, उधर ही पैर रखियेगा।” किसी तरह लदर-पदर करती मैं किनारे पहुँची तो मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे ऊपर खींच लिया। ठन्ड से थर-थर काँपते हुए वहाँ खड़े होकर मैंने कपड़ों से पानी निचोड़ा । सबके जूतों में रेत भर गई थी। मैंने जूते उतारकर पलिथिन के बैग में डाले। निर्मल हमें टॉयलेट में ले गईं। अपना सलवार-सूट और तौलिया साबुन देकर बोलीं, “अच्छी तरह नहाकर चेन्ज कीजियेगा। बालू रह गई तो तंग करेगी।”

जब मैंने नहाकर कपड़े पहने तो ऐसा नहीं प्रतीत हुआ कि किसी दूसरे के वस्त्र पहने हूँ। ऐसा लगता था जैसे मेरे नाप के ही कपड़े सिलवा कर रक्खे थे।

नीलम दूसरे टॉयलेट में नहाकर आई। उनको भी निर्मल की ड्रेस एकदम ठीक आई थी। हेयर ड्रायर से बाल सुखाते हुए बोलीं – “यार निर्मल! तुमने पानी में डुबाने का भी इन्तजाम कर रखा था और बाद में पहनाने का भी।”

निर्मल ने सहानुभूति पूर्ण स्वर में मुझसे प्रश्न किया- “भाभी जी? आप तो बोटिंग के लिये मना कर रही थीं, आप गई ही क्यों?” मैं उनकी बकबक से होने वाली उलझन की वास्तविक बात तो उन्हें बता नहीं सकती थी, अत: मेरे मुख से अचानक निकल पड़ा - “न जाने क्यों आज मेरा मन बोटिंग के लिये जाने का बिलकुल नहीं था। नीलम जा रही थीं तो संकोचवश मैं भी जाने को तैय्यार हो गई।”

       और यही घटना मेरे नामकरण का सबब बन गई।

       उक्त घटना का आद्योपान्त स्मरण करके मैं पुन: खिलखिला उठी।

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