अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आखर कथा-जीवन का सार 

आखर-कथा का सार, इस सृष्टि का आधार
जीवन की कही अनकही के बीच की गाथा 
शब्द निशब्द के सार को, पढ़ना बारंबार 
                                       ( देवी नागरानी) 

किताब ए दिल का कोई भी पन्ना, सादा नहीं होता
निगाह उस को भी पढ़ लेती हैं,  जो लिखा नहीं होता . . . 

सच है, यह एक प्राकृतिक क्रिया है इस मन की, इस मस्तिष्क की, जो अपने सोच के दायरे को विस्तार देने की प्रतिक्रिया में अपने आप को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाने में प्रयासरत रहती है। 

किताबें, रिसाले न अख़बार  पढ़ना, 
मगर  दिल को  हर रात इक बार पढ़ना 

अपने मन की कही–अनकही अभिव्यक्ति के बीच की बात जब कविता का स्वरूप धारण कर लेती है, उसे पढ़ते हुए पाठक अपने अपने नज़रिए से, अपनी अपनी समझ अनुसार शब्दार्थ को भावार्थ से जोड़कर अपने जीवन में उतारता है। दुष्यंत जी के स्वाच भावों से परिचित कराती हुई शब्दों में यह काव्यानूभूति हर लेखक के लिए प्रेरणा का स्रोत है:

“मैं कवि हूँ मैं ही कविता हूँ
मैं आप स्वयं को गाता हूँ। 
मुझको सुनना हो सावधान
मैं अंतर का उद्गाता हूँ।”

ऐसे अंतर मन के भावनात्मक अनुभूतियाँ लेखक की क़लम से प्रवाहमान होती है। लेखन कला एक ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते हैं, परिश्रम के खाद्य का जुगाड़ करते हैं और सोच से सींचते हैं, तब कहीं जाकर इसमें शब्दों के अनेकों रंग-बिरंगे सुमन निखरते और महकते हैं। ऐसे ही इन्द्रधनुषी रंगों का पैरहन ओढ़कर हमारे सिन्धी समाज के दस्तावेजी लेखक नंद ज़वेरी जी की कलकल बहती काव्यधारा “शब्द-कथा” सामने आई है, जो निशब्दता को बयान करते हुए ख़ुद तो बाहर व् भीतर से जोड़ने में पहल करती है। ये भावनाएँ उनके चिंतन-मनन के मंथन का निचोड़ हैं और कविताएँ उनके भाषाई साहित्य सफ़र की ज़ामिन भी हैं जो आग़ाज़ से आख़िरी पन्ने तक की सूक्षमता को बरक़रार रखते हुए अपनी काव्यधारा ‘आखरी पन्ना’ में लिखते हैं: 

खुली मुठी पर नाचता है आस्मां
बंद मुठी से छूट जाता है सारा जहाँ
 
शब्दों की बुनाई से छन चुका है सच
यही अलिखा मैंने पढ़ा है 
पाक किताब के आख़िरी पन्ने पे . . . . . .! 

यह बानगी जीवन की सार्थकता और सच का दर्शन करा पाने में परिपूर्ण है। जैसे कविता उनके जीवन से जुड़ी हुई उपमा है। कवियों के सिरमौर महाकवि हरिशंकर आदेश “स्वतः सुखाय” के कवि हैं, जिन के लेखनी इसी भाव को सार्थक करते हुए कहती है: 

कविता ही मेरा जीवन है 
जीवन ही कविता है
मैं जीवन की परिभाषा हूँ। 

यह अलौकिक सौन्दर्य की प्रतिभा है जो कविता के रूप में जन्म लेकर अपने विकास की राहें खोजते हुए आगे बढ़ती है। ज़िन्दगी एक सुंदर कविता है, पर कविता ज़िन्दगी नहीं। मानवता की दहलीज़ पर दस्तक देते भावभीने शब्दों का समूह जब एक काव्य रूप में पाठक को पढ़ने के पश्चात सोचने पर मजबूर करे, तो सच मानिए वही सोच शायद रचना के वुजूद में आने का कारण और वही शब्दों को अर्थ बख्शने में परिपूर्ण भी है। नन्द ज़वेरी की बानगी भी इसी दिशा में अपने जीवन यात्रा की पथिक बनकर ख़ुद उस सच से जुड़ने की अभिलाषा में कह उठती है:

जो सदा से है सदा रहेगा
निर्गुण निशब्द का दरिया 
जिसे बार बार शब्दों के किनारे देते
मैं अपने आप को पाने का
जतन करता हूँ . . . 

‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहीं है पहुँचे कवि’ की कल्पना को साकार करने वाले अनोखे क़लमकार नंद ज़वेरी अपने निशब्द सोच को शब्दों में एक कलात्मक व् अर्थपूर्ण नज़रिए से “शब्द-कथा” के रूप में अनेक शब्दों कि निशब्दता को बयाँ करते हैं: 

कविता सदैव जीवन की कही, 
फिर भी अनकही की गाथा ही रही है . . . 

जिसमें सच के साथ जुड़ने की एक नहीं अनेक संभावनाओं का समूह है। जिस साहित्य में चिंतन हो, सौन्दर्य हो, सृजन की कलात्मक ऊर्जा हो, समाज में होने वाली सच्चाइयों का प्रकाश हो, और पढ़ते ही मन में कहीं गहरे उतरता जाये, तब वह लिखा हुआ सच खरा लगता है। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन है कि—नाद सौंदर्य से कविता की उम्र बढ़ती है। ऐसे शब्द और अर्थ को कविता कहा जाता है, जिसमें दोष न हो, गुण और अलंकार हो, कहीं कमी न हो। कुल मिलाकर किसी दिलकश जज़्बे या ख़्याल का दिलकश इज़हार ही “कविता” है। ऐसी कविता संवेदनशील हृदय की उपज होती है जिसका शृंगार करती है रसात्मकता एवं लयात्मकता। अनेक कवियों ने अपनी अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हुए अपने नज़रिए से कहा है कि “कविता वह नहीं जो बाहर आती है, बाहर आते हैं शब्द, कविता भीतर ही जी रही होती है।”
कविता अंदर से बाहर की ओर बहने वाला निर्झर झरना है जिसकी प्रमुखता और प्रखरता क़रीने से सजाए हुए शब्दों में नज़र आती है। मन के सागर में जब अहसास की लहरें हलचल मचाती हैं तब भावविभोर होकर कवि-मन अपने मनोभावों को टटोलते हुए, अपने वुजूद की तलाश में छटपटाता है, तब तक जब तक वह उस निशब्द अहसास को एक अर्थपूर्ण स्वरूप नहीं दे देता। 

कविता सच हो गई
कविता लिखते
न तुम थे, न मैं था
न कोई शब्द था 
केवल मेरा निर्गुण ‘मैं’ था
तभी तो कविता सच हुई है . . . 

शिल्प की दृष्टि से शब्दों से तराशे हुए इस आकार के निर्माता नन्द ज़वेरी जी किसी शिल्पकार से कम नहीं। उन्होंने अपनी निशब्द सोच को शब्दों में ढालकर उन्हें जीवंत बना दिया है। कथ्य की व्यापकता किसी कवि की कल्पना में साफ़ साफ़ नज़र आ रही है जो कहती है: 

“एक आसमान जिस्म के अंदर भी है
तुम बीच से हटों तो नज़ारा दिखाई दे।”

फ़िरोज़ा अल्ली रिज़वी जी ने भी उनके इसी संग्रह पर अपना मत रखते हुए शब्द के अर्थ में इज़ाफ़ा दर्शाते हुए लिखा है—एक शब्द सिर्फ़ एक शब्द हो सकता है। हर शब्द एक ध्वनि है जिसे एक अर्थ के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन इससे पहले कि यह अर्थ निकाला जाए, यह एक ध्वनि है। जब ध्वनि को एक अर्थ दिया जाता है, तो यह एक अक्षर बन जाता है और फिर अक्षर मिलकर एक शब्द बनाते हैं। कुछ ऐसे ही कवि नंद जवेरी लिखते हैं:

मौन से शब्द तक
और शब्द से लेकर मौन तक 
एक के लिए जो पहचानता है
नामहीन जीवन-धारा
मौन का द्वंद्व और शब्द
गैर-द्वैत में बदल जाएगा . . . 

नज़रिया एक है पर लफ़्जों में पिरोये हुए भाव-शब्दों में, भावनात्मक समानता होते हुए भी अभिव्यक्ति में अलग-अलग हैं। सिर्फ़ शब्दों की ध्वनियाँ व प्रतिध्वनियाँ आसपास हुंकारें भरती हैं, जिनकी गहराई सोच की खाइयों से होते हुए अपने वुजूद की गहराइयों में डूबकर, बहुत कुछ टटोलकर प्रस्तुत हो पाती है, जिसमें कथ्य और शिल्प दोनों साकार होते हों। निशब्द सोच शब्दों का सहारा लेकर बोलने लगे, चलने लगे, ऐसा ही एक शिल्प सौंदर्य भरा आकार एक अर्थपूर्ण स्वरूप धारण करते हुए एक कलाकार की कलात्मक अर्चना की तरह सामने आ जाता है। सच मानिये अपनी सोच के परों पर सवार होकर ज़वेरी जी का मन शब्दों के जाल बुनता है, उधेड़ता है और फिर बुनता है, कुछ यूँ कि वो छंद के दाइरे में छटपटाते हैं। सुना है कवि तब तक नहीं लिखता जब तक वह उस छटपटाहट से मुक्ति पाने के लिए मजबूर नहीं होता। और रचना को मुक्ति तब ही मिलती है जब वह कवि के हृदय की चौखट पार करके पाठक की चौखट पर आकर साँस लेती है। जिस भाषा के तेवरों में ताज़गी के साथ एक दिशा भी हो, जो कल्पना होते हुए भी सच का आभास दे, वह अर्थपूर्ण रचना बन जाती है। ऐसी ही एक संदेशात्मक दशा और दिशा को दर्शाते हुए संग्रह के आग़ाज़ी पन्नों में सिन्धी के हस्ताक्षर अदीब श्री लक्ष्मण कोमल भाटिया ने लिखा है—इस दौर की आवाज़ बीते हुए दौर का बुलावा है। वह उस आवाज़ की गूँज ही नहीं, पर उस आवाज़ और गूँज के गर्भ में समाई एक नई आवाज़ है। 

यहाँ मेरा मौन भी निशब्द हो जाता है . . . 

वह मौन जो शब्द का अर्थ बनकर मानव मन में ध्वनि की गूँज बन जाए, तब उस अनकहे अहसास की गहराइयों में वह सच पाने की इच्छा जागृत होती है। अपने इसी अनुभव को ‘जब जब कविता आती है’ में नन्द ज़वेरी जी की मनोस्थिति को टटोलिये: 

जब जब आस पास को समेटकर
कविता मेरे पास आती है
मैं उससे अक़्सर पूछता हूँ
क्या देने आई हो, और
क्या लेने आई हो
वह कहती है 
जो तेरे पास तेरा नहीं है
वह लेने आई हूँ . . . 
और
जो तेरा तेरे पास है
वही तुझे देने आई हूँ . . . 

शब्द कौशल कहे हुए अहसासों की तर्जुमानी करने में पहल करता है। काव्य के शिल्प में हैरत में डालने की विविधता तो है, साथ में एक कलात्मक इज़हार का अनोखा ढंग भी है जो ध्यान आकर्षित करने में क़ामयाब रहता है। इस बानगी के इज़हार के तेवर देखिए और परखिये:

जो कुछ उसने कहा/ और जो कुछ उसने किया 
सब काग़ज़ों में मौजूद है/ जो कुछ उसने नहीं कहा 
या नहीं कहकर भी कहा/ वह कहाँ है? 

मौन अपने आप में एक भाषा है।  हम बाहर से शांत, पर अपने मन को टटोलते हुए यही पाते हैं कि हम सोचों को हमसफ़र बनाकर अपने आप से सदा गुफ्तार करते रहते हैं। हमें यह आज़ादी मिली हुई है कि अपनी सोच को किस दिशा में ले जाएँ, कहाँ जाने से रोकें और आगे चलकर यही दशा और दिशा के संकेत हमारे अपने संस्कारों की प्रवृत्ति दर्शाते हैं।  विचार और भाषा के इस संतुलित मेल मिलाप का आकर्षण, शब्दों का रख-रखाव मन को सरोबार करता है। 

निर्गुण-सगुण, नि:शब्द-शब्द, का भावार्थ यक़ीनन अपने अनुभव के आधार पर ही महसूस किये हुए सच की तरह सामने आये हैं, जो किसी प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं। सरल सुगम भाषा में शब्दों की परिभाषा उनके अलफ़ाज़ में देखिये: 

निर्गुण की कोख से
जन्म लेता है सगुण
निश्चित सीमित अर्थ संग

नि:शब्द की कोख से
जन्म लेता है . . . शब्द
निश्चित सीमित अर्थ संग

इन कविताओं की विशेषता हमें लेखक की प्रतिभा से परिचित कराती है। शब्दों के हेर फेर के बीच का सौन्दर्य कितना अर्थूर्ण है यह इस संग्रह की निशब्दता में खोजिये। साहित्य सृजन की इस संकल्पशील तपस्या को एक यथार्थ पूर्ण यज्ञ कहना अतिश्योक्ति न होगी, जो पहले सिन्धी भाषा से भाषाई पैरहन बदलते हुए अब अँग्रेज़ी व् हिंदी भाषा में आपके हाथों में अपना ठौर पाने को लालायित है। मैं मंगलकामना करती हूँ कि उनका यह काव्य-संग्रह, अपनी रचनात्मकता के हर पहलू से पाठकों के दिल में उतरने की तासीर रखता है, आम जनता के दिलों में अपना अधिकारात्मक स्थान पा सकेगा। 

मंगलकामनाओं सहित 
देवी नागरानी
dnangrani@gmail। com

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

कहानी

अनूदित कहानी

पुस्तक समीक्षा

बात-चीत

ग़ज़ल

अनूदित कविता

पुस्तक चर्चा

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. पंद्रह सिंधी कहानियाँ
  2. एक थका हुआ सच
  3. प्रांत-प्रांत की कहानियाँ
  4. चराग़े-दिल

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. एक थका हुआ सच