अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मरीचिका - 1

(मूल रचना:  विद्याभूषण श्रीरश्मि)

धारावाहिक कहानी

 

1942-46

मेरे पिता वकील थे। पर वकील वे वैसे न थे जैसा मेरी 1962 की अवस्था को देख अनुमान लगाया जा सके। वे बड़े सीधे-सादे आदमी थे, झूठ के नाम से उनका कलेजा काँपता था। धर्मभीरु इतने, कि यदि भूले-भटके कोई मुवक्किल उनके पास आ जाता, तो कानूनी तिकड़म की झाँकी दिखा कर मुक़दमा जिता देने का आश्वासन देने की बजाय धर्मग्रन्थों का हवाला देकर उसे बुरे कर्मों से बचने और किए जा चुके कुकृत्यों का प्रायश्चित्त करने का उपदेश देने लगते। ऐसा व्यक्ति वकालत के धन्धे में कितना सफल होता, स्पष्ट है। 'एफ़िडेविट'-जैसे कुछ मामलों से वे महीने में मुश्किल से सौ-डेढ़ सौ रुपए कमा पाते थे। इधर परिवार में थे आठ जने– पिताजी, दादी, माँ, हम तीन बहनें और दो भाई। आरा शहर हालाँकि बड़ा नहीं है, और उस समय तो और भी छोटा था, फिर भी, इतना छोटा नहीं था कि सौ-डेढ़ सौ रुपए आठ व्यक्तियों के परिवार में सम्पन्नता ला देते। 

पिताजी की सरलता का लोग अक़्सर मज़ाक उड़ाते, कहते कि ऐसी वकालत से तो किसी चलते वकील की मुंशीगीरी बेहतर होती। कुछ लोग चिढ़ाने के ख़याल से जानबूझ कर उन्हें 'मुख़्तार साहब' पुकारते। पर पिताजी मुस्करा देते, कहते, "भैया, तुम्हें इस अदालत की फ़िक्र है जहाँ तुम वकील हो, लेकिन मैं उस बड़ी अदालत की सोचता हूँ जहाँ जज भी मुजरिम होगा, वकील भी, और चोर-डाकू भी।" यों कहा यही जाता है कि हर चीज़ की एक सीमा होती है, पर मेरा अनुभव बताता है कि किसी भी चीज़ की कोई सीमा नहीं होती– न अच्छाई की, न बुराई की, न शराफ़त की, और न कमीनेपन की। इस निस्सीम संसार की हर चीज़ निस्सीम है। पिताजी की सादगी और भलमनसाहत से लोगों के हौसले काफ़ी बढ़ गए थे। वे समझते थे कि पिताजी का जन्म ही उनके खिलवाड़ के लिए हुआ था, और पिताजी को गालियाँ देने और सताने का उन्हें पूरा-पूरा अधिकार था। एक बार तो पिताजी का उक्त उत्तर सुन कर किसी ने यहाँ तक कह दिया था, "हम तो यहाँ रहते हैं, यहाँ की अदालत के बारे में सोचते हैं। जब आप किसी दूसरी दुनिया की अदालत को लेकर परेशान हैं, तो आपको रहना भी ..." और पिताजी ने उसका मुँह नोच लेने के बजाय उत्तर दिया था, "देखो, कब बुलावा आता है!"       

उधर पिताजी का यह हाल था और इधर माँ बेचारी पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों द्वारा उत्पीड़ित थीं। हमारे यहाँ एक कहावत है, "निम्मर के जोरू सबके भौजाई," यानी कमज़ोर आदमी की बीवी से हर कोई हँसी-ठिठोली करने का साहस करता है। लेकिन अगर बीवी कमज़ोर न हो, तो भी बात उतनी नहीं बिगड़ती। पर मेरी माँ? वे सच्चे अर्थ में पिताजी की जीवन-संगिनी थीं। पिताजी को चाहे कभी ग़ुस्सा आ भी जाए, पर माँ तो जैसे स्थितप्रज्ञता की अवस्था प्राप्त कर चुकी थीं। वे अत्याचार करनेवाले से माफ़ी भी माँग लेती थीं और ज़रूरत-बेज़रूरत उसकी सेवा में संलग्न भी हो जाती थीं। एक बार एक पड़ोसन ने बेबात की बात पर हमलोगों को बेहद गालियाँ दीं और मेरे पिताजी की मृत्यु तक की कामना की, पर पन्द्रह दिन बाद ही वह बीमार पड़ी तो माँ ने उसकी सेवा में दिन-रात एक कर दिया। पड़ोसन ने इसे माँ की विशालहृदयता न मान कर उनका कर्तव्य और अपना अधिकार माना, तथा कुछ दिन बाद ही यह अफ़वाह उड़ा दी कि मेरी माँ ने उसके सिरहाने से रुपए चुरा लिए थे। मुहल्ले का कोई भी बच्चा हम भाई-बहनों को बेझिझक गाली दे देता या मार बैठता, पर माँ कभी प्रतिकार नहीं करतीं। उल्टे, हम मार खाए हुओं को ही डाँटने लगतीं या पीट देतीं। उनका मुहल्ले में इतना दब कर रहना दादीजी को क़तई पसन्द न था। वे ठेठ देहात की थीं और आत्मसम्मान उनमें कूट-कूट कर भरा था। माँ के चलते उन्हें अन्दर-ही-अन्दर तड़प कर रह जाना पड़ता था। यदि वे किसी को जवाब देने भी लगतीं तो माँ उन्हें धकेल कर अन्दर ले जातीं|

माँ के इस व्यवहार को पहले मैं उनकी सरलता मानती थी, पर अब सोचती हूँ कि उसका मुख्य कारण हमारी निर्धनता थी। वे जानती थीं कि निर्धनता के कारण समाज में उनका वह स्थान नहीं है जो होना चाहिए, और इस वज़ह से उन्हें दूसरों का आधिपत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, वे उनसे लोहा लेकर नहीं जी सकतीं। लेकिन तब, वे अपने से ग़रीबों से भी क्यों दबती थीं? इसलिए कि आज की दुनिया में सम्मान के साथ जीने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है धन, और यदि वह न हो तो कुछ सीमा तक उसकी पूर्ति बाहुबल से हो जाती है। ग़रीबों के पास धन तो नहीं था, पर शारीरिक बल था और आवश्यकता पड़ने पर वे ताल ठोक कर मैदान में आ सकते थे, जबकि हमारे पास न तो पैसे थे और न ही जिस्मानी ताक़त। इज़्ज़त बचाने के लिए सबसे दबने के अलावा हमारे पास कोई चारा न था।

भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी थी। मुझसे छोटा अनुराग था, फिर कान्ति, फिर सुकुमार और सबसे छोटी रेवा। हम भाई-बहनों की अवस्था में दो-दो वर्ष का अन्तर था, अर्थात् रेवा मुझसे आठ साल छोटी थी। हमारे सिर पर माँ-बाप का वह वरद-हस्त तो न था जिसकी सुरक्षा के आभास से बच्चे सीना तान कर चलते हैं, पर सौभाग्यवश पढ़ाई-लिखाई में हम सब तेज़ थे। पिताजी अन्य मामलों में चाहे ज़मीन तक झुक कर दुनिया से समझौता कर लेते, पर हमारी पढ़ाई के बारे में वे रंच-मात्र भी टस-से-मस होने को तैयार न होते थे। मेरे मैट्रिक पास कर लेने पर लगभग सभी लोगों ने राय दी कि मेरी पढ़ाई छुड़ा दी जाए, क्योंकि शहर में एक ही कॉलेज था और उसमें लड़के-लड़कियों की सह-शिक्षा की व्यवस्था थी। पिताजी न माने, बोले, "मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है। जब तक वह स्वयं भटकना नहीं चाहेगी, उसे कोई भटका नहीं सकेगा। और, यदि वह भटकना ही चाहेगी, तो अपने मुहल्ले में ही आवारों की क्या कमी है?" चुनांचे मेरा नाम कॉलेज में लिखा दिया गया और लोगों ने आपस में यह कह-सुन कर सन्तोष कर लिया कि दहेज देने की औक़ात न होने की वज़ह से पिताजी मुझे वर तलाशने के लिए कॉलेज भेज रहे थे, पढ़ाई तो बस एक बहाना थी। पिताजी की औक़ात का छोटा होना बड़ा महत्वपूर्ण था। लोगों को यह सह्य न था कि एक साधारण हैसियत के आदमी की बेटी असाधारण शिक्षा प्राप्त करे। उधर पिताजी शिक्षा के इतने बड़े हिमायती थे कि उसके पीछे वे भूखे-नंगे रहने से भी न कतराते।

कॉलेज में कुल मिला कर पच्चीस-तीस छात्राएँ थीं, जबकि छात्रों की संख्या छः सौ से कम न होगी। स्वयं मेरी कक्षा में मात्र छः लड़कियाँ और सौ के आसपास लड़के थे। इनमें से कुछेक के तथाकथित पुरुषार्थ से रेलवे अधिकारियों और पुलिसवालों की नाक में भी दम रहता था। बेक़ुसूर राहगीरों को गाली देना और लूटना, रिक्शावालों को मारना-पीटना, बात-बेबात छुरेबाज़ी करना, ट्रेन में बिना टिकट सफ़र करना, टिकट-चेकरों की पिटाई करना, लड़कियों को सरेबाज़ार छेड़ना और उनका सामान छीनना, और तो और, सुन्दर लड़कों को भी छेड़ना–इसी में उनकी मर्दानगी थी। रेलवे स्टेशन पर साइडिंग में खड़ी रहनेवाली आरा-सासाराम छोटी लाइन की गाड़ी उनके जुआ खेलने और आवारागर्दी करने का निरापद अड्डा थी। भला किस रेलवे अधिकारी को अपनी शामत बुलवानी थी जो रोकथाम करने जाता? ऐसे शोहदों के बीच हम लड़कियों की क्या अवस्था होगी, सहज ही समझा जा सकता है। मानो हम छात्राएँ नहीं, वारांगनाएँ हों! बल्कि, उनके साथ भी ऐसा व्यवहार नहीं होता। क्या लोग राह-चलती वेश्या से अश्लील मज़ाक करते हैं? उसके बाप-भाई को लक्ष्य कर ख़ुलेआम गालियाँ देते हैं? उसके गाल और स्तन मसलते हैं? दस आदमियों के बीच भी उसे घसीटने की हिम्मत करते हैं? पर हम लड़कियों के साथ यह सब होता था। शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब कोई लड़की रो न देती हो। पर उपाय भी क्या था? परिस्थिति से तो निपटना ही था। अतः सब लड़कियाँ अध्यापक के साथ एक जत्थे में क्लास में घुसतीं और बाहर आतीं। हमने वैकल्पिक विषय भी एक-जैसे ही चुने, ताकि कोई लड़की किसी क्लास में अकेली न पड़ जाए।

दुर्भाग्यवश, अपनी टोली में सबसे सुन्दर मैं ही थी। ज़ाहिर है, मुझे विशेष सावधानी बरतनी पड़ती थी। मैं अकेली घर से कॉलेज और कॉलेज से घर नहीं जाती, पिताजी मेरे साथ रहते। वे मुझे छोड़ने के बाद कोर्ट जाते और लौटते समय मुझे साथ ले लेते। मेरी पढ़ाई ने उनका बोझ बढ़ा दिया था। लेकिन इस बोझ को फेंक भी तो नहीं सकते थे। भेड़ियों के समाज में बसना खेल थोड़े ही होता है! और भेड़िये भी ऐसे जो बंदूक की नली के सामने भी छलाँग लगाने से बाज़ न आएँ। 

एक दिन मैं पिताजी के साथ रिक्शे में कॉलेज जा रही थी। बाहरी फाटक पर तीन लड़के खड़े थे। रिक्शा पास पहुँचते ही एक बोला, "का हो, बुढऊ पैदा तो दूसड़ लागी ही न किए होंगे?" दूसरे ने भद्दी हँसी के साथ उत्तर दिया, "का मालूम, आपन मलाई खुद्दे चाटते होंगे!" रिक्शे के पीछे से फ़ब्ती सुनाई दी, "खेत अभी जुत ड़हा है। डेली गोराई भी चालू है, है न चचा!" तीनों के अट्टहास के बीच मेरी हार्दिक इच्छा हुई कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। 

थोड़ा आगे बढ़ने पर पिताजी ने पूछा, "इन लड़कों को पहचानती हो?" 

मैंने धीमे से जवाब दिया, "हाँ!" 

