अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ज़िन्दगी की नुक्कड़

सुना वो शादी शुदा था . . . कहते हैं शादी ही ऐसी दुर्घटना है जहाँ चोट लगने के पहले हल्दी लगा दी जाती है, ज़ख़्म बाद में नासूर बनकर रिसते हैं। 

रेल रोड के सामने गली की नुक्कड़ पर, मैंने पान की पहली दुकान लगाई। दुकान क्या थी, बस मिट्टी के टीले पर एक खोखा, उसपर लाल रंग का गीला कपड़ा बिछा हुआ, जिसपे रखे रहते हैं पान के पत्ते, सुपारी, गुलकंद, चूना-कत्था, कुछ मसालों के डिब्बे, और बीड़ियाँ! 

आते–जाते कोई बीड़ी ले जाता, तो कोई पान, कोई सिगरेट की माँग करता और न मिलने पर निराश लौट जाता। पर रोज़गार तो रोज़गार है, चलता रहा एक पुरानी गाड़ी की तरह। एक दिन एक सुंदर सी लाल गाड़ी आकर सामने रुकी, खिड़की से पच्चास रुपये देते हुए एक नौजवान ने दो पान लिए, एक खाने के लिए और एक ले जाने के लिए, और सिगरेट की माँग की। न मिलने पर नोट देकर बिना छूटे पैसे लिए ही वह चला गया। यक़ीनन कोई रईस था। आए दिन, हफ़्ते दो हफ़्ते जब भी आता—दो पान लेता और कुछ पैसे दे जाता। एक बार पाँच सौ रुपये देते हुए कहा, "दुकान ढंग से बना लो और सिगरेट भी रखा करो।”

लोगों का आना–जाना लगा रहा, दुकान अच्छी चलने लगी। मैंने सिगरेट के कुछ पैकेट मँगवा लिए थे ऐसे रईस लोगों के लिए। अब मेरी आँखें आये दिन उसकी बाट जोहतीं, नुक्कड़ तक जाकर लौट आतीं, और दिल कुछ उदास हो जाता। जाने क्यों लगता जैसे कोई मेरा अपना नज़र से दूर हुआ हो। 

देखने को मुन्तज़िर मेरी आँखें उसे तलाशतीं, इंतज़ार करतीं। कई दिन बीते, कई हफ़्ते, अचानक छह महीनों के बाद वह आया, पर बाइक पर, आगे कोई और था पीछे वह। हमेशा की तरह उसने दो पान बनवाये और पहली बार बीड़ी की माँगी तो मैं चौंका। ग़ौर से देखा तो हुलिया भी बदला हुआ लगा—बाल बिखरे से, आँखें लाल, और कपड़े अस्त–व्यस्त! बस हाथ हिलाता हुआ बाइक पर पीछे बैठा और चला गया। मैं बस उसी दिशा में देखता रहा, जब तक वह नज़रों से ओझल न हुआ। जाने क्या सोचता रहा, बस मन पर उदासी के बादल छा गए। 

लगभग एक महीने के बाद वह फिर आया, तो लगा जैसे वह अपने पैरों पर खड़े होने के क़ाबिल न था। मैं तख़्ते से नीचे उतरा, उसका हाथ थामा और कुर्सी पर बिठाया। दो पान उसके मिज़ाज के बनाकर उसे दिये और सवाली आँखों से उसकी ओर देखा। उसने आँखें न मिलाकर अपनी गर्दन कुछ और झुका ली। उठने की कोशिश में कुछ लड़खड़ाया पर उठते ही चला गया। लगा जैसे उसने ज़िन्दगी के खेल में ख़ुद को दाँव पर लगाया हो, और ज़िन्दगी से हार गया हो। 

सवाल उठता है कि क्या हम ज़िन्दगी जीते है या ज़िन्दगी हमें जीती है? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

कहानी

अनूदित कहानी

पुस्तक समीक्षा

बात-चीत

ग़ज़ल

अनूदित कविता

पुस्तक चर्चा

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. पंद्रह सिंधी कहानियाँ
  2. एक थका हुआ सच
  3. प्रांत-प्रांत की कहानियाँ
  4. चराग़े-दिल

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. एक थका हुआ सच