अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

गोश्त का टुकड़ा

जगदीश
ताशकंद (ज़ुबेकिस्तान)
उनका जन्म 1924 में ज़ुबेकिस्तान में हुआ, बचपन वहीं बीता। पढ़ाई यू.के. में सम्पन्न की और वहीं कई वर्षों तक यूनिवर्सिटी में चान्सेलर के तौर स्थापित रहे। आपने वतन के, अपने इलाक़े में हो रही नाइंसाफ़ियों को उन्होंने उर्दू भाषा में ज़बान दी। अनेक संस्थाओं से सम्मानित अपनी अभिव्यक्त कहानी क़िस्सों को 3 संग्रहों में समाहित कर गए। हर कहानी में जन –मानस की कथा व्यथा दर्ज है। यही उनकी असली पहचान है।


मूल लेखक : जगदीश

अनुवादक : देवी नागरानी

छः बजते ही कारख़ाने का दरवाज़ा खुला, मज़दूर सैकड़ों की संख्या में कारख़ाने से निकलने लगे- लम्बे, ठिगने, काले, गोरे, बूढ़े-जवान सब तरह के मज़दूर थे। हर एक आदमी दूसरे से बिलकुल अलग लेकिन उनमें एक समानता थी, सबकी आँखें नींद से झपकती हुईं, थकी हुईं। वे जल्दी-जल्दी मुख्य दरवाज़े से उसी तरह निकल रहे थे, जिस तरह क़ैदी छुट्टी मिलने पर हवाखोरी के लिये जा रहे हों, या खेत-खलिहानों से सुबह के वक़्त उन भेड़-बकरियों का समूह जा रहा हो जो ज़मींदार के खेत में घूमने के जुर्म में क़ैद कर दी गई थीं। शंकर ने नीले आसमान पर नज़र डाली।

आसमान पर बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े थे- सफ़ेद, स्याह, नीले, एक दूसरे में घुले-मिले होते हुए, मासूम बच्चे की तरह मुस्कराते हुए। सफ़ेद बादल के एक टुकड़े ने शंकर के ख़यालात में उत्पात पैदा कर दिया। दरिया का पानी जो समंदर में गिर कर शांत हो चुका था, एक कंकर के गिरने से ज़ोर-ज़ोर से हरक़त करने लगा। सतह का पानी जैसे रेला बनकर विस्तार पाता रहा और धीरे-धीरे छोटी पंगडडियों से अपना रास्ता बना रहा था पर इन सभी रेलों में एक सूरत का अक्स था और वह था शंकर की बीवी का अक्स।

शंकर के शरीर में एक झुरझुरी सी लहराई। उसे एक शीतल तरंग सी जैसे छू गई। उसे अपने बदन पर पड़ा हुआ खद्दर का कुर्ता भी उस ठंड के बचाव के लिये कम लगा। उसकी टाँगों की मज़बूती जैसे ढीली पड़ गई। वह एक अनजान डर से थरथरा उठा। उसकी बीवी का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूमने लगा। अनजाने में शंकर ने उसके बारे में क्या क्या सोचा- ‘वह जाने किन-किन तकलीफ़ों से गुज़र रही होगी? क्या वह उसे देख सकेगा?’ वह चाहता था कि किसी तरह उड़कर अपनी बीवी के पास पहुँच जाए और उसे वे तमाम बातें सुनाए जो इस काम के दौरान वह अपने सीने में जमा करता रहा था। उसे अपने सीने पर एक बोझ सा मालूम हुआ और यह यक़ीन भी था कि अपनी बीवी से उसे हमदर्दी मिलेगी। आज वह जैसे हमदर्दी का मोहताज था। वह तेज़-तेज़ चलने लगा। 