उसके बाद चुप्पी छाई रही। रिक्शा  रुकने पर  पिताजी ने कहा, "आओ, ज़रा प्रिंसिपल से मिल लें।"

प्रिंसिपल भले आदमी थे। पिताजी की शिकायत सुन कर उन्होंने लड़कों को बुलाकर डाँटा-फटकारा और आगे के लिए चेतावनी भी दे दी। लेकिन वे ढीठ कहाँ सुधरने वाले थे! कुछेक पल बाद हम जैसे ही बाहर निकले, वे थोड़ी दूर पर खड़े मिले। एक ज़ोर से बोला, "आजकल लोग का देमाग बहुत बढ़ गया है। कोट के जगह कालेजवे में बकालत हो ड़हा है ससुड़! आउ बकालत भी किससे? ऊ बेदाँत का कूकुड़, प्रिंसिपलवा से! ऊ सारा का बेगार लेगा हमाड़ा? नउकरी न चल जाएगा? फेड़ सिकायत करने से पहले ई भी जान लिया जाए कि हमड़ बाऊजी पड़बन्धक समिति में हैं।" और उसने हिक़ारत से थूक दिया।

ऐसे जंगली से उलझने में बुद्धिमानी नहीं थी। हम अनसुनी कर आगे बढ़ गए। वैसे भी, कुछ दिनों में दुर्गा पूजा की छुट्टियों के बाद बात आई-गई हो जाती। पर छुट्टियों से तीन दिन पहले एक और हादसा हो गया। हम सहेलियों की टोली कॉलेज के अहाते में बातचीत कर रही थी। कॉलेज का अहाता काफ़ी बड़ा था और उसमें जगह-जगह बेतरतीब झाड़ियाँ थीं। वही बदमाश अचानक सामने आ धमका और मेरा हाथ पकड़ मुझे एक झुरमुट की ओर खींचने लगा। अचानक हुए इस हमले से सब लड़कियाँ हैरान रह गईं। कुछ पल तो मेरे भी होश गुम रहे, पर उसके बाद मैं बुरा-भला बकते हुए पूरी ताक़त से हाथ छुड़ाने लगी।

मैं चाहे जितना भी ज़ोर लगाऊँ, उस वहशी पर तो जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा था। मुझे और भी ज़ोर से खींचते हुए वह खीसें निपोरे गाने लगा, "हुआ क्या कुसूड़, जो हमसे हो दूड़, जान-ए-जिगड़, आँखों के नूड़, दे दे एक चुम्मा, आँखों के नूड़।" मेरी सहेलियों को मानो काठ मार गया था। कोई भी मेरी मदद के लिए नहीं बढ़ी, चुपचाप देखती रहीं सब। शायद वे इस जंजाल में पड़ ख़तरा नहीं मोल लेना चाहती थीं। इधर वह दरिन्दा मुझे झाड़ी के निकट ला चुका था। मेरी अवस्था विक्षिप्त-सी हो गई। मैंने दाएँ हाथ में दबी पुस्तकें झटके से फेंक दीं, और जिस हाथ से उसने मेरा बायाँ हाथ जकड़ रखा था, उसमें पूरी शक्ति से दाँत गड़ा दिए। पल भर में ही वह दर्द से "बाबू हो, बाबू हो" चिल्लाने लगा। मुझे मारने की कोशिश भी की उसने, पर मुझ पर तो जैसे माँ दुर्गा सवार थीं! मैंने तब तक दाँत नहीं हटाए जब तक ख़ून से भरे मुँह में और जगह नहीं बची। दाँत हटाते ही वह ज़मीन पर गिर कर फ़न-कुचले नाग की तरह तड़पने लगा। लाचारी में बिलबिलाते उस गुण्डे का वह दयनीय रूप देखने योग्य था। मिनटों में ही किस तरह तहलका मच गया, किस तरह मजमा इकट्ठा हो गया, और किस तरह उसे अस्पताल ले जाया गया, यह बताने की आवश्यकता नहीं। इतना ही कहना काफ़ी होगा कि उसका घाव भरने में महीनों लग गए। 

इस घटना के बाद मैं कॉलेज में प्रसिद्ध हो गई। यह शोहरत किसी कमनीया की नहीं, एक ऐसी वीरांगना की थी जिसके प्रति आकर्षण तो हर हृदय में था, पर जिसकी ओर हाथ बढ़ाने का साहस किसी में भी न था। लड़के अब भी फ़ब्तियाँ कसते, पर मेरे नज़र उठाते ही इधर-उधर ताकने लगते। कोई बुदबुदा कर "लछमीबाई" के ख़िताब से नवाज़ता, तो कोई कहता, "डैगड़ ड़खती है पास में!" एक लड़के को तो मैंने यह भी कहते सुना, "जानते हो, आदमी का खून पीने के बाद न, आदमी पगला जाता है! डॉक्टड़ लोग बोला है कि ई भी पागले है। कुच्छो कड़ सकती है। मडड़ भी!" 

सब पर मेरा आतंक छा गया था। यह आतंक घटे नहीं, बना रहे, इसके लिए मैंने हिम्मत से काम लेना शुरू किया। अब मैं दिल मज़बूत करके कॉलेज अकेली आने-जाने लगी, कॉलेज के अहाते में भी अकेली घूमने-फिरने लगी। मैंने निश्चय कर लिया कि विपत्ति आने पर मैं आततायी की जान लेने से भी नहीं हिचकूँगी, लेकिन अपने ऊपर अन्याय नहीं होने दूँगी। 

जब मनुष्य सर्वस्व दाँव पर लगा दे, तब भय कहाँ रह जाता है पास! फ़ब्तियों का स्वरूप प्रशंसा और उलाहनों में बदल गया। कोई आह भर कर कहता, "सचमुच, पड़तिमा है! जैसन नाम, वैसने गुन!" तो दूसरा उत्तर देता, "पड़तिमा तो है, लेकिन पत्थल की!" ऐसी फ़ब्तियों से मुझे कोई ऐतराज़ न था। मैं उनकी परवाह न कर शान से एक ओर से आकर दूसरी ओर निकल जाती, देखनेवाले देखते रह जाते। लेकिन अगर मैं यह कहूँ कि किसी का भी अपनी ओर ललचाई नज़र से देखना मुझे नहीं सुहाता था, तो वह ग़लत होगा। अपनी ही कक्षा का एक लड़का, शरद, मुझे अच्छा लगता था, मन में बसी जीवनसाथी की छवि से मेल खाता था। वह औरों की तरह उच्छृंखल नहीं, धीर-गम्भीर था। आकर्षक व्यक्तित्व का धनी शरद पढ़ाई-लिखाई में तेज़ तो था ही, हँसमुख और सज्जन भी था। और, वह भी मेरी तरफ़ आकर्षित था! जहाँ-कहीं मुझे एकान्त में पाता, मासूमियत से एकटक निहारने लगता, पर जैसे ही हमारी आँखें मिलतीं, नज़रें फिरा लेता। उसका चोरी-चोरी ताकना मुझे अच्छा लगता था। मैं बड़ी सावधानी से उसे देखती, ताकि उसे पता न चले और मुझे उसकी निगाहों का कोमल स्पर्श मिलता रहे। धीरे-धीरे उसे भी शायद मेरे मन की कुछ थाह मिल गई। तभी तो, एक दिन नोट्स माँगने के बहाने उसने मुझसे बातचीत करने का साहस किया। पर मेरे कटु व्यवहार की आशा उसने न की थी। मुझसे बात करने का साहस उसे फिर नहीं हुआ।   

