दामन
काव्य साहित्य | कविता निलेश जोशी 'विनायका'1 Sep 2020
भीगा है दामन मेरा टपकते अँसुओं की बूँदों से
कब तक पहरा बिठाओगे तुम मुझ पर।
बंदिशों के साए में घुट घुट जी रही हूँ मैं
कब तक अपना हक़ जताओगे तुम मुझ पर।
मेरा दामन पाक है इसमें कोई दाग़ नहीं
मुझे बढ़ना है आगे कब तक रोक पाओगे।
मैं तो एक परिंदा हूँ इस आबाद जहां का
हज़ार बंदिशों से भी क्या मुझे रोक पाओगे।
दामन में मेरे खुशियाँ हों या हो कोई दुख
तुम्हें जिस्म की ख़्वाहिश मेरी परवाह नहीं।
ख़्वाब कुछ सीने में दफ़न कर दिए मैंने
पूरे हुए अरमान कुछ तो कोई गुनाह नहीं।
अब भी दामन में काँटे हैं जो चुभते हैं मुझे
तेरी दुनिया में आकर भर लिया है आँखों में पानी।
सज़ा बन जाती है बंदीशें लोक लाज के डर की
मिट गए नक़्श क़दमों के अजीब है ये कहानी।
तोड़ दो आईने अपने चलो अनजान बन जाएँ
मिले थे शायद कभी हम तुम इस ज़िंदगानी में।
भर दो दामन मेरा ख़ुशियों से कि ख़ुश हो जाएँ
मोहब्बत में वफ़ा का यक़ीं हो तेरी मेहरबानी में।
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