शंकर हसू बिहार के एक छोटे से क़स्बे सुलेमानपुर के एक जुलाहे अभयराम का लड़का था। उसका बाप किसी हद तक पढ़ा-लिखा होने के कारण एक जाना-माना जुलाहा था। गाँव के बाक़ी जुलाहे उसके माध्यम से शहर से सूत ख़रीद लेते और बुना हुआ कपड़ा बेचा करते। सन् 1930 में सिविल नाकाबंदी के दिनों में जब अँग्रेज़ी माल का बाइकॉट किया गया और ग़ैर मुल्कों का कपड़ा होलियों की सूरत में जला तो शंकर के पिता का कारोबार ख़ूब चमक उठा। अभय राम ने उन्हीं दिनों में फ़ैसला किया कि वह शंकर को अच्छी और ऊँची शिक्षा दिलवाएगा और विख्यात ओहदे पर तैनात कराएगा। हालाँकि शंकर को स्कूल में बिठा दिया गया, पर पिता की बेवक़्त मौत के बाद रिश्तेदारों के रूखे और ठंडे व्यवहार ने शंकर और उसके परिवार को मंज़िल के उस कगार पर लाकर खड़ा किया जहाँ इन्सान ख़ुद को तन्हा और लाचार महसूस करता हो। वह गर्दिश के उस दौर में, अपनी ज़िंदगी के मालिक - अपने ख़ुदा से भी जैसे ऊब गया। उसे यूँ महसूस होता कि उसके मुल्क के पूँजीपति अपनी सियासत को एक ऐसे शिकंजे में जकड़े हुए हैं जिससे रिहाई पाना नामुमकिन है। अपनी इस हुक़ूमत से मुश्किलों का हल पाना प्रजा के लिये एक घुटन का दायरा बन गया, और हुक़ूमत प्रजा की कमज़ोरियों को उनके हाथों को हासिल करने की जद्दोजेहद को उनकी मुश्किलों की वज़ह बताती रही। जहाँ प्रजा हुक़ूमत से, उनकी रियायतों से प्रताड़ित रहती थी, हुक़ूमत पर उसका कोई असर नहीं होता। हुक़ूमत को कोई ख़ौफ़ भी नहीं छू पाता, शायद इसलिये कि वह हुक़ूमत करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझती है।
अपने माहौल से तंग इंसान के दिल में अपनी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ एक विद्रोही भावना पनपती है। वहीं उसके दिल में कुछ करने का अहसास दृढ़ हो जाता है, लेकिन अपने अनचाहे पेशे पर नज़र डालकर उसे गुमान होता है कि वह एक अकेला चना पहाड़ का क्या बिगाड़ लेगा और उसकी बेबसी की हालत में वह हर उस ताक़त से मिल जाता है जो हुक़ूमत के ख़िलाफ़ है।
इन हालातों में शंकर का पढ़ाई क़ायम रखना नामुमकिन सा हो गया। उसे आठवीं कक्षा से ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उस वक़्त पढ़ा-लिखा शंकर अनपढ़ शंकर से भी बदतर हालत में था। अब पढ़ाई के बंद होने के कारण उसे अपना पैतृक पेशा अख़्तयार करने में कोई दिक़्क़त महसूस न होती। लेकिन आठ साल की शिक्षा ने उसे उस पेशे को महत्वहीन समझना सिखा दिया था। पढ़ाई के दौरान वह अपने भविष्य के हसीन और शानदार ख़्वाब देखता रहा था। लेकिन वक़्त ने उसे ख़्वाब से झंझोड़ा और वह अपनी क़िस्मत आज़माने पर डट गया।

भागलपुर सुलेमानपुर से तीस मील दूर था। शंकर ने भागलपुर के किसी मिल में नौकरी करने का इरादा किया। तनख़्वाह के तौर पर उसे हर माह एक निर्धारित की हुई रक़म के मिलने का विचार उसे मिल की तरफ खींच रहा था। लेकिन बीवी की मुहब्बत उसे शहर से परे धकेल रही थी। अब तक वह अपनी बीवी से बिल्कुल भी जुदा न हुआ था। इसलिये जुदाई का ख़्याल उसे हतोत्साहित करता। एक लंबी दिमाग़ी कशमकश के बाद शंकर ने फ़ैसला कर लिया। भूख मुहब्बत पर हावी हो गई।