पर आशा भी तो साथ नहीं छोड़ती मनुष्य का! लगभग दो महीने बाद एक दिन मैं एकान्त में कोई पुस्तक पढ़ रही थी कि एक लिफ़ाफ़ा मेरी गोद में आ गिरा। मैंने मुड़ कर देखा, शरद सिर झुकाए तेज़ कदमों से जा रहा था। लिफ़ाफ़े के स्पर्श-मात्र से मेरा रोम-रोम झनझना उठा, दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। मैंने आसपास देख इत्मीनान किया कि किसी ने यह चोरी पकड़ तो नहीं ली। चुपके से लिफ़ाफ़ा और पत्र किताब के पन्नों के बीच दबा पढ़ गई पूरी चिट्ठी। दोबारा पढ़ी। उस शालीन प्रणय निवेदन में आजीवन साथ रहने की कामना की गई थी। बात मेरे मन की थी, पर अगले दिन मैंने निर्ममता से अपना निर्णय सुना दिया, "आगे ऐसी हरक़त मत कीजिएगा। हमारे साथ ई-सब नहीं चलेगा। समझ गए न!" और वह इस तरह सिर झुका कर चला गया जैसे परीक्षा में नक़ल मारते हुए रंगे-हाथ पकड़ा गया हो। 

उस रात मेरी आँखों के आगे शरद का मायूस चेहरा बार-बार उभरता रहा और मैं तकिये से मुँह दबा कर रोती रही। पहली बार महसूस किया, नारी का जीवन कितना बनावटी होता है! वह चाहती कुछ और है, पर उसे बोलना और करना कुछ और ही पड़ता है। उसका प्रणय निवेदन पाने, उसे मन-ही-मन पसन्द करने, और चार साल साथ पढ़ने का सुयोग होने के बावजूद मैंने शरद को नकार दिया था। यदि कमज़ोर पड़ कर मैं उसकी बात मान लेती और बाद में वह मुझसे ऊब कर, अभिभावकों के दबाव में आकर, या सम्पन्न परिवार में विवाह के लाभ से उत्प्रेरित होकर मुझसे मुँह मोड़ लेता, तो? वैसे भी, उसके धनाढ्य माता-पिता हमारे निर्धन परिवार से नाता जोड़ने को कभी तैयार न होते।  शरद का तो कुछ न बिगड़ता, पर मेरे माँ-बाप कहाँ मुँह छुपाते? मैं लोगों के ताने झेलने को तैयार नहीं थी कि वकील बाबू ने लड़की को पढ़ाई के लिए नहीं, विवाह का ख़र्च कम करने के लिए कॉलेज भेजा था, पर चौबे जी छब्बे न बन सके, दूबे बन कर अपना पहला मुक़दमा भी हार गए!

अपने-आप पर क़ाबू रख मैंने पढ़ाई पूरी की, और कॉलेज से बेदाग़ चली आई। ग़रीब की बेटी ग्रैजुएट हो गई। संतप्त बाप का कलेजा जुड़ा गया। पता नहीं, दूसरों पर क्या बीती!

1946-47

मेरे बी ए पास कर लेने से पिताजी को हार्दिक प्रसन्नता तो हुई, पर उनकी परेशानी बढ़ गई। लोगों की राय में मेरी उम्र बहुत पहले ही विवाह की आदर्श सीमा-रेखा लाँघ चुकी थी। 

"बीस बरिस के लड़की को अऊर केतना दिन डेरा में अगोरिएगा?" लोग ऐसे कहते मानों मैं बेटी नहीं, साँप थी। 
पिताजी सिर झुका लेते। उपाय भी क्या था उनके पास? वे अपनी क्षमता-भर वर की तलाश कर रहे थे, पर बात कहीं तय नहीं हो पा रही थी। पिताजी पढ़ा-लिखा, कम-से-कम ग्रैजुएट, वर चाहते थे, पर वैसे लड़कों का बाज़ार-भाव काफ़ी ऊँचा था। पंद्रह-बीस हज़ार रुपयों से कम दहेज़ की कोई बात भी नहीं करता था। ऊँचे ख़ानदान, धन-सम्पत्ति, सरकारी नौकरी वगैरह के नाम पर अतिरिक्त राशि की माँग भी की जा रही थी। नौकरी के तलाशमन्द एक अनाथ लड़के ने भी बेझिझक दस हज़ार रुपए माँग लिए थे, ताकि वह लन्दन जाकर बैरिस्टरी पास  कर सके। पैसों की चमक हमारे पास थी नहीं, हम बस दूर से मुहल्ले और बाक़ी शहर में धूमधाम से होती शादियों की चकाचौंध देख सकते थे।

एक दिन मैंने पिताजी को माँ से उद्विग्न भाव से कहते सुना, "पहले लोग पैसा माँगते थे तो उसका वाजिब कारण होता था। ठीक है भाई, आप पैसा खरच कर अपना लड़का पढ़ाए हैं, इस काबिल बनाए हैं कि हमारी लड़की का और परिवार का पेट पाल सके। मान लिए, आप उस खरचे का कुछ हिस्सा हमसे चाहते हैं। ठीक है! पर अब काहे? जेतना आपका बेटवा पढ़ा है, ओतने हमारी बेटी पढ़ी है। दूनो तरफ़ खरचवा तो बराबरे न हुआ है! आपका बेटा कमा सकता है तो हमारी बेटी भी अथी कर सकती है। फेर कौन बात का हेतना डेमाण्ड?"  

माँ बेचारी को क्या मतलब तर्क-वितर्क से? बोलीं, "त रेबाज न मानिएगा? मनमानी नहीं न चलेगा!"

"बाह रे रेबाज! अरे, रेबाज-उबाज त हम ओही रोज तोड़ दिए थे जब बेटी को आगे पढ़ाने का फैसला लिए थे।"

"रेबाज पढ़ाई का न टूटा है, सादी-ब्याह का तो बनले है।"

"देखो अन्नू के माय! हम एक रेबाज तोड़े हैं, तो दुसरो तोड़ सकते हैं। बेदहेज लड़का नहीं मिलेगा, तो हमारी बेटी जिन्दगी भर कँवरिए रहेगी!" पिताजी तैश में बोले।

माँ चिढ़ उठीं पिताजी की बात से, "आप तो बौरा गए हैं। लोग अबहिंये टोक रहा है हेतना, कल त जीने भी नहीं देगा। कोई लइका है कि जिन्दगी भर कुँवारा रह जाए और कोई पुछबो न करे? लइकी न है!"

