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अनुभव की चरम सीमा का प्रतिफल है: ‘असम्भव से सम्भव तक’

समीक्षित पुस्तक: असम्भव से सम्भव तक (उपन्यास)
लेखक: डॉ. रमाकांत शर्मा
प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स, सी-122, सेक्टर 19, नोएडा-201301
मूल्य: ₹300.00
 

आज सूर्योदय एक नया संदेश लेकर आया। डॉ. रमाकांत शर्मा के नए उपन्यास ‘असम्भव से सम्भव तक’ के प्रकाशन की सूचना मिली। यहाँ यूएसए में पुस्तक तुरंत मिलने का कोई साधन नहीं है। लेकिन, उसे पढ़ने की उत्सुकता ने उसके कवरपृष्ठ की छवि और वर्डफाइल मँगाने के लिए प्रेरित किया। डॉ. रमाकांत शर्मा के पिताजी पिंगलाचार्य आर.पी. शर्मा ‘महरिष’ मेरे गुरु रहे हैं। बरबस कई यादें सामने रक़्स करने लगीं। उनका घर जैसे मेरे लिए गुरुकुल बन गया और मैं ग़ज़ल का फन सीखने नियमित रूप से उनके घर जाने लगी और साथ में झोली भर कर ले आती स्नेह, आदर सत्कार और आशीर्वाद की सौग़ात। आज इस उपन्यास के शब्दों में मैं फिर से वही सब खोज रही हूँ। 

जो न होना था, वह सम्भव हो गया 
तजुर्बा था जो, वो अनुभव हो गया

जीवन का अपना फ़लसफ़ा है, जो हमें कभी बाँध कर रखना चाहता है, कभी आज़ाद करने के रास्ते पर डाल देता है, जहाँ हमें अपनी मर्ज़ी से निर्णय लेने पड़ते हैं और उनके परिणाम भी ख़ुद ही भुगतने होते हैं। बस, सच झूठ और भ्रम के जाल से निकलना है। आँखों से सच्चाई देखने का हुनर आ जाए तो इंसान की परख करने का हुनर भी आ जाता है। 

यह असम्भव-सम्भव के बीच का अर्थ एक नई सोच के साथ सामने आ रहा है। कर्म की ज़ंजीर वहाँ तक ले जाएगी जहाँ मंज़िल बाँहें फैलाए खड़ी है। मैं इस मायाजाल की अकेली साक्षी हूँ। जो मैं देखती हूँ वह मेरा अनुभव है, जो तुम देखते हो, वह तुम्हारा अनुभव है। हर क्रिया सम्भव के दायरे में है, असम्भव कुछ भी नहीं। 

रमाकांत से फोन पर हुई बातचीत के दौरान मुझे भी उपन्यास की नायिका की तरह हँसी आ गई। उन्होंने पूछा, “क्यों हँसी आ रही है आपको?” मेरा उत्तर था, “नामों को देखकर, आपके बेटे का नाम अनुभव और पोते का नाम सम्भव है ना।” हँसी-मज़ाक की बात अपनी जगह, पर जब इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया तो लगा, उपन्यास की नायिका बेला और नायक प्रमोद के बीच जो कुछ भी घट रहा है, वह सरल-सहज मानवीय भावना को अभिव्यक्त करते हुए क्षितिज के विस्तार में अपना-अपना अस्तित्व ढूँढ़ने के प्रयास जैसा है। 

यह उपन्यास एक सीधी-सादी प्रेम कहानी के ज़रिए यह गूढ़ संदेश देने का सफल प्रयास है कि ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में कुछ भी असम्भव नहीं है। कहते हैं कि जो कुछ भी हमारी कल्पना के दायरे में आता है, वह तभी आता है जब वह इस अखिल ब्रह्मांड में पहले से मौजूद हो। सारे आविष्कारों के मूल में कल्पना ही तो रही है। 

मैं इस उपन्यास के समर्पण से ही अपनी बात शुरू करती हूँ। डॉ. शर्मा ने अपने उपन्यास का समर्पण इस प्रकार किया है, “समर्पण उस परमपिता को जिसने सृष्टि की रचना की और अकिंचन मनुष्य के हाथ में लेखनी देकर उसे भी रचना करने की शक्ति प्रदान की।” यह समर्पण उनके अटल विश्वास की नींव की प्रस्तुति है और स्वयं में बहुत बड़ा संदेश है। सत्यम, शिवम, सुंदरम का अनोखा संगम जो परमात्मा की सृष्ट रचना में मनुष्य को वही वरदान देता है जिसका उसे अख़्तियार है। क़लम ईश्वर की तरफ़ से मनुष्य को दी गई एक अनमोल सौग़ात है जिसके ज़रिये मनुष्य अपनी रचना के माध्यम से उसकी इबादत भी करता है। इस उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण पात्र है कृपा माँ, जिसके माध्यम से ईश्वर के स्वरूप को समझने-समझाने का जो प्रयास किया गया है वह श्लाघनीय है। 