मुस्कराते हुए बादल को देखकर उसे अपनी बीवी याद हो आई - अल्हड़, जवान। अपनी रवानगी का मंज़र याद करके उसकी आँखों में आँसू छलक आए। उसकी माँ ने उसे कितने प्यार से तिलक लगाया था। उसकी बीवी किवाड़ की ओट में खड़ी उसकी तरफ़ हसरत भरी निगाहों से देखती रह गई थी, जैसे वह किसी दूर देश में जा रहा हो, जहाँ से वापस आना मुश्किल नहीं नामुमकिन था। चलते वक़्त उसकी माँ ने उसे पिता तुल्य अंदाज़ से चूमा था और रो कर अपनी बेबसी का वास्ता दिया था। शंकर ने भी हर रोज़ ख़त लिखने का वादा किया था और अपनी माँ से बार बार कहा था कि ख़त चन्देश्वरी चाचा से पढ़वा लिया करे। लेकिन आज शंकर को घर से विदा हुए सात रोज़ गुज़र गए थे। इस दौरान वह कोई ख़त न लिख सका था। वह ख़ुद को मुजरिम महसूस कर रहा था। लेकिन फिर उस का दिल सफ़ाई पेश करने लगा- उसे इतनी फ़ुरसत ही कहाँ मिली थी कि वह ख़त लिख सके! छः रोज़ तो सुबह से शाम तक वह अलग-अलग कारखानों में घूमता रहा था कि उसे कोई काम मिल जाए। पूँजीपतियों के सामने रोता रहा, गिड़गिड़ाता रहा, उसने अपनी ग़रीबी का वास्ता दिया, अपनी बूढ़ी माँ का हाल बताया, लेकिन सब बेकार। कल ही एक पूँजीपति ने न जाने क्यों उस को एक नौकरी दी- तीस रुपये माहवार, जिस से उसने तीन ज़िंदगानियों का पेट पालना था- ख़ुद, माँ, बीवी, तीनों का।

आज शंकर ने फ़ैसला कर लिया कि वह अपनी बीवी को ख़त ज़रूर लिखेगा।

सराय में पहुँचकर वह इतना थका माँदा था कि दम लेने के लिये वह दहलीज़ में पड़ी हुई चटाई पर बैठ गया.... उसने सुना था कि नहाने से पहले पसीना सुखा लेना चाहिए। लेकिन अभी बैठा ही था कि जम्हाई आई और तबीयत लेटने के लिये मचल गई। वह चटाई पर लेट गया। उसने अकड़े हुए अंगों को ढीला छोड़ दिया और कुछ सुकून महसूस किया। उसे ऐसे लगा जैसे उसकी थकान आहिस्ता-आहिस्ता चटाई पर गिर रही है। उस पर एक उनींदापन छाने लगा। ऐसे में उसकी आँख लग गई.... उसकी आँख उस वक़्त खुली जब शाम को सराय का चौकीदार मालिक के आदेश पर सफ़ाई कराने में जुट गया। भंगिन की लड़की को सामने खड़ा देख कर न जाने क्यों उसे फिर अपनी बीवी याद आ गई। उसने चौकीदार से समय पूछा लेकिन चौकीदार भी लापरवाही से कुछ इस तरह ख़ामोश रहा जैसे वह ख़ुद पूँजीपति हो।

ढलती हुई शाम रात के आने का पता दे रही थी। शंकर जल्दी से उठा और बाहर ढाबे पर खाना खाकर मिल की तरफ़ हो लिया।

पाँच रोज़ और यूँ ही गुज़र गए। जब शंकर सुबह को कारख़ाने से लौटता उसे अपनी आँखें नींद के मारे बोझल सूजी हुई महसूस होतीं। तमाम रात खड़ा रहने के कारण उसकी टाँगें सुन्न हो जातीं। उसे गुमान होता कि वह उस के बदन का हिस्सा नहीं हैं। चलते वक़्त उसे महसूस होता जैसे उस के बदन को चीरा जा रहा है। उस की रग-रग दर्द करती, जोड़ जोड़ टूट कर गिर जाना चाहता, हर रोज़ वह यही फ़ैसला करता कि अगली शाम वह फिर कारख़ाने नहीं जाएगा, लेकिन शाम से पहले ही बेकारी का ख़्याल भूत बनकर उस के सामने आ खड़ा होता और वह फिर कारख़ाने चला जाता।

इन दिनों में उसे अपनी माँ, बीवी और घर का ख़याल एक बार भी नहीं आया। आता भी कैसे? वह कारख़ाने से लौटता और बिना नहाये या खाना खाए सो रहता। शाम को उठता, नहा कर खाना खाता और कारख़ाने चला जाता। कारख़ाने के सिवा उसे किसी चीज़ के बारे में सोचने की फ़ुरसत ही न थी। कारख़ाने के बड़े-बड़े पहिये हमेशा उस के दिमाग पर छाए रहते, बड़े-बड़े बुलंद पहिये, जो लगातार घूमते रहते थे, बेजान बिना सोचे समझे और उसी तरह थे कारख़ाने में काम करने वाले। हर शख़्स का काम स्पष्ट रूप से तय हुआ करता। उसके लिये सोचने की कोई गुंजाइश न थी। अपने बारे में सोचने पर उसका हक़ न था। उस का काम सिर्फ़ कील दबाना, धागा पिरोना, धागों के रंग बदलना था। उसी सिलसिले में शंकर कई बार सोचता- ‘ये काम कितने आसान हैं कोई मुश्किल नहीं, ताक़त का ख़र्च नहीं, दिमाग़ पर ज़ोर नहीं, लेकिन इसके बावजूद इतनी थकान क्यों?’

शनिवार का दिन था, शाम का वक़्त। शंकर आहिस्ता आहिस्ता कारख़ाने की तरफ़ जा रहा था, बिल्कुल इस तरह जिस तरह एक मरीज़ आप्रेशन टेबल की तरफ़ जा रहा हो। इत्तिफ़ाक से उसे अपना पुराना दोस्त बिहारी दिखाई दिया। बिहारी और शंकर एक ही गाँव के रहने वाले थे और एक दूसरे को बचपन से जानते थे। लेकिन शंकर के पिता के देहान्त के कुछ माह पहले बिहारी के पिता अपने परिवार सहित किसी दूसरे गाँव में जाकर बस गए थे। उसके बाद बिहारी के साथ कौन-कौन से हादसे पेश आए, इन का शंकर को कोई ज्ञान न था। शंकर सिर्फ़ इतना महसूस कर सकता था कि बिहारी को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। वह पहले से कहीं दुबला हो गया था और अब उस का चेहरा रोटी की तरह सपाट और सफ़ेद था।

बिहारी शंकर को देख कर फूट फूट कर रोने लगा। शंकर को हैरानी हुई। उसे कभी यक़ीन न था कि बिहारी उसे मिलकर मुहब्बत के मारे यूँ रोने लगेगा। शंकर बिहारी की तरफ़ देखने लगा... पर बिहारी के आँसू थम न पाए। अब शंकर की हैरानी बढ़ गई। उस के दिल में बिहारी के लिये हमदर्दी का जज़्बा जोश भरने लगा। शंकर ने बिहारी से रोने के कारण पूछा, लेकिन वह दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा।

"बापू का ख़त आया है, वह मर गई!" 

"हैं.... वह मर गई।" शंकर ने बिहारी के चेहरे की तरफ़ तकते हुए दोहराया। शंकर पर जैसे वज्र गिरा और वह कितनी ही देर बिहारी की तरफ़ उसी तरह देखता रहा। उसकी आँखों के सामने अपना घर घूम रहा था। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी माँ दहलीज़ पर बैठी हुई शोक मना रही हैं। गाँव की औरतें सब उसे दिलासा दे रही हैं, और कह रही हैं-

"चंदा तेरा बेटा जीता रहे, बहुएँ और बहुत...."

ये शब्द शंकर के कानों में ज़ोर-ज़ोर से गूँज रहे थे जैसे कोई उसके कानों में पिघला हुआ शीशा उंडेल रहा हो।

बिहारी कह रहा था- "बापू ने लिखा है, गर्भावस्था में कोई गड़बड़ी हो गई, और वह मर गई।" गर्भ का नाम सुनकर शंकर पर क्या गुज़री, यह शंकर ही जानता था। आज से बारह रोज़ पहले शंकर ने भी अपनी बीवी को दर्द की हालत में छोड़ा था। हक़ीक़त में वह कुछ समय तक अपना भागलपुर आना भी उसी वज़ह से स्थगित करता रहा था। लेकिन बढ़ती हुई महँगाई ने उसे मजबूर कर दिया था कि वह अपनी बीवी को उस हालत में छोड़ कर चला आए।

बिहारी की बीवी की मौत की ख़बर ने उसे चेतावनी दी। वह एक परिंदे की तरह फड़फड़ाया, जो आज़ाद होने के लिये संघर्ष कर रहा हो लेकिन नौकरी में हसीन क़ैदखाने ने कुछ समय के लिये संघर्ष के जाल में फाँस रखा था। उस ने इरादा किया कि वह अगले रोज़ सुलेमानपुर जाएगा। 

पहली बार शंकर तेरह दिन के बाद सुलेमानपुर वापस आया। वहाँ पहुँचकर शंकर ने देखा कि वह आज एक हसीन बच्चे का बाप था।

इतवार की शाम को शंकर फिर हर रोज़ ख़त लिखने और हर इतवार सुलेमानपुर आने का वादा करके वापस भागलपुर लौट आया।

ख़त लिखने का वादा तो वह कमी पूरा कर न सका, लेकिन शंकर हर इतवार को सुलेमानपुर जाता और सोमवार की सुबह लौट आता। छः दिन के लिये फिर घर से बेख़बर हो जाता। उसकी यह चर्या कुछ ऐसी हो गई कि वह ख़ुद को मारकर जैसे पूरी कर रहा था। सोमवार को घर से लौटते उसे कोई दर्द महसूस न होता। छः रोज़ काम करते हुए उसे कभी इतवार का ख़्याल न आता और इतवार को घर जाते हुए उसे कोई ख़ुशी न होती। इतवार को सुलेमानपुर जाना जैसे उसके टाइम-टेबल में शामिल हो गया था।

इधर बढ़ती हुई महँगाई चैन ही नहीं लेने देती थी। भागलपुर जैसे शहर में एक वक़्त का खाना खाकर भी पंद्रह रुपये माहवार से कम में गुज़ारा करना नामुमकिन था और बाक़ी पंद्रह रुपये में तीन-तीन जानों का गुज़ारा होना मुश्किल सा था। हर महीने शंकर की माँ गाँव के साहूकार से पाँच-सात रुपये कर्ज़ लेती। उसे इस बात की ख़बर ही न थी कि यह कर्ज़ कब अदा हो सकेगा, और हो भी सकेगा या नहीं।

अभी उसके पिता के देहान्त को एक साल ही गुज़रा था कि शंकर पचास रुपये का कर्ज़दार हो गया- पचास रुपये जो वह और उस का परिवार एक महीना लगातार दो वक़्त फ़ाक़े करके भी अदा नहीं कर सकते थे।

दरिद्रता से तंग आकर शंकर एक दिन अपने मिस्तरी के पास पहुँचा और तनख़्वाह बढ़ाने की दरख़्वास्त की। मिस्तरी भी जैसे मशीन का एक पुर्ज़ा था जिसका इंजन पूँजीपति था। उससे किसी तरह के रहम की उम्मीद बेकार थी। दरअसल वह कर भी क्या सकता था? तनख़्वाह बढ़ाना उसके हाथ में न था। तनख़्वाह काटने का हक़ मिस्तरी को सौंप रखा था और तनख़्वाह बढ़ाना सिर्फ़ पूँजीपति का हक़ था। मिस्तरी ने ग़ुरबत का फ़क़त एक ही इलाज बताया कि वह इतवार को भी ओवर टाइम करने लग जाय.... इस तरह आठ या दस रुपये माहवार कमाए जा सकते हैं...." मिस्तरी ने कहा।

शंकर यह सुनकर ख़ामोश रहा। एक बार वही दुश्वारी सामने थी, लेकिन इस बार मुहब्बत का मुक़ाबला मुफ़लिसी से था,  भूख से नहीं, लेकिन मुहब्बत के चेहरे का रंग भी उतर चुका था। शंकर मुहब्बत और मुफ़लिसी के बीच का फ़ासला पाटने के प्रयास में जुटा रहा।

अब वह महीने में तीस दिन कारख़ाने जाता। सुबह की नींद से छलकती हुई आँखें लिये हुए सराय को लौटता। शाम तक सोता रहता और उठते ही फिर कारख़ाने चला जाता। उसकी रूह पर रंग की परतें चढ़ती रहीं, पर उनमें फीक़ापन था, वह निर्जीव हो चुका था, उसे अपने घर से कोई वास्ता न था। उस का फ़र्ज़ महीने आख़िर में पच्चीस रुपये मनीऑर्डर कटाकर भेजना था और बस। अब माँ की ममता, बीवी के आँसू और बच्चे का प्यार उस के दिल की हरक़त को तेज़ नहीं कर सकते थे। अब वह कटे हुए जानवर के गोश्त के एक टुकड़े की तरह था जिस पर स्पर्श का कोई असर नहीं होता।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अचानक....
|

मूल लेखिका : शुभा सरमा अनुवादक : विकास…

अनाम-तस्वीर
|

मूल कहानी: गोपा नायक हिन्दी अनुवाद : दिनेश…

एक बिलकुल अलग कहानी – 1
|

 मूल कहानी (अँग्रेज़ी): डॉ. नंदिनी साहू …

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

कहानी

अनूदित कहानी

पुस्तक समीक्षा

बात-चीत

ग़ज़ल

अनूदित कविता

पुस्तक चर्चा

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. पंद्रह सिंधी कहानियाँ
  2. एक थका हुआ सच
  3. प्रांत-प्रांत की कहानियाँ
  4. चराग़े-दिल

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. एक थका हुआ सच