पिताजी ख़ामोश हो गए। माँ ने ही चुप्पी तोड़ी, धीरे से बोलीं, "चार बीधा खेत बेच दिजिए। सादी त करना ही होगा।"

"कुछ नहीं होगा तो उहे करना पड़ेगा।" पिताजी ने गहरी निःश्वास के साथ कहा।

कहने को पिताजी कह तो गए, पर मैं जानती हूँ उस समय उनकी क्या मनोदशा रही होगी, कितना असुरक्षित महसूस कर रहे होंगे वे! गाँव में कुल जमा छः-सात बीघा ही तो खेत थे हमारे पास, वह भी एक खेतिहर को साल में तीस-पैंतीस मन अनाज के बदले दिए हुए थे। गाँव का मकान ख़ाली था, उससे आमदनी होने का सवाल ही नहीं था। अनाज बेच कर जो चार-पाँच सौ रुपए मिलते थे उनसे साल में एक बार आर्थिक संकट की जकड़ कुछ ढीली पड़ जाया करती थी। पहली लड़की के ब्याह में ही ज़मीन खो देने की बात पिताजी के लिए कितनी त्रासदायी सिद्ध होगी, यह मैं अच्छी तरह समझ रही थी। फिर, बाक़ी दो लड़कियों का क्या होता? उनकी भी तो शादी होनी थी। 

पर माँ ने जो बात कही थी, वह भी सच थी। पुरुष आजीवन कुँवारा रह कर भी सभी आनन्द प्राप्त कर सकता है, उसके परिवार की शान में धब्बा नहीं लगता। लेकिन स्त्री किसी पर-पुरुष के सामने मुस्करा दे तो उसके बाप-भाई की टोपियाँ सैंकड़ों पैरों तले कुचली जा सकती हैं। उसे तो मर्यादा का पालन करना ही चाहिए।

माँ की कठिनाई-परेशानी बेटी को उतना विचलित नहीं कर पाती, जितना पिता के माथे की एक शिकन कर देती है। पिताजी की व्यथा मुझसे सही न गई। मैंने इस बारे में बहुत सोचा। एक बार मन में आया कि सचमुच जीवन-भर अविवाहित रह जाऊँ, लेकिन फिर जब थोड़ी शान्त-संयत हुई तो लगा कि वैसा करना दूसरों के साथ-साथ अपने साथ भी धोखा होगा। अन्ततः मैं इस नतीजे पर पहुँची कि अपने विवाह की व्यवस्था मुझे ख़ुद ही करनी होगी, पिताजी पर आर्थिक भार बढ़ाना ठीक न होगा। उन्हें मानसिक दबाव से भी मुक्त रखना होगा। उन्हें मेरे आचरण के सम्बन्ध में शिकायत का कोई मौक़ा नहीं मिलना चाहिए, दुनियावालों के आगे उनका सिर झुकना नहीं चाहिए। 

अगले दिन अवसर देख मैंने पिताजी से कहा, "बाउजी, अभी तीन-चार बरस हम बियाह नहीं करना चाहते।" 

"बियाह नहीं करना चाहती? काहे?" पिताजी चौंके।

"अइसे हीं," मैंने अँगूठे से फ़र्श कुरेदते हुए कहा।

"अइसे हीं माने का होता है? कुछ तो मन में होगा न तुम्हारे?"

"कौनो खास बात नहीं है। हम सोचते थे के अनुरागो बी ए कर के नौकरी करने लगे, तब ई बारे में सोचा जाए।"

"ओ...!" पिताजी कुछ सोचने के बाद बोले, "लेकिन अनुराग के नौकरी करने से कौन बड़का बात हो जाएगा? आऊ तब तक तुम घर बैठले-बैठले क्या करोगी? तुम तो नौकरी करोगी नहीं।"

"ऑफिसवाला नौकरी नहीं करेंगे। कल उर्मिला कह रही थी के आदर्स गर्ल्स इस्कूल में एगो टीचर का भेकेन्सी है। बोली के हमको मिल सकता है ऊ जगह।"

आदर्श गर्ल्स स्कूल का नाम सुन कर पिताजी को कुछ राहत मिली, बोले, "उहाँ तो सान्ति देवी हेड मिस्ट्रेस हैं?"

"हाँ बाउजी," मैंने उत्साह से कहा।

"ऊ तो बड़ी अच्छी हैं। ओंहा काम करने में बुराई नहीं होगा।"

"तो उनसे मिल लें, बाउजी?"

"मिल ले।" फिर कुछ सोच कर बोले, "अनुराग तो दुइये बरस में बी ए पास कर जाएगा। तुम तीन-चार बरस का बात काहे कर रही हो?"

"काहे? हम दू बरस एक्सट्रा नहीं रह सकते आपके पास?" मैंने लाड़ से कहा।

"हमारा बस चलता तो तुमको हमेसा पास रखते। लेकिन ..." बोलते-बोलते उन्होंने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया, पर स्वर की थरथराहट ने उनकी मनःस्थिति की चुगली कर दी। मेरा मन भी दुःखी हो गया। पिताजी की कलाई को धीमे से स्पर्श कर मैं बोली, "तीन-चार साल की बात हम इसलिए बोले न, के ओतना दिन में हम दूनों भाई-बहिन सात-आठ हजार तो कमइये लेंगे। दू-तीन हजार का ब्यबस्था हइये है। त बियाह में पैसा का कमी नहीं रहेगा। अऊर उसके बाद तो अनुराग का दहेज से कान्ति, आउ सुकुमार का दहेज से रेवा पार लगिए जाएगी। बस, अभी हम ही हैं जो परेसानी का जड़ हैं।"

पिताजी ने मेरे सिर पर हाथ रख आँखों में आँखें डाल कर कहा, "ना! अइसा कभी मत कहना। तुम्हारे-जैसा बेटी से परेसानी होगा हमको? अउर, जमीन बेच कर ही तुम्हारा सादी हो जाएगा। उसके लिए तुमको नौकरी ..."