मनुष्य को रचना का अधिकार मिलना ईश्वर की तरफ़ से इस बात का स्पष्ट संकेत है कि उसकी सृष्टि में कुछ भी असम्भव नहीं है। पर, हम मनुष्य इसे नज़रअंदाज़ करते हुए या फिर ना समझते हुए अपनी रोज़मर्रा की छोटी-मोटी समस्याओं के समाधान को भी असम्भव मान लेते हैं और अनंत संभावनाओं का द्वार ख़ुद ही बंद कर लेते हैं। ज़रा-ज़रा सी परेशानियों में आशा-विश्वास और प्रयास का दामन छोड़कर बैठ जाने वालों को गीता में यह संदेश दिया गया कि “असम्भव और सम्भव के बीच की दूरी व्यक्ति की सोच और उसके कर्म पर निर्भर करती है।” वस्तुतः गीता के इस उपदेश ने ही इस उपन्यास को जन्म दिया है। 

उपन्यास की भूमिका में वरिष्ठ क़लमकार महेन्द्रनाथ महर्षि जी ने इस बात को रेखांकित किया है कि “उपन्यास यों तो काल्पनिक कहानी पर आधारित फ़िक्शन फ़िल्म जैसा होता है, लेकिन वह भी तथ्यों से परे जाकर लिखी कथा नहीं हो सकती।” उपन्यास के मुख्य पात्र प्रमोद और बेला जीवन में बीते मौसमों की बहार और ख़िज़ाँ के थपेड़ों से जूझते-उलझते आगे बढ़ते हैं, यही तो जीवन है जो वक़्त की तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ आगे ही बढ़ता है, पीछे मुड़कर नहीं देखता। 

कोई भी रचना हक़ीक़त और कल्पना का मिश्रण होती है। कभी-कभी कल्पना और हक़ीक़त में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता। जिन क्षणों में कुछ रचा जा रहा होता है, वे हैरतअंगेज पल होते हैं। इन पलों में सोच और शब्दों का संग़म एक ही सुर-ताल में सजता-सँवरता है। यह भावनाओं के बहाव में अपने साथ बहा ले जाता है। भावनाएँ जो दिल को चोट पहुँचाती हैं या फिर अनजाने में हँसा जाती हैं। मेरे लिए वह पल ख़ुशगवार होता है जब मेरे चेहरे पर बरबस एक नन्ही मुस्कान उभर आती है और फिर क़हक़हे में तब्दील हो जाती है। ये सबसे सुकून के क्षण होते हैं। ऐसा ही प्रसंग इस उपन्यास के अंत में दिखाई देता है:

“बेला ने हँसते हुए कहा, ऐसे क्या देख रहे हो मेरी तरफ़?” 
“मेरा बुरा हाल सुनकर तुम्हें हँसी आ रही है?” 
“हाँ, आ रही है। यह सोचकर कि मैं तो अब सचमुच तुम्हारी परछाईं बन गई हूँ। पर, ऐसी परछाईं जिसे तुम छू सकते हो,”  उसने अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाकर कहा, “लो छूकर देखो।” 

सच कहूँ, उपन्यास का यह ख़ुशनुमा अंत मैंने पहले पढ़ लिया। फिर मैं यह जानने को उत्सुक हो आई कि इस स्थिति तक पहुँचने की मनोस्थिति की बुनियाद क्या है और यहाँ तक पहुँचने के लिए किरदारों को कौन-सी पगडंडियों से गुज़रना पड़ा। भूमिका में महेन्द्र नाथ महर्षि जी ने लिखा है, “कहानी का परछाईं को भी पकड़ लेना, उपन्यास को रोमांस के जिस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, वह कठिनाइयों से जूझते जीवन में अचानक खिलखिलाते क्षणों का मार्मिक रोमांच और रोमांस भरे सुखद भविष्य का नया संसार रच देता है।” बेला और प्रमोद की प्रेम कहानी उपन्यास के मूल संदेश को पाठकों तक कैसे पहुँचाती है, यह जानने के लिए पाठक उपन्यास की पहली से आख़िरी पंक्ति तक उत्सुकता से भरा रहता है। 

हम ये जुमले सुनते आए हैं, “हिम्मते-मर्द मददे ख़ुदा”, “असम्भव शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं है” आदि। फिर भी, ज़िन्दगी की परेशानियों से बहुत जल्दी हार मान लेते हैं। यह उपन्यास हमें बिना किसी प्रवचन के यह समझा देने में कामयाब हुआ है कि परिस्थिति से जूझते हुए किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले ही उसे असम्भव मान लेना हार मान लेने जैसा है। जीवन अनमोल है। हर समस्या का समाधान मौजूद है। निष्ठा से प्रयत्न करने से हार जीत में बदल सकती है, ग़म के बादल छँट सकते हैं और सामने रोशनी की नई किरण मुस्कुरा कर जीवन को उजालों से मालामाल कर देने को तत्पर खड़ी नज़र आने लगती है। चलो, हम भी उस राह पर हमक़दम होकर चलते हैं, जो हमें उस मंज़िल तक ले जाती है जहाँ हार नहीं जीत हमारा इंतज़ार कर रही होती है। 

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