धुरी
काव्य साहित्य | कविता दीप्ति शर्मा9 May 2014
कब तक बदहवास
चलती रहोगी
एक ही धुरी से
एक ही रेखा पर
धागे भी टूट जाते हैं
सीधा खींचते रहने पर
अँधेरा नहीं है
तो पैर नहीं डगमगायेंगे
पर ये धुरी बदल रही है
सीधी ना होकर गोल हो गयी है
तुम्हारी चाल के अनुरूप
उसी दिशा में प्रत्यक्ष
तुम्हारी धुरी पर
बस मैं ही खड़ा हूँ।
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