मैंने बात काट दी, "नहीं, बाउजी। थोरे से तो जमीन बचल है। उहो बिक गया त? आउ फेर हमको पढ़ाने में अच्छो लगेगा।"

"त ठीक है। सान्ति देवी से बात करके देखो।" पिताजी ने स्वीकृति दे दी।  

अगले दिन मैं डरती-डरती शान्ति देवी से मिलने गई। मेरा शिक्षिका बनने का इरादा जान कर उन्हें ख़ुशी हुई। जैसे-जैसे बातचीत होती गई, मेरी झिझक भी मिटती गई। आधे घण्टे बाद हम आत्मीयों की तरह बात कर रहे थे। उसी दौरान शान्ति देवी ने एक राज़ ख़ोला। स्कूल का सेक्रेटरी अपनी परिचित लड़की को शिक्षिका के रूप में स्वीकार करने के लिए उन पर ज़ोर दे रहा था, पर शान्ति देवी को वह लड़की उपयुक्त नहीं लग रही थी। न तो उसकी शैक्षिक योग्यता अच्छी थी और न ही उसका आचरण।

मैं सहम गई। कहाँ तो मैं नौकरी अपने हाथ में आई ही समझ रही थी, और कहाँ यह बला सिर आ पड़ी! 

"जब सेक्रेटरी साहब का अपना प्रत्यासी है, तो हमारे लिए मान जाएँगे?" मैंने सहमते-सहमते पूछा।

"तुम चिन्ता मत करो। हम हैं न!" शान्ति देवी आश्वासन देती हुई कहने लगीं, "हम मैनेजिंग कमेटी को बेसी हसतच्छेप नहीं करने देते। सुरू से ही हम इस्कूल के असली प्रिंसिपल हैं, कोई डमी नहीं हैं। इस्कूल के भीतर का सब जिम्मेदारी हमारा है, उनका कार्जछेत्र इसके बाहर का है। पाँचे साल में इस्कूल का नाम हो गया है, इसलिए सब हमारी बात मानता है।"

शान्ति देवी की बात एक बार फिर मान ली गई। चार दिनों में ही मुझे सेक्रेटरी द्वारा हस्ताक्षरित नियुक्तिपत्र मिल गया।    

आदर्श गर्ल्स स्कूल में कुछ ही दिनों की नौकरी में मुझे प्रशिक्षित होने का अनुभव होने लगा। मेरी प्रशिक्षिका थीं शान्ति देवी। ऐसी महिला का साथ पाकर मैंने अपने को धन्य माना। वे अपने-आप में एक आदर्श संस्था थीं। वैसे तो शिक्षिकाओं तथा छात्राओं की हर सुविधा का ख़याल रखतीं, पर पढ़ाई में ग़फ़लत और अनुशासन में ढिलाई उनकी बर्दाश्त से बाहर थी। जानबूझ कर ग़लती करनेवाली शिक्षिका और छात्रा के लिए रियायत नहीं थी उनके स्कूल में, न ही ऐसे लोगों के लिए किसी अपील या सिफ़ारिश की व्यवस्था थी। वे सारे शहर में प्रसिद्ध थीं अपनी कड़ाई के लिए, किसी की क्या मज़ाल कि उनके सामने चूँ भी करता! दूसरी ओर, घर में वे आदर्श गृहिणी थीं। बर्तन माँजने और पाक कला में उनकी दिलचस्पी देख कर अंदाज़ लगाना मुश्किल था कि वे फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट एम ए और बी टी टॉपर होंगी। उनके सामान्य ग्रैजुएट पति एक दफ़्तर में मामूली क्लर्क थे, पर शान्ति देवी सदा उनके आगे सौम्य-शांत-आज्ञाकारिणी बनी रहतीं। 

शान्ति देवी को मैंने अपना आदर्श मान लिया। मैंने अधिक-से-अधिक निकट रह कर उनकी चिन्तन-धारा, कार्य-कलाप और परिस्थितियों से निपटने के ढंग का अध्ययन आरम्भ कर दिया। उन्होंने भी मुझे छोटी बहन की तरह अपनाया और मेरा पथ-प्रदर्शन करने लगीं। लेकिन छः महीने ही बीते होंगे कि एक अनहोनी घट गई।

एक रविवार सवेरे-सवेरे मौसाजी एक अपरिचित युवक के साथ आ धमके। मेहमान के आने पर तो यूँ भी चहल-पहल हो ही जाती है, फिर यह तो वह मौसाजी थे जो हमारी चिन्ता करते थे, हमें अपने बच्चों की ही तरह प्यार करते थे। ऊपर से एक अजनबी आगंतुक भी साथ थे। रसोईघर में बर्तन की झनझनाहट, सिल-बट्टे की खटर-पटर, और अन्य क्रियाकलाप आम दिनों के मुक़ाबले दस गुना बढ़ गए। दोनों भाई बारी-बारी बाज़ार दौड़ने लगे और माँ चूल्हे के आगे जम गईं। कान्ति और रेवा की व्यस्तता का भी ठिकाना न था, वे एक पल रसोईघर में होतीं तो दूसरे पल बैठकख़ाने में जहाँ पिताजी, मौसाजी और आगंतुक महोदय विराजमान थे। पर मेरी अवस्था इन सबसे  विपरीत थी। मौसाजी के आगमन के कोई आधा घण्टा बाद ही पिताजी ने माँ से न जाने क्या खुसुर-पुसुर की थी, और मुझे सजा-धजा कर दादीजी के साथ एक कमरे में बिठा दिया गया था। मतलब ज़ाहिर था, फिर भी मैंने दादीजी से पूछा, "कउन आया है, दादी? आउ हमको बन्दी काहे बना दिए हो तुमलोग?"
दादीजी विहँस पड़ीं, लगभग फुसफुसाती हुई बोलीं, "दिल्ली से आइल बा लइका। सरकारी नउकरी कर ता।" और फिर छप्पर की ओर आँख उठा, आँचल पसार कर कहने लगीं, "हे भगबान्! कोप बन्द करीं, लाज रखीं हमार। अँधियार हटाईं हमार चाँदनी के ऊपर से!"

उनके इन शब्दों ने मुझे बरबस हँसा दिया। मैं बोली, "कुच्छो जवाब दिए भगबान्? कोप कम करे का टाइमटेबिल लिखा दिए?"

"तूँ बस हें-हें-हें करत रह! का जाने का पढ़ले बाड़ी आउ का पढ़ाव ताड़ी। भगबान् से ठिठोली कइल जा ला? आउ भगबान्जी से ना माँगीं त केकरा से माँगीं? तहार सान्तिदेबी से?" दादीजी ने आँखें विस्फारित कर तनिक ग़ुस्से में पूछा।

"ठिठोली नहीं कर रहे हैं, दादी! हम त बस पूछ रहे हैं के भगबान्जी कुछ बोले?"

"अरे भगबान्जी न कहस बाकि हमार दिल त कही नू? आऊ दिल में के रहे ला? भगबाने न?" 

"लेकिन दादी, तुम त दिल के भगबान् से नहीं, छप्पर के भगबान् से माँग रही थी!" मैंने उनकी आँचल पसार कर मन्नत माँगने की नक़ल उतारी।

"छोड़ त आपन डड़ामा!" दादी हँसते हुए बोलीं। "तूँ न समझबू। अच्छा ई बता, लइकवा देखे में ठीक बा नूँ?"

"बाह, दादी! बाहर गईं तुम, गोड़ छुलवा के आईं तुम, आउ पूछ रही हो हमसे। हम कहाँ देखे ठीक से?"

"हाँ!... कोसिस त कइनीं ठीक से देखे के, बाकि अँखवा कमजोर नू बा!... बाकी बुझाइल त ठीके।"

"दादी! बेसी मोह मत बढ़ाओ। अगर तुमको बहुत पसन्द आ गया और फेर कन्धा झटकारते चल गया, तो बड़ी सदमा लगेगा।"

"ना! हमार आतमा कह ता। ई बार बात बन जाई।"

तभी माँ कमरे में आईं और दादीजी से बोलीं, "माँ, लड़िका परतू को देखना चाहता है। इसके हाथ से नस्ता भेजवा देते हैं। ... आप भी वहीं बैठिए! के नहीं?"

"ना, अब हम का बैठब! बाप-मौसा दूनो बैठले बाड़न। ठीक बा। भेजाव नस्ता। अउर सुन, केतना माँग ता?"

"बोलता है कि कुच्छो नहीं लेगा। खाली लड़की चाहिए।" माँ के स्वर में आह्लाद फूटा पड़ रहा था।

"जय बाबा भोलेनाथ! जय महादेबजी! ई रिस्ता हो जावे के चाहीं। अइसन रिस्ता फेर ना आई। जा बेटी! ठीक से बोलिह-बतिअइह होइजा। उजबक नियर मत करे लगिह!" दादीजी ने एक ही साँस में भगवान् को धन्यवाद और मुझे चेतावनी दे दी।

बैठक में मिठाई का थाल ले जाते समय मेरे पैर काँप रहे थे और निगाहें फ़र्श से उठने का नाम ही नहीं ले रही थीं। अपना ही घर मुझे अपरिचित-सा लग रहा था। बड़ी चौकी, जिस पर मैं बचपन में पिताजी के साथ सोती-खेलती थी, दप-दप सफ़ेद चाहर से ढँकी किसी नाटक का मंच लग रही थी। उस मंच पर मौसाजी और आगंतुक एक ओर, और पिताजी दूसरी ओर आमने-सामने पालथी मारे बैठे थे, बीच में नाश्ते की थालियाँ धरी थीं। ख़ाली पड़ी चारों-पाचों कुर्सियाँ मुँह ताक रही थीं। मैंने हौले से पिताजी के पास थाल रखा, और मुड़ कर जाने लगी। तभी पिताजी ने अपनी बगल में इंगित कर कहा, "आओ, बैठो! ई है परतिमा, आउ ई हैं बिमल बाबू! दिल्ली से आए हैं।"

मैं हाथ जोड़ कर बुदबुदाई, "परनाम!" विमल बाबू ने भी जवाब में हाथ जोड़े, और हमारी निगाहें मिल गईं।

पिताजी ने फिर कहा, "बैठो!"

मैं पैर नीचे लटकाए उनकी बगल में छुई-मुई-सी बैठ गई।

"त अब सुरू किया जाए, भाई साहेब! जलपानो होता रहेगा अउर बार्तालापो चलेगा।" मौसाजी ने अकारण हँसते हुए कहा।

"काहे नहीं! लिजिए मेहमान!" कह कर पिताजी ने अनाड़ी की तरह एक थाल विमल बाबू की ओर बढ़ाने की चेष्टा की। मौसाजी ने थाल को झट सम्भाला, और मुस्कराते हुए नमकीन का एक टुकड़ा चुनते-चुनते विमल बाबू बोले, "आप भी लीजिए!"

मेरा पल्लू से ढँका सिर झुका था, आँखें फ़र्श में तस्वीरें उकेर रही थीं, और बदन पसीने में भींग रहा था। 

पिताजी बोले, "लो बेटा। तुम भी कुछ लो।"

मौसाजी ने सुर-में-सुर मिलाया, "हाँ, हाँ! खाली खिलातिए रहोगी? तुम भी मुँह जूठा कर लो।" फिर विमल बाबू से बोले, "इसको बचपने से बहुत सौक है सबको खिलाने का। हमको त जब खिलाती है, लगता है पेटे फट जाएगा।" वे फिर हँसने लगे।

मैंने थाल की ओर चुपके से हाथ बढ़ाया और बर्फ़ी का सबसे नज़दीक पड़ा टुकड़ा उठा लिया। 

कनखियों से देखा, पर्दे के उस ओर माँ और कान्ति खड़ी थीं। बिना देखे ही यह आभास भी हो गया कि विमल बाबू मुझे ही निहार रहे थे।

"बी ए में आपके क्या सबजेक्ट्स थे?" विमल बाबू की हिन्दी में बिहारी खिंचाव ज़रूर था, पर उनका उच्चारण काफ़ी शुद्ध था। अपने बिहारी लहजे को भरसक छुपाते हुए मैंने धीमे से उत्तर दिया, "जी, इंगलिस लिटरेचर, हिन्दी लिटरेचर, अउर इकोनोमिक्स।"

"दैट्स वेरी नाइस! बाइ द वे, इंगलिश में आपने कितने मार्क्स सेक्योर किए थे?"

"फिफ्टी-फाइब परसेन्ट।" मैंने भी हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी में जवाब दिया।

"ऐक्सलेंट, वेरी गुड! मेरा खयाल है, स्पोकन इंगलिश भी ठीक ही होगी आपकी। व्हाट डू यू से?"

"जी, अभ्यास नहीं है। इहाँ अंग्रेजी बोलने का मौका कमे मिलता है।" मैं बुदबुदाई।

"दैट्स करेक्ट। यहाँ तो लोग हिन्दी भी..." बात बीच में ही रोक कर विमल बाबू पिताजी और मौसाजी की ओर देख कर मुस्कराए, "वेल, डज़न्ट मैटर! सुना है, आप टीचर हैं किसी स्कूल में?"

"जी! लड़कियों का एक इस्कूल है, उसी में पढ़ाते हैं।"

"डू यू रिइली लाइक दिस प्रोफ़ेशन, आई मीन टीचिंग?"

मेरी गर्दन पर पसीने की बूँद चुहचुहा आई। विमल बाबू तो अंग्रेज़ी बोले बिना मान ही नहीं रहे थे। मैंने सिर हिलाते हुए कहा, "अच्छा ही है। हमको बुरा नहीं लगता।"

"फिर तो पेशेन्स बहुत है आपमें।" और वे पिताजी से हँसते हुए बोले, "मुझे तो कँपकँपी होने लगती है पढ़ाने के नाम से।"

उनकी हँसी से मौसाजी का मनोबल और बढ़ गया था। झट से बोले, "अरे, बड़ी गुनी है पड़तिमा!"

"अच्छा!" विमल बाबू को मज़ा आने लगा। "खाना बनाना तो आता ही होगा आपको। उसके बारे में कुछ पूछना ही बेकार है। अगर पूछना भी चाहूँ, तो मुझे खुद नहीं मालूम कि आटा कितने पानी में सानते हैं, और रोटी जल कैसे जाती है।"

वे तीनों हँस पड़े। इसी बीच पर्दे के पीछे से रेवा का अस्पष्ट स्वर उभरा, "माँ! दीदी मिठइया खा काहे नहीं रही है? कब से हाथे में धइले है।" जवाब में माँ की घुड़की, "चुप!" भी सुनाई दी, पर शायद तीनों पुरुष अपने अट्टहास के बीच यह टिप्पणियाँ नहीं सुन सके। 

मैं धीमे से मुस्करा दी। पिताजी विमल बाबू से बहुत प्रभावित नज़र आ रहे थे।

विमल बाबू ने बात जारी रखी, "सीने-पिरोने, बुनाई वगैरह के बारे में भी मैं कम्पीटेण्ट अथॉरिटी नहीं हूँ। इसलिए इन बातों को भी गोली ही मारनी चाहिए। हाँ, आपकी आवाज बताती है कि आपको शायद गाने-बजाने का शौक है। क्या-क्या बजा लेती हैं आप?"

हँसी-मज़ाक़ के माहौल में मेरी झिझक कुछ कम हो गई थी। मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया, "ताली!"

मेरे जवाब पर विमल बाबू बड़ी देर तक खिलखिला कर हँसते रहे। मौसाजी और पिताजी भी चुप न रह सके। हँसी का वेग थमने पर विमल बाबू बोले, "वेल, यू हैव ए वेरी गुड सेन्स ऑफ़ ह्यूमर। आइ हैव ऐप्रिशिएटेड इट लाइक एनीथिंग। यू विल अनडाउटेली प्रूव ए नाइस कम्पनी। खैर! गाने का शौक तो आपको होगा ही।"

"जी, थोड़ा-थोड़ा!"

"बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर! आज जब कभी मूड बने, ऐंड ऑफ़ कोर्स इफ़ यू डोंट माइण्ड, हमें कोई गाना सुनाइएगा। क्यों? अच्छा, अब आप जो कुछ जानना चाहें मेरे बारे में, पूछ सकती हैं।"

मैंने कुछ नहीं पूछा, सिर वापस झुका लिया।

विमल बाबू ने मुझे टोका, "हेज़िटेट बिल्कुल मत कीजिए। जो कुछ पूछना चाहें, पूछिए। आखिर जिन्दगी-भर की बात है! शरमाने से कहीं काम चलता है।"

लेकिन फिर भी मैंने कुछ न पूछा, तो उन्होंने स्वयं ही कहना आरम्भ कर दिया, "अच्छा, आप लोग मत पूछिए कुछ। मैं खुद ही बता देता हूँ, जो कुछ जानने-लायक है। हाँ, तो बात यह है कि मैं बचपन से ही थोड़ा शरारती हूँ, इसलिए बी ए थर्ड डिविज़न में पास किया और पी सी एस में फ़ेल होने के बाद गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया में यू डी सी लग गया। कुल मिला कर पौने दो सौ रुपए मिलते हैं। एक कमरा ले रखा है तीस रुपए में, बस वही अपना राजमहल है। उम्र मेरी पच्चीस है और खयालात बिल्कुल मॉडर्न हैं। पिछड़ापन मुझे पसन्द नहीं है। और हाँ, ए वेरी इम्पॉर्टेण्ट थिंग। यू मस्ट नो दिस। दो साल पहले मेरी शादी हुई थी और तेरह महीनों से मैं विडोअर हूँ। ऑफ़ कोर्स, ऐन इशूलेस विडोअर। अब अगर आपलोग चाहें तो शादी कर सकते हैं, वरना ... आई डोण्ट माइण्ड ऐट ऑल। मैं तो आपको यही सलाह दूँगा कि अच्छी तरह सोच-विचार लें, किसी के दबाव में न आएँ।"

मैंने बर्फ़ी का टुकड़ा वापस थाल में रख दिया और थोड़ी देर बाद किसी बहाने से अन्दर चली आई। विमल की और सब बातें तो मुझे स्वीकार्य थीं, पर उसका विधुर होना मेरे गले नहीं उतर रहा था। हालाँकि उसकी कोई सन्तान नहीं थी, फिर भी न-जाने-क्यों मुझे लगा जैसे मेरे सामने जूठी थाली ठेल दी गई हो। दिन-भर मैं इसी उधेड़-बुन में पड़ी रही, तरह-तरह से मन को समझाती रही, पर मन कोई अबोध बालक तो है नहीं जिसे झुनझुना पकड़ा कर शान्त कर दिया जाए। माँ ने समझाया, दादीजी ने तरह-तरह से बहलाया, लेकिन बात मेरे गले के नीचे न उतरी। मैंने दोनों को यही जवाब दिया, "आप सब ठीक कह रही हैं, लेकिन हम ई कइसे भूल जाएँ कि ओ बिधुर हैं?"

सबने समझ लिया कि मुझे रिश्ता स्वीकार नहीं। मेरी हठधर्मी पर उन्हें खीझ और अफ़सोस हो रहा था। फिर भी, अगले दिन पिताजी ने निराशा से पूछा, "तो इन्कार कर दें?"

मेरे मन ने न-जाने कैसा मोड़ खाया। मैं बोल पड़ी, "नहीं, बाउजी! बात पक्का कर दिजिए!"

"लेकिन तुमको तो रेस्ता पसन्द नहीं है?" पिताजी चौंकते हुए बोले।

"बाउजी, हमको न, ऊ बिधुर-बाला बात थोरा खराब लगा था, पर इसमें उनका का कसूर है? ऊ त सब बात बेपुछले साफ-साफ कह दिए हैं।"

हरी झण्डी मिलने पर गाड़ी क्यों रुकी रहती? बड़ी तेज़ी से शुरू हो गईं तैयारियाँ और बीस दिनों के अन्दर मैं श्रीमती विमल बन कर दिल्ली आ गई।

– क्रमशः

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

नाटक

किशोर साहित्य कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

एकांकी

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. उसने लिखा था