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चोरनी या कोई आत्मा

“नीरजा जी! क्या मैं आपको अपनी अन्य विलक्षण अनुभूतियाँ सुनाऊँ, आप हँसेंगी तो नहीं” -  श्रीमती सरला द्विवेदी जो हास्य व्यंग्य रचनाओं की उत्कृष्ट एवं आशु कवयित्री हैं, ने मुझसे प्रश्न किया तो मैं प्रसन्नता से खिल उठी। अपनी अगली पुस्तक ’अशरीरी संसार भाग २‘  के लिये मुझे रचना मिल रही थी तो मुझे क्या एतराज़ हो सकता था। सरला जी ने मुझे आत्मा से साक्षात्कार का एक रोचक संस्मरण सुनाया।

 “बात काफी पहले की है”,  स्मरण करते हुए सरला द्विवेदी बोलीं- “9 सितम्बर सन् 52 की। मैं छोटी थी पर इतनी छोटी भी नहीं थी, लगभग ग्यारह वर्ष की थी। मेरा घर हवेली कहा जाता था। संयुक्त परिवार था- पिताजी, चाचा, ताऊ सभी के परिवार साथ रहते थे। मुझे बचपन से पढ़ने का बहुत शौक था और मैं देर रात तक  ऊपर के कमरे में पढ़ा करती थी। रात हो चुकी थी, घर के सब लोग सोने जा चुके थे। वातावरण में अजब सन्नाटा था जिसे मेंढक और झींगुर की आवाजें भंग कर रही थीं। आकाश में बादल घिरे हुए थे, हल्की बूँदाबाँदी हो चुकी थी। गर्मी एवं उमस के बावजूद घर के सब लोग अपने कमरों में सोये हुए थे। आँगन में एक लालटेन जलाकर अरगनी पर टाँग दी गई थी। मैं पढ़ते पढ़ते थक गई थी, आँखें दुखने लगीं थीं और कुछ प्यास भी लगी थी। पानी पीने को उठी तो नीचे आँगन में दृष्टि चली गई जिसे देख कर तो मैं सन्न रह गई। लगभग चालीस वर्ष की एक स्त्री कमर से बड़ा सा गुच्छा निकालकर उसमें से चाभी खेाज रही थी। वह काली, पीली कली वाला लाल लहँगा एवं लाल कुर्ता पहने थी और काले किनारे की पीली ओढ़नी ओढ़े थी जैसा कि पहले देहात मे स्त्रियाँ पहना करती थीं। मैंने उस स्त्री को ध्यान से देखा- वह अपरिचित थी अतः मुझे लगा कि कोई चोरनी घर में घुस आई है। मैं शीघ्रता से खिड़की के सामने से हट गई कि कहीं वह मुझे देख कर भाग न जाये और धीमे से, दुबकते हुए, दबे पाँव माँ के कमरे में पहुँची। ज़ोर ज़ोर से माँ को हिलाते हुए फुसफुसा कर मैंने कहा- “माँ, माँ, नीचे चोरनी घुस आई है।“  माँ उठने का उपक्रम कर रही थी कि मैं बोली- ’माँ जल्दी करो। चोरनी चाभी का गुच्छा लिये है और बकस खोलने का जतन कर रही है।“ इतना सुनते ही माँ चुपचाप लेट गईं और बोलीं- “चुपचाप जाकर सो जाओ। चोरनी नहीं घर की ही कोई स्त्री होगी।” मुझे असमंजस में देखकर माँ बोलीं- ”तुम्हें धोखा हो गया होगा, जाओ सो जाओ।” मुझे माँ की बात कुछ समझ नहीं आई। अन्यमनस्क सी मैं पुनः खिड़की के सामने जाकर खड़ी हो गई। अब देखा तो वहाँ कोई भी नहीं था। मुझे आश्चर्य तो हुआ पर मैं उस समय कुछ समझी नहीं।

अगले दिन दोपहर को मैंने सुना कि माँ चाची से बात कर रही थीं- ”कल रात को चाची फिर दिखाई दी थीं। बिट्टी ने देखा था कि चाभी का गुच्छा लेकर चाभी खोज रही थीं।”

कुछ बड़े होने पर मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे पिताजी की चाची की सौर में मृत्यु हो गई थी। मरने के उपरान्त कभी कभी वह अपने कमरे के दरवाजे पर बैठी दिखाई दे जाती थीं। कभी कभी वह चाभी का गुच्छा लेकर चाभी खोजती दिखाई देती थीं। बचपन में देखी उनकी छवि, एक एक भाव भंगिमा, कपड़ों की रंगत - सब कुछ याद है मुझे। उन्हें देखकर मुझे किसी प्रकार यह नहीं लगा कि वह जीवित स्त्री नहीं बल्कि आत्मा हैं। उनकी मृत्यु मेरे जन्म के पूर्व ही हो चुकी थी। वह कपड़े भी उसी प्रकार के पहना करती थीं जैसे मैंने देखे थे। चाची की आत्मा को घर में विचरण करते और लोगों ने भी देखा था। इतने वर्ष बीत चुके हैं पर आज भी उनकी छवि मेरे नेत्रों के सामने स्पष्ट है” - कह कर सरला जी ने गहरी साँस ली। उनके नेत्रों के भाव यह प्रकट कर रहे थे कि जो उन्होंने कहा है उसमें लेशमात्र भी झूठ नहीं है।

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