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दर्द पत्तों की चरमराहट 

 

जी हाँ मौसमों की परतों में भी कई करिशमों व हादसों का सामना होता है। जो सुख-दुख का सैलाब ले आते हैं। सुख के पल तो बस ख़ुशी में झूमते-गाते गुज़र जाते हैं, पर दुख के पल जैसे आकर ठहर जाते हैं। 

जी मैं भी उम्र दराज़ के उस पड़ाव की बात कर रही हूँ जो हर मनुष्य के जीवन का अंतिम चरण बन जाता है। और यहाँ से उस आख़िरी पड़ाव का  सफ़र कभी यकसाँ, कभी खुरदरी राहों से गुज़र कर ही तय होता है। पर होता ज़रूर है शायद इसलिए कि वक़्त कभी मुड़कर नहीं देखता। 

अप्रैल में मेरी घुटने की सर्जरी के पश्चात मुझे  अरिस्टा केयर (Arista Care) में  दाख़िल किया गया है जहाँ मेरी व् मेरे जैसे अनगिनत प्राणियों की देख-रेख की जा रही है। उनकी सेहत की जाँच हर रोज़ होती है और ज़रूरत अनुसार उन्हें दवा-दारू हासिल होती है। हफ़्ते में दो बार नहाने के लिए ले जाया जाता है और वहीं पर सहायक बड़ी ही ख़बरदारी व् समझदारी से उसे अंजाम देते हैं। इस दौर से गुज़रना भी मेरे निजी अनुभव का एक हिस्सा है। ऐसा लगता है मैं यह जानने की प्रतिक्रिया से गुज़र रही हूँ कि दर्द क्या है, दर्द में चीखना-चिल्लाना, रोना व रोकर सिसकना क्या है? दर्द के एक नहीं अनेक स्वरूप सामने आते हैं जब-जब मैं अपने कमरे से वॉकर लेकर, अपना बोझ उठाये धीरे-धीरे वॉकर के सहारे बाहर निकलती हूँ। एक लंबे कॉरिडोर के इस छोर से उस छोर तक चलती जाती हूँ। कमरों में झाँकते हुए नज़रों की नज़रों से मुलाक़ात होती है और हर पल नज़र एक कमरे से दूसरे, फिर दूसरे से तीसरे और इस तरह 120-121-123-124 पर आकर रुक जाती है। यह मेरा ठौर-ठिकाना है जहाँ दो पलंग, दो अलमारी, दो टीवी, एक बाथरूम है। ख़ूब निजी प्राइवेसी है। समय पर नाश्ता चाय, दिन रात का खाना दिया जाता है। सब कुछ मिलता है पर नींद नहीं मिलती, कोई मददगार नहीं मिलता, कोई साथी नहीं मिलता जो मुझे मेरी निजी अनिद्रा में सहजता से मेरा साथ दे। 

मेरी रूम मेट 67 साल की है। हिप की सर्जरी हुई है दो दिन पहले। रात भर कराहती रहती है, अपने परिवार जनों के नाम ले-लेकर पुकारती रहती है, पर सुनने वाला एक ख़ुदा और एक मैं। न वह कुछ कर सकता है न मैं। मैं अपने दुख से नजात पाने के ज़रिए खोजती रहती हूँ, टाँग को सहलाती हूँ प्यार से पुचकारती हूँ पर सब कोशिश नाकाम। दर्द सोने नहीं देता। 

यह कैसा दर्द का दरिया है जहाँ सभी प्राणी अपनी अनिच्छा से रह रहे हैं? थोड़ा ठीक होने पर उन्हें घर भेज दिया जाता है और फिर नए लोग नए चेहरे नए विभिन्न ला-इलाज दर्द को लेकर आते हैं। यह कैसा दरिया है जिसमें उभरना-डूबना मनुष्य की नियति बन जाती है। यहाँ मैंने बड़े-बूढ़ों को बच्चों की तरह चीखते-चिल्लाते अपनी बेबसी पर रोते हुए देखा है। कोई अपनी मर्ज़ी व ख़ुशी से तो दर्द सहना नहीं चाहता, पर क़ुदरत के अटल क़ानून से भी बच नहीं पाता। तरह-तरह की बीमारियों से लड़ते हुए अपने अपने अंगों को स्वाहा करते-करवाते मनुष्य यहाँ आते हैं। थैरेपी से कुछ राहत पाकर उठ खड़े होते हैं, चलते-फिरते हैं और फिर अपने परिजनों के साथ अपने ठिकाने पर चले जाते हैं। 

जी, यही सब देखकर महसूस करते हुए एक बात का इल्म ज़रूर हुआ जाता है कि दुखों में सभी उस एक परमात्मा को पुकारते है, हे भगवान, हे राम, हे वाहेगुरु दया कर नजात दे . . . पर नजात तन को मिलती है, तन के भीतर उस ‘मैं’ को कहाँ जो आत्मा परमात्मा के मिलन की गुत्थी को जीते जी सुलझा नहीं पाई। बस इस राह को पाना है, इस राह पर चलना है सुरंग के भीतर की सुरंग से गुज़र कर आत्मा परमात्मा के मिलन की रीत को पाना है। जीते जी इन दुखों के सागर में डूबते-उभरते ही गुज़रना है और कोई रास्ता नहीं, कोई चारा नहीं, न ही इस देह से छुटकारा पाने का कोई साधन। 

अब जीवन के क्षितिज पर सूर्यास्त के विभिन्न चिह्न और चित्र दिखाई दे रहे हैं उन्हें देखते एक चित्रकार व कलाकार की बेहतरीन तरबीब दिखाई देती है जिसे देखते-देखते यह आँख सौंदर्य के चिह्नों में खो जाती है, हर दुख सुख के एहसास को भूल बैठती है और अपने लिए एक स्वप्न संसार का निर्माण करते हुए आगे और आगे बढ़ती है मंज़िल की ओर . . . 

बस यही ज़िन्दगी है सूर्योदय से सूर्यास्त तक के पलों के मिलन का संगम! 

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