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हिमपात का सौन्दर्य : अटलांटा अमेरिका 

मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि आज रात्रि के ग्यारह बजे से बर्फ़ गिरने की सम्भावना है। मैं जाग रही हूँ। रात के बारह बज चुके हैं, पर अभी तो बर्फ़ गिरने के आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं। शैय्या पर लेटे हुए एक हाथ से पर्दा उठाये मैं बाहर देख रही हूँ। आकाश में धूमिल कुहासा छाया है—हर ओर निस्तब्धता, घोर सन्नाटा। न कहीं किसी मनुष्य की आवाज़, न पक्षी की। कुत्ते-बिल्ली भी मौन हैं। कुछ कारें बंद आवासों के गैराज के बाहर खड़ी हैं, जो मनुष्यों की उपस्थिति की द्योतक हैं, अन्यथा इस समय ऊँची–नीची ढाल पर स्थित पर्णविहीन वृक्षों के बीच, तिकोने आकार के खपड़ैल की छतों के घर अत्यन्त सुन्दर होते हुए भी निर्जीव शरीर से निष्प्राण हैं, शान्त हैं और ऐसे में एकाकीपन की अनुभूति नितान्त स्वाभाविक है। दूर पहाड़ी पर लगे चीड़ और ओक के वृक्ष की शाखायें तेज़ी से हिलती हैं, हवा तेज़ हो गई है—मैं प्रतीक्षारत हूँ कि अब वर्षा आयेगी और स्नोफ़ाल होगा, पर न जाने कब मेरी उँगलियों से पकड़ा पर्दा छूट जाता है, आँखें बन्द हो जाती हैं। 

“मम्मी-मम्मी स्नोफ़ाल हो रहा है,” देवर्षि व अनामिका दौड़ते हुए आकर अत्यन्त उत्तेजित स्वरों में बोले। अनामिका अदिति को लिये मेरे कक्ष के बाहर खड़ी थी। रात के तीन बजे थे। खिड़की का पर्दा हटाकर देखा तो बाहर कोहरा सा छाया था। वृक्षों पर जहाँ प्रकाश पड़ रहा था, बर्फ़ की हल्की सी परत दिखाई दे रही थी। इस समय स्नोफ़ाल की गति अत्यन्त धीमी थी अतः केवल कोहरे का आभास हो रहा था, परन्तु जब दूर दो खम्भों में लगी लाइट के नीचे दृष्टि गई तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हज़ारों भुनगे या पतंगे उड़ रहे हों। ध्यान से देखा तो ज्ञात हुआ कि बर्फ़ गिर रही है। थोड़ी देर में तेज़ी से बर्फ़ गिरना प्रारम्भ हो गया। अब हमारे सामने भी बर्फ़ गिरती दिखाई दे रही थी—जैसे रुई धुनकर सम्पूर्ण वातावरण में उड़ा दी गई थी। देवर्षि मूवी कैमरा लेकर फोटो खींचने के चक्कर में है, पर प्रकाश सीमित है। वह दरवाज़ा खोलकर बाहर जाता है और गमले में भरी बर्फ़ का एक बड़ा सा गोला बनाकर ले आता है। देवांश भी जग गया है। हम सब लोग देर तक बर्फ़ गिरने का आनन्द लेते हैं, फिर बच्चे सोने चले जाते हैं। देवर्षि को प्रातः ऑफ़िस भी जाना है। 

मेरी शैया के सामने ही खिड़की है। पर्दा हटा देने पर सम्पूर्ण दृश्य लेटे हुए भी दिखाई देता है। मुझे स्नोफ़ाल देखने का अवसर पहले भी कई बार मिला है, परन्तु इतनी देर तक लगातार बर्फ़ गिरते देखने का यह पहला अवसर है। धीरे-धीरे बर्फ़ की श्वेत पर्त सम्पूर्ण स्थानों पर छाई जा रही है। सारे घरों की खपड़ैल एक सी सफ़ेद होने लगी है। लॉन, घास, वृक्ष, पौधे, सड़कें, फुटपाथ, पहाड़ी, ड्राइव वे सब पर बर्फ़ गिरकर जमने लगी है। 

प्रातः पाँच बजे हैं, हल्का प्रकाश हो गया है। बिना पत्तों के पेड़ जिन पर छोटे-छोटे अँखुए निकले हैं, बर्फ़ जम कर कोरल जैसे प्रतीत हो रहे हैं। उनके हर अँखुए पर बेर के बराबर बर्फ़ जम चुकी है। सारे वृक्ष दूध के नहाये खड़े हैं—शाखें सफ़ेद, तने सफ़ेद, धरती सफ़ेद, नीचे की घास सफ़ेद, छोटे-छोटे पौधे बर्फ़ से ढँके एकदम सफ़ेद। एक किनारे पर मोर पंखी का पेड़ लगा है। उसके पत्तों पर बर्फ़ की गहरी श्वेत परत के बीच से झाँकती, गहरी हरी पत्तियों की हल्की रेखायें अत्यन्त आकर्षक दृष्टिगोचर हो रही हैं। जो कारें बाहर खड़ी हैं, उनके ऊपर दो इंच मोटी बर्फ़ की परत जम चुकी है—यह पता ही नहीं चलता कि कार का रंग लाल है, काला है या सफ़ेद है। लॉन एवं ड्राइव-वे गहरी मोटी सफ़ेद बर्फ़ की चादर से ढँका प्रतीत होता है। सामने की सड़क भी सफ़ेद हो गई है। उसका स्तर नीचा है, इस कारण सफ़ेदी में काली आउटलाइन सी बनी दिखाई देती है। जो डस्टबिन बाहर हैं उनके ऊपर बर्फ़ की सिल्ली जैसी जमी है। पोस्ट बॉक्स बर्फ़ से ढँककर काले की जगह सफ़ेद हो गये हैं। पीछे की पहाड़ी और किनारे एवं बाईं ओर की पहाड़ी पूरी की पूरी सफ़ेद हो गई है। चीड़ के वृक्षों को भी बर्फ़ ने ढँक लिया है और उन पर जमी बर्फ़ ऐसी प्रतीत होती है जैसे हज़ारों सॉफ़्टी आइसक्रीम के कोन उसमें टाँग दिये गये हैं। कुछ वृक्षों के नीचे रौकरी बनी है। ऊपर बिना पत्ते के पेड़ और नीचे रौकरी बर्फ़ से ढँकी ऐेसी प्रतीत होती हैं जैसे—चांदी के घोल में डुबोकर बड़े-बड़े कोरल के वृक्ष खड़े कर दिये गये हैं और उनके नीचे पौधे और पत्थर के ऊपर बचा हुआ घोल उड़ेल दिया गया है, जिनके बीच से हरे और काले रंग की झलक मिल रही है। सारा आकाश एक सा धूमिल सलेटी है—समस्त वातावरण अत्यन्त सुन्दर, मनमोहक, अभूतपूर्व आकर्षण से ओतप्रोत है। परन्तु यहाँ न जाने क्यों श्मशान की सी शान्ति विराजित है। 

प्रातः आठ बजे हैं। आज इस कॉलोनी में पहली बार जीवन्तता के चिह्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं। दाहिनी ओर के दूसरे घर के ड्राइव वे में काली जैकिट व काली पैन्ट पहने, कुदाल हाथ में लिये एक व्यक्ति निकल कर आया है। मैं ध्यान से देखती हूँ कि वह गैरेज के दरवाज़े के सामने से लेकर नीचे सड़क तक कुदाल से एक सीधी रेखा खींचता है। इसके पश्चात रेखा के बग़ल से कुदाल से उठा-उठाकर बर्फ़ किनारे फेंकता है। वह अपनी पगडंडी साफ़ करता है। जो घर ऊँचाई पर बने हैं उनके ड्राइव वे अन्य लोग भी साफ़ कर रहे हैं। देवर्षि के घर के सामने सिल्विया, लारेन्स व टेरेसा अपने कुत्ते के साथ बर्फ़ की गेंद बना-बना कर खेल रहे हैं। सड़क के पार वाले पहले घर में एक स्त्री अपने दो बच्चों के साथ स्नो मैन बना रही है। एक बच्चा दो साल का है, एक चार साल का। दोनों बच्चे नन्हे-नन्हे हाथों में बर्फ़ के गोले भर कर लाये हैं, जिसे थोपकर माँ ने स्नोमैन को आकृति प्रदान की है। उसके गले में एक स्कार्फ बाँधा गया है और सिर पर एक कैप भी रक्खी जा रही है। उस घर के बग़ल वाले घर में तीन-चार हम उम्र बच्चे बर्फ़। की गेंद एक-दूसरे के ऊपर फेंकते हुए फोटो खिचवा रहे हैं। अगले घर में रबर की स्लेज पर दो बच्चे बार-बार ऊपर से नीचे फिसल रहे हैं और उनके मम्मी–पापा उनकी फोटो खींचने की तैयारी कर रहे हैं। यहाँ से जो अन्तिम घर दिखाई दे रहा है, उसमें भी बच्चों ने एक स्नोमैन बनाया है। उसके गले की काली टाई और काला हैट यहाँ से भी दिखाई दे रहा है। कुछ शोर सुनाई देता है तो मेरी दृष्टि देवर्षि के घर के बाईं ओर बने घर की ओर जाती है। ऊँची पहाड़ी पर बने इस सुन्दर से मकान में सर्वदा मुर्दनी छाई रहती थी। मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि चार-पाँच किशोर–किशोरी वहाँ पर बर्फ़ की क्रीड़ा का आनन्द ले रहे हैं। एक किशोर के हाथ में बड़ी सी रबर की डौलफिन है, जिस पर वह नीचे फिसल रहा है। दो किशोरियाँ एक लाल रंग का बड़ा सा स्लेज लिये हैं, और खिलखिलाते हुए उस पर लेटकर फिसलने को तैयार हैं। दो अन्य बच्चों के हाथों में बड़े ट्यूब हैं, जिन पर बैठकर वे बर्फ़ पर फिसलते हुए नीचे आये हैं। देवर्षि के ठीक सामने के घर से निकलकर एक लड़की ने अपने साल भर के बच्चे को बर्फ़ से भरे लॉन में बिठा दिया है, और बच्चा बर्फ़ उठा-उठाकर हँस रहा है।

देवर्षि के शयनकक्ष की खिड़की से पीछे की ऊँची पहाड़ी दिखती है—बर्फ़ से ढँकी हुई—ऊपर से नीचे तक बर्फ़ ही बर्फ़। जैसे केदारनाथ मन्दिर के पीछे के पहाड़ों की बर्फ़। न जाने कितने बच्चे अपने स्नो जैकिट, पैण्ट, शूज़, ग्लव्ज़, कैप से लैस होकर पहाड़ी के ऊपर से नीचे फिसलने के लिये जा रहे हैं। आज अधिकांश घरों में कारें खड़ी हैं। इक्के-दुक्के लोग ही काम पर गये हैं। सड़क पर जमी हुई बर्फ़ के ऊपर से कारें निकलने से ऐसी रेखायें बन गई हैं, जैसे कीचड़ से भरे रास्ते पर बैलगाड़ी जाने से बन जाती हैं। चारों ओर स्त्री-पुरुष-बच्चे दिखाई दे रहे हैं। परस्पर हँस रहे हैं, बोल रहे हैं, खेल रहे हैं। इतने दिनों में पहली बार मैं देख रही हूँ कि इस कॉलोनी की मरघट सी शान्ति को भंग करके जीवन ज्योति जली है। 

दिन के बारह बजने वाले है। दिन में स्नोफ़ाल तो नहीं हुआ, हाँ कुछ देर के लिये थोड़ी सी वर्षा शुरू हो गई है। वर्षा की बूँदें गिरने से पिघलकर ज़मीन पर पड़ी बर्फ़ में बीच-बीच में छोटे-छोटे छेद हो गये हैं। क्यारियों के बीच पौधों की बर्फ़ ऊपर से पिघल गई है किन्तु नीचे वैसी ही जमी है और ऊपर की बर्फ़ पिघल कर गिरने से वहाँ पर कुछ ऊँची-नीची हो गई है—एकदम से देखने पर ऐसा लगता है कि वाशिंग मशीन का साबुन भरा झागदार पानी क्यारियों में भर गया है। पेड़ों पर और लॉन पर बर्फ़ पिघलने के बावजूद अभी भी बहुत बर्फ़ है। तेज़ हवा चलने लगी है। हवा के झोंको के साथ कभी-कभी पेड़ों के ऊपर जमे बर्फ़ के छोटे-छोटे गोले उड़कर चले आते हैं, जिन्हें पकड़ने को मन मचल उठता है और बचपन में रूई के उड़ते गोलों के पीछे दौड़ना याद आ जाता है, जिन्हें कोई ’राम का बुडढा’ कहता था तो कोई ‘बुढ़िया का काता’। आज देवांश को बुखार है। अभी उसके पास बर्फ़ में खेलने के जैकिट, पैन्ट, बूट, ग्लव्ज़, कैप, और खिलौने नहीं हैं फिर भी और बच्चों को देखकर वह भी लालायित है। देवर्षि ने उसे बाहर ले जाकर थोड़ी देर बर्फ़ के साथ खेलते हुए फोटो खींच दी है।

शाम के साढ़े पाँच बज गये हैं। सारा दिन बच्चों की क्रीड़ायें और प्रकृति का हिमाच्छादित सौन्दर्य देखने मे व्यतीत हो गया। अब फिर कुहासा सा छा गया है। हल्की-हल्की वर्षा हेाने लगी है और साथ ही पेड़ों पर जमी बर्फ़ के टुकड़े नीचे गिरने लगे हैं। मैं ध्यान से देखती हूँ—अरे! वर्षा नहीं हो रही है। प्रारम्भ में कुछ मिनट वर्षा हुई थी परन्तु उसके बाद बजरी जैसे ओले गिरने लगे थे। अरे वाह! यह तो फिर से बर्फ़ गिरने लगी है। मैं अनामिका और देवांश को आवाज़ देकर बुलाती हूँ। अनामिका ने देवर्षि को फोन किया तेा ज्ञात हुआ कि उसके ऑफ़िस की तरफ़ स्नोफ़ाल नहीं हो रहा है। वह शीघ्रता से घर के लिये चल देता है। अभी अंधकार नहीं हुआ है अतः इस समय स्नोफ़ाल देखने का आनन्द कुछ और ही है। बजरी के बाद धीरे-धीरे रूई के छोटे-छोटे फाहे से गिरने लगे। क्रमशः उनकी संख्या व आकार में वृद्धि होने लगी। थोड़ी देर में ही ऊपर आकाश से नीचे धरती तक आते ये रूई के जैसे फाहे नाचते, थिरकते, फुदकते, उछलते, कूदते, मचलते, तैरते से नीचे आते जान पड़ते थे। धीरे-धीरे उनकी गति में भी तीव्रता आती जा रही थी। देवर्षि के आने के समय ख़ूब तेज़ी से बर्फ़ गिर रही थी। थोड़ी देर में हिमपात बन्द हो जाने पर देवांश का मन रखने के लिये देवर्षि भी घर के सामने लॉन में स्नोमैन बनाने गया है। देवांश मोटी वाली जैकिट पहनकर, कैप लगाकर बाहर गया है। उसके पास एक प्लास्टिक की कुदाल है और छोटी बाल्टी है जिससे वह बर्फ़ इकट्ठी करके लाता है। देवर्षि बर्फ़ के गोले बनाकर स्नोमैन बना रहा है। अनामिका ने दो आलू बुखारे दिये हैं आँखें बनाने के लिये। बर्फ़ की मोटी सी नाक बना दी गई है। एक लाल ऊन का टुकड़ा गले में रिबन की तरह बाँधकर स्नोमैन के सिर पर देवांश की छोटी हरी प्लास्टिक की बाल्टी हैट की तरह लगा दी गई है। देवांश स्नोमैन के साथ हाथ में बर्फ़ की गेंद पकड़कर फोटो खिंचवाकर बहुत प्रसन्न है। एक फोटो बर्फ़ के साथ अदिति की भी खींची गई है। इस समय रात्रि हो गई है। बर्फ़ ही बर्फ़ है चारों ओर और घिर रहा है फिर वही भयावह सन्नाटा . . . ! 

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