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मुहल्ले में मौत

सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार पढ़ना शुरू ही किया था, कि पत्नी का फ़रमान सुनाई पड़ा - "सुनो!"

आवाज़ दूर से आई थी, शायद वह बालकनी में थी। ज़रूर किसी बेतुके-से काम के लिए बुला रही होगी। पता नहीं, उसे कपड़े सुखाने वाली रस्सी के कसने, रसोई गैस के सिलेण्डर को खिसकाने, या एयर कन्डीशनर के कवर से धूल झाड़ने जैसे ऊल-जलूल कामों के लिए सुबह का समय ही क्यों सूझता है। आदमी घण्टे-दो घण्टे चैन से अख़बार पढ़ ही लेगा, तो क्या कोई आफ़त आ जाएगी? मैं सुनी अनसुनी कर ही रहा था, कि उसने दोबारा आवाज़ लगाई, "इतनी देर क्यों लगा रहे हो? जल्दी आओ!"

"वहीं से बोलो, क्या बात है?" मैंने झल्लाते हुए कहा।

"तुम कर क्या रहे हो?"

"दुनिया-जहान की ख़बर पढ़ रहा हूँ, बेकार में समय बरबाद नहीं कर रहा।"

"दुनिया-जहान की ख़बर पढ़ना बाद में। पहले मुहल्ले में अपने पड़ोसी की ख़बर तो जान लो। पुलिस आई हुई है। ज़रूर गुप्ता के वहाँ कुछ हुआ है।"

मैं चौकन्ना हो गया। मेरी पत्नी भले ही घोड़े बेच कर सोये, पर मेरी नींद तो ज़रा-सी आहट से भी उचट जाती है। मुझे याद आया, कल रात दो-तीन बार कुत्ते की रिरियाहट से नींद टूटी थी। हर बार मैं यह सोच कर दुबारा सो गया था कि सड़क का कोई आवारा कुत्ता ठंड की वजह से रो रहा होगा।

मैं लपक कर बालकनी में गया, और पत्नी को यह जानकारी दी। उसकी आँखें हैरत से गोल हो गईं। बोली, "ज़रूर वह गुप्ता का कुत्ता रहा होगा ..."

मैंने बात काटी - "लेकिन यह गुप्ता कौन है?"

वह बोलती रही - "... काला, मोटी-सी पूँछ वाला ..."

मैं चकराया - "हैं, गुप्ता को पूँछ भी थी?" फिर ग़लती समझ में आते ही बोला, "ओह, वह कुत्ता! पिछले साल ही तो आया था न, छोटा-सा बच्चा, दुकानदार गुप्ता के घर में।"

पड़ोसन भी बगल के फ़्लैट की बालकनी में आकर जम गई थी। उसने हमारी ओर देख कर धीरे से कहा, "लगता है, मर्डर हुआ है।"

मुझे गुप्ता बिलकुल भी पसन्द न था। भरी गर्मी में भी भूरे रंग की बण्डी पहन कर अपनी दुकान में बैठा रहता था। उसके चेहरे पर मुर्दनी छायी रहती थी, और वापस करने को फुटकर पैसे तो उस कंगले के पास कभी होते ही नहीं थे। पैसे वापस करने की बजाय हमेशा यही टका-सा जवाब देता था - "बाक़ी पैसे बाद में ले जाना, या एक अण्डा और ले जाओ।"

मैंने पत्नी से फुसफुसाकर कहा, "अच्छा हुआ, मर गया साला खड़ूस!"

उसने आँखें तरेरी, "जानेवाले के बारे में बुरा नहीं कहते। अगर उसकी आत्मा यहीं कहीं भटक रही हो और बुरा मान कर हमसे बदला लेने पर उतारू हो जाए, तो?"

तब तो भारी विपत्ति आ जाएगी! हर दुकानदार मेरे फुटकर पैसे वापस करने की बजाय मुझे अण्डे देने लगेगा, और मुहल्ले के बच्चे मुझे ’अण्डेवाले दादाजी’ कहकर पुकारने लगेंगे। ऐसे विशेषण का ग़लत अर्थ भी लगाया जा सकता है, जो मेरी मनोवांछित छवि के बिलकुल विरुद्ध होगा।

"तुम एकबार नीचे जाकर देख क्यों नहीं आते?" पत्नी ने आग्रह किया।

"जब यहाँ से सबकुछ साफ़-साफ़ दिख ही रहा है, तो नीचे जाने की क्या ज़रूरत?" मैंने तर्क प्रस्तुत किया।

"किस तरह के आदमी हो तुम? आज हम मुहल्लेवालों के दुःख-दर्द में साथ नहीं देंगे, तो कल हमारा साथ कौन देगा!" उसने चिन्ता व्यक्त की।

मन में आया कि पूछूँ, उसे कैसे पता लगा कि कल हमारे घर में कुछ उलटा-पुलटा होने वाला है। लेकिन फिर पत्नी से बहस में उलझने की बजाय नीचे सड़क पर नीम तले सिगरेट के क़श का मज़ा लेने का विकल्प मुझे अधिक विवेकपूर्ण लगा। मैं सीढ़ियाँ उतरकर सड़क पर आ गया।

गुप्ता का घर ग्राउन्ड फ़्लोर पर था। उसके फ़्लैट के आगे एक छोटा-सा बाग़ीचा था, जिसमें मैंने अक्सर मसालों और अनाज के थाल धूप सेंकते देखे थे। उसने फ़ुटपाथ के कुछ हिस्से को बाँस और कटीले तार से घेर कर दख़ल कर लिया था, और उसमें सब्ज़ियाँ उगाता था। पैसेवाला था, चाहता तो घर के सामने मोटरगाड़ियों की क़तार लगवा लेता, लेकिन उस मक्खीचूस ने स्कूटर और मोटरसाइकिल से बढ़कर कभी कुछ ख़रीदा ही नहीं। इस समय भी उसके घर के आगे उसकी दो मोटरसाइकिलें खड़ी थीं, और उनकी बगल में पुलिसवाले की मोटरसाइकिल भी पार्क्ड थी।

"जैसे देवता, वैसी पूजा!" मैंने मन-ही-मन सोचा। किसी बड़े आदमी का क़त्ल हो जाए तो लाल बत्तियाँ चमकाती, सायरन बजाती, पुलिस की गाड़ियों की लाइन लग जाए। पर गुप्ता-जैसे कंजूस साहूकार के लिए सरकार ने भी हाथ दबा कर ही काम किया, बस एक मोटरसाइकिलसवार भेज कर काम चला लिया।

"मर्डर, साऽऽर!" किसी ने पीछे से मेरा ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा की। मैंने देखा, जोज़फ़ था। वह सदा मुस्कराता रहता है, पर मुझे उससे चिढ़ है। काला, लम्बा, पतला जोज़फ़ अपने को बड़ा चालाक समझता है और हमेशा दूसरों को उल्लू बनाने के चक्कर में लगा रहता है। जैसे ही कोई उसके जाल में फँस जाता है, वह अपने भारी जबड़ों और सफ़ेद दाँतों को भींच कर ऐसी हँसी हँसता है कि मेरी देह गनगना जाती है। इसलिए, मैं उससे थोड़ी दूर ही रहता हूँ।

मुझे ठिठका देखकर जोज़फ़ पास आकर फुसफुसाया, "मर्डर! मय जानता था, कोई इतना जादा गडबड करेगा तो एक न एक दिन उसका मर्डर तो ओगा।"

"किसका मर्डर हुआ है? गुप्ता का या कुबड़े का?" मैंने पूछा।

गुप्ता का लड़का कुबड़ा था। जब भी वह छोटी सी नैनो कार में अण्डों के क्रेट और डबलरोटी के गट्ठर लिए गुप्ता की दुकान पर आता, उसके कन्धों और गाड़ी की सीट के बीच आठ इन्च का फ़ासला देखकर मैं सोच में पड़ जाया करता था कि वह सीट बेल्ट बाँधता कैसे होगा।

"मय अन्दर जा कर नहीं देका। फ़ुल्ल ऑव ब्लड्ड।" जोज़फ़ ने ऐसा मुँह बनाया जैसे उसने नाश्ते की प्लेट में इडली-साँभर पर बिलबिलाती छिपकली देख ली हो।

"हूँ," कहकर मैं नीम के पेड़ की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मर्डर का मामला है, पता नहीं कौन-सा जासूस कहाँ से झाँक रहा हो। जल्दी-जल्दी चलने से पुलिस को कहीं बिलावजह शक़ हो गया और मैं नाहक ही ग़िरफ़्त में आ गया, तो हवालात में रात काटनी पड़ेगी और पुलिसवालों के सोटे भी खाने पड़ेंगे।

पेड़ के नीचे आकर मैंने सिगरेट सुलगाई, एक गहरा क़श लिया, और उसके तने को इतने ग़ौर से देखने लगा मानो उसमें सांकेतिक भाषा में गुप्ता के क़ातिल का नाम खुदा हो। यह पेड़ गुप्ता के घर से सुरक्षित दूरी पर स्थित था। अगर कोई पुलिसवाला घर के दरवाज़े से यहाँ खड़े किसी आदमी को इशारे से बुलाता, तो "कौन-कौन" पूछकर और बात समझ में न आने का बहानाकर धीरे से खिसका जा सकता था। मुहल्ले के कुछ और लोग भी पास ही खड़े थे। मैंने कान लगा कर उनकी बातचीत सुनने की कोशिश की।

"पैसा बहुत था उसके पास। मोटिव फ़ॉर मर्डर तो क्लियर है।" कुमार साहब टाँग खुजलाते हुए कह रहे थे।

"यस्स, नो डाउट! इतने साल से दुकान चला रहा था। साला फटीचर-जैसा रहता था तो क्या हुआ, पैसा तो इकट्ठा किया ही होगा।" शर्माजी का मन्तव्य था। यह बात दूसरी है कि वे ख़ुद भी भिखारियों-जैसे चश्मे, बेडौल कमीज़, और बदरंगी पतलून में कोई राजा-महाराजा नहीं दीख रहे थे।

"वह तो है ही! जब भिखारियों के मरने पर ही छुपाए हुए करोड़ों रुपये मिल जाते हैं, तो फिर ये तो रिस्पेक्टेबल बिज़नेसमैन थे।" चड्ढा साहब ने बात जोड़ी।

मैंने सिगरेट का आख़िरी क़श ले कर उसे चप्पल तले मसला, गुप्ता के घर की ओर चोर दृष्टि डाली, और चड्ढा के पास आते हुए पूछा, "हुआ क्या है?"

जवाब जोज़फ़ ने दिया, "लगता ए, कुच तो उआ ए!"

पाँच मिनट पहले इसी जोज़फ़ ने बड़े आत्मविश्वास के साथ मुझे मर्डर का ब्रेकिंग न्यूज़ दिया था, और अब यही ऐसे बात कर रहा था जैसे इसे घटना के बारे में कोई ख़ास जानकारी ही नहीं हो। मैंने जोज़फ़ को हिक़ारत की नज़र से देखा।

चड्ढा साहब ने जोज़फ़ की बात पर ध्यान न देते हुए कहा, "गुप्ता के घर आज सुबह चार बजे के क़रीब कुछ अनटुवर्ड इन्सिडेन्ट हो गई है। पुलीस आई हुई है।"

मैं कुत्ते के भौंकने की बात बताने ही वाला था कि समय रहते अक़्ल आ गई। बेकार में जानकारी देने से क्या फ़ायदा? अगर पुलिस ने जाँच-पड़ताल के लिए बुला लिया कि "सच-सच बोलो, और क्या-क्या जानते हो, और क्या-क्या छुपा रहे हो," तो मेरी जान तो साँसत में आ जाएगी। भगवान् ने दो कान और एक मुँह इसीलिए तो दिया है न कि आदमी जितना सुने, उसका आधा बोले? और, मुझे यह भी तो पता नहीं था कि वह कुत्ता सचमुच गुप्ता के घर में ही रो रहा था या दूर कहीं किसी घूरे पर। मैं तो तकिये से कान दबा, करवट बदल कर दुबारा सो गया था।

अनजान बनते हुए मैंने पूछा, "ओह! चोरी-वोरी हो गई क्या? चलिए, चलकर देखते हैं।"

चड्ढा साहब ने सिर को झटका देकर ललाट पर बार-बार बैठ रही मक्खी उड़ाई, और बोले, "अरे नहीं, आ बैल मुझे मार क्यों करें? पुलीस तो आई ही हुई है। वैसे भी, मुझे लगता है, मामला कुछ ज़्यादा सीरियस है।"

शर्माजी से रहा न गया। बीच में ही टपक पड़े, "मुझको तो लगता है कि साले का मर्डर हो गया है।"

"गुप्ताजी के साले का मर्डर?" मैंने पूछा।

"नहीं, उसी साले गुप्ता का मर्डर हुआ है।" शर्माजी ने अपने दयनीय चश्मे के गन्दे शीशों के पीछे से आँखें झपकाते हुए कहा।

"ओह! यह तो बड़ी गम्भीर बात है। हमारे मुहल्ले में मर्डर होना ..."

शर्माजी ने मेरी बात काटते हुए सन्देह व्यक्त किया, "लेकिन अगर मर्डर हुआ होता तो नाते-रिश्तेदार आ जाते। आते कि नहीं, ऐंऽ? और, रोना-पीटना होना चाहिए था। यहाँ तो साला सन्नाटा है।"

"अगर घर के ही आदमी ने ख़ून कर दिया हो, तो रोएगा कौन? सब डर के मारे सटक सीताराम हो गए होंगे।" कुमार साहब ने अन्दाज़ लगाया।

"अरे, घर का आदमी तो किसी को शक़ न हो जाए, इसलिए और रोए-पीटेगा। हाँ, एक बात है!" चड्ढा साहब बोलते-बोलते मक्खी उड़ाने लगे।

हम सब उनकी ओर सवालिया नज़रों से ताकने लगे, लेकिन वे मक्खी ही उड़ाते रहे। आख़िर मुझसे रहा न गया, पूछ बैठा, "क्या बात है?"

वे बोले, "मेरी भी समझ में नहीं आ रहा। पता नहीं क्या बात है। इतने लोग हैं यहाँ, लेकिन यह मक्खी, पता नहीं क्यों, बार-बार मेरे सिर पर ही क्यों बैठ रही है।"

मैंने उन्हें याद दिलाया, "नहीं, नहीं, मक्खी के बारे में नहीं पूछ रहा। आप कह रहे थे न कि घर का आदमी किसी को शक़ न हो जाए इसलिए और ज़्यादा रोए-पीटेगा, लेकिन एक बात है ..."

"क्या बात है?" चड्ढा साहब ने पूछा।

"ओ बात तो आपई बोल रा ता पर बोलते-बोलते बोला नईं," जोज़फ़ ने अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में चड्ढा साहब को बात समझाई।

चड्ढा साहब ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर डाला, और बात याद आते ही बोल पड़े - "हाँ! मैं यह कह रहा था कि वैसे तो मुजरिम शक़ से दूर रहने के लिए ख़ुद ही सबसे ज़्यादा रोता-पीटता है, लेकिन अगर पुलीस को भी उसी ने बुलाया हो, तो ऐसी नौटंकी क्यों रचाएगा?"

"तो, मतलब, किसी घरवाले ने ही गुप्ताजी का..." कुमार साहब के होंठों से शब्द फिसल पड़े।

"अरे, किसी घरवाले ने क्या, उसी साले कुबड़े ने दाग़ दिया होगा। कुबड़े बहुत बदमाश होते हैं।" सर्वज्ञाता शर्माजी से भला कुछ छुपा रह भी कैसे सकता था!

"हाँ, मन्थरा भी कुबड़ी थी। कितना प्रपंच मचाया था!" कुमार साहब ने हामी भरी।

"और क्या, दशरथ की मर्डरर वही थी, इनडायरेक्टली।" शर्माजी तैश में आ गए थे।

मैं घबरा गया। कफ़ील आज़र ने एक ज़माने में कहा था कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी, लेकिन कलियुग में गुप्ताजी के मर्डर की बात त्रेता युग में दशरथ के मर्डर एलिगेशन तक चली जाएगी, इतना तो उन्होंने भी नहीं सोचा होगा। अब इस आरोप की पड़ताल में भी बरसों लगेंगे, पानी की तरह रुपया बहेगा, हज़ारों लोग बेघरबार होंगे, सैंकड़ों जानें जाएँगी, और मुट्ठीभर लोग सत्ता-सत्ता खेलेंगे।

"आ गिआ, रिलेटिव आ गिआ," गुप्ता के घर के सामने एक वैन रुकते देख जोज़फ़ ने घोषणा की।

आमतौर पर मातमपुर्सी करनेवाले गाड़ी से उतरते ही धाड़ें मारने लगते हैं, घरवाले भी उनसे चिपट-चिपट कर "क्यों हुआ, क्यों हुआ" की गुहार लगाने लगते हैं, लेकिन गाड़ी से उतरनेवाली महिलाएँ बड़ी शालीनता से, सूती कपड़े और जूट के झोले सम्भालते हुए घर के अन्दर दाख़िल हुईं। उनके घर में घुसने के बाद भी शान्ति व्याप्त रही।

"दो औरतें ही आई हैं। गुप्ताजी की वाइफ़ की साइड की होंगी।" कुमार साहब ने अंदाज़ लगाया।

"क्यों? उनकी अपनी साइड से भी हो सकती हैं। लेकिन ऐसे मौक़े पर तो किसी मर्द को आना चाहिए था।" चड्ढा साहब का मत था।

"बनती नहीं होगी साले की। लेकिन, फिर भी, बात कुछ समझ में नहीं आई।" शर्माजी सोच-विचार के महासागर में गोते लगाने लगे।

वैन के ड्राइवर ने धपाक से गाड़ी का दरवाज़ा बन्द किया, और कुछ चबाता-चबाता हमारी ओर आने लगा।

"कहाँ से आए हो?" शर्माजी ने कुछ इस तरह पूछा जैसे ड्राइवर से उनकी पुरानी पहचान हो।

लेकिन, शर्माजी की जान-पहचान एकतरफ़ा साबित हुई। ड्राइवर ने उनकी तरफ़ देखा तक नहीं, सीधा पेड़ की ओर बढ़ गया। पीक की एक लम्बी पिचकारी छोड़ी, और पेड़ के तने में एक तिनके से गोदना गोदने लगा।

शर्माजी कहाँ हार माननेवाले थे, इस बार ज़ोर से बोले, "ऐ! क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ से आए हो?"

"इनको ले के आए हैं रामबाग़ से।" ड्राइवर ने घर की ओर इशारा करते हुए अनमने स्वर से उत्तर दिया।

"कौन हैं ये लोग? गुप्ताजी की ससुराल से हैं क्या?" शर्माजी पूरी जन्मकुण्डली उतारने पर आमादा हो गए।

"अब हमको क्या पता कौन हैं? बोले चलो, हम चल दिए।" ड्राइवर ने चिड़चिड़ा कर कहा।

बगल से गुज़र रहा एक ऑटो-रिक्शावाला शर्माजी के पास आकर रुक गया, "कहाँ जाना है?"

"कहीं नहीं जाना।" शर्माजी बोले।

"अरे, बोलो तो सही। ले जाएँगे।" ऑटो-रिक्शावाले ने आग्रह किया।

"कहा न, कहीं नहीं जाना।" शर्माजी ने फिर कहा।

"मार्केट, स्टेशन, जहाँ भी जाना हो, ले चलेंगे, गाड़ी से सस्ता पड़ेगा। सब लोग आ जाओगे। आओ, बैठो, बैठो ।" ऑटो-रिक्शावाला रिक्शा रोककर हमें बुलाने लगा।

"अरे नहीं जाना है। मुहल्ले की मीटिंग कर रहे हैं।" कुमार साहब ने ऑटो-रिक्शावाले से पीछा छुड़ाने की नीयत से कहा।

"यहाँ खड़े-खड़े मीटिंग कर रहे हो? और कोई काम नहीं है क्या? वाह भई, बेकार में टाइम बरबाद कराया।" ऑटो-रिक्शावाले ने बुरा-सा मुँह बनाकर कहा।

शर्माजी आगबबूला हो गए - "तू जाएगा कि नहीं? एक मर्डर रात में हुआ है, और एक अभी हो जाएगा।"

ऑटो-रिक्शावाले ने ऑटो स्टार्ट किया, पर चलने से पहले कटाक्ष करता गया, "हा! हा! मर्डर करेगा। पहले कमीज़ और पतलून के बटन बन्द करना सीख लो, फिर मर्डर करना! मर्डर करेगा! हुँह!"

शर्माजी झेंपकर कमीज़-पतलून दुरुस्त करने लगे। चड्ढा साहब ने उन्हें ढाँढस बँधाया, "अनकल्चर्ड होते हैं ये, इनके मुँह नहीं लगना चाहिए।"

"हाँ, देखिए न, आकर ’चलो-चलो’ करने लगा। अरे भाई, हमने तुमको पुकारा है क्या? नहीं न? तो फिर? जब कहीं जाना होगा तो साले जाएँगे नहीं, और अभी जब नहीं जाना है तो साले खड़े होकर पंचायत कर रहे हैं।" शर्माजी का आक्रोश चरम सीमा स्पर्श कर रहा था।

अपने पर क़ाबू पाते हुए उन्होंने इधर-उघर देखा और बोल पड़े, "ये साला किधर गया?"

ड्राइवर वैन के पास खड़ा हो कर घर की ओर ताक रहा था। दोनों महिलाएँ वापस आ रही थीं। उनके साथ गुप्ता की पत्नी भी थी।

"देखो इसको, देखो! बुढ़िया के कपड़े, चूड़ियाँ सब कैसे चमक रहे हैं! साला, मर्द मर गया, और बीवी गुलछर्रे उड़ा रही है।" शर्माजी ने सड़क पर थूकते हुए कहा।

"हो सकता है, गुप्ता नहीं, कुबड़ा मरा हो।" मैंने शक़ ज़ाहिर किया।

"अगर सन की डेथ हुई हो, तो भी मदर तो शॉक्ड रहेगी। इस तरह नॉर्मल थोड़े ही रहेगी।" चड्ढा साहब बोले।

"अरे, इसका न, चक्कर चल रहा था," शर्माजी ने भेद भरे अंदाज़ में कहा, "ये मर्डर-वर्डर उसी चक्कर में हुआ है, समझ गए न!"

धपाक-धपाक गाड़ी के दरवाज़े बन्द हुए, और वैन हमारी बगल से लहराती निकल गई। गुप्ता की बीवी हमारी ओर एक नज़र डालकर घर के अन्दर चली गई। लेकिन उसके अन्दर जाते ही पुलिसवाला बाहर निकला। उसने मोटरसाइकिल स्टार्ट तो की, लेकिन वहीं खड़ा रहा। घर के अन्दर से धड़पड़-धड़पड़ करता गुप्ता बाहर आया, और उसने बण्डी की जेब से एक गड्डी निकाल कर पुलिसवाले को थमा दी। पुलिसवाले ने नोट गिने, और मोटरसाइकिल घुमा कर चला गया। गुप्ता थोड़ी देर तक हाथ जोड़कर इस तरह खड़ा रहा, मानो उसे पुलिसवाला अब भी वहीं दिख रहा हो।

बात शीशे की तरह साफ़ हो गयी थी। गुप्ता ने कुबड़े की जान ले ली थी, और पैसे देकर पुलिस का मुँह बन्द कर दिया था। क्या कुसूर था बेचारे कुबड़े का? यही कि उसका शरीर सामान्य नहीं था? और, गुप्ता की बीवी कैसी गलीज औरत थी जो अपने बेटे की हत्या पर आए लोगों को हँस-हँस कर विदा कर रही थी। इच्छा तो हुई कि किसी बड़े पत्रकार को फ़ोन कर सारी कारग़ुज़ारी का पर्दाफ़ाश कर दूँ, पर सोचा, पहले चड्ढा साहब की राय भी ले लूँ।

लेकिन मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले कुमार साहब बोल उठे, "इधर ही आ रहा है।"

सचमुच, गुप्ता हमारी तरफ़ ही आ रहा था। एक बात तो माननी पड़ेगी, ग़ज़ब की ढिढाई थी बन्दे में। किसी का ख़ून करने की बात तो बहुत दूर रही, मैं अगर किसी का ