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ग़ुर्बत का सूद

 

नहीं चुका पाऊँगी मैं
उस बनिए के बिल को
गिरवी जिसके पास रखी है मेरी ग़ुर्बत, 
यही तो मेरी पूँजी है जो निरंतर बढ़ती जा रही है 
कर्ज़ के रूप में 
जिसे खाती जा रही है, निगलती जा रही है 
मेरी इच्छाओं की भूख! और साथ उसके
  
बढ़ रहा है सूद भी
हाँ सूद उन पैसों पर 
जो मैंने कभी लिए ही न थे
हाँ ले आई थी पेट की ख़ातिर 
दो मुट्ठी आटा, चार दाने चावल
कभी दाल तो कभी साबू दाने, 
उबाल कर अपने ही ग़ुस्से के जल में 
पी जाती हूँ। 
 
पिछले कई सालों से 
हाँ, गुज़रे कई सालों से लगातार
झुकते झुकते, मेरी ग़ुर्बत की कमर 
अब दोहरी हो गई है
न कभी सीधी हुई, न होगी
अमीरों के आगे
कर्ज़दार थी, और सदा रहेगी! 
 
क्या चुका पाएगी, वह कर्ज़, 
हाँ, वह कर्ज़ जो ग़ुर्बत ने लिया 
उस सूदख़ोर अमीरी से। 
न जाने कितनी सदियाँ बीतेंगी 
उसे चुकाने में 
ख़ुद को आज़ाद करा पाने में! 

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