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कैसी आफ़त आई है

ना दारू है, ना दवाई है
देखो, ये आफ़त कैसी आई है
मानव क़ैद है, अपने ही घर में
ना पुलिस, ना जेल, ना कोई कार्रवाई है।
 
बाज़ार बंद, मकान बंद
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बंद
शादी, मंगनी, मंगल काम
ख़ामोश हुई शहनाई है।
 
पीड़ित बहुत जन मन अब तो
मन मार रहे थे अब तक तो
द्रवित हृदय– प्रस्तर भी अब तो
जब देखी जग से विदाई है।
 
क्या होगा आगे? ज्ञात नहीं
हँसने रोने की बात नहीं
संकट धरती पर आया है
हमें करनी इससे लड़ाई है।
 
मंज़र ख़तरों का फैल रहा
अतुलित पीड़ा मनु झेल रहा
नव अंकुर फिर से आएंगे
क्यों जीवन बेल कुम्हलाई है?

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टिप्पणियाँ

राजनन्दन सिंह 2021/05/07 01:59 PM

समसामयिक एवं सुंदर कविता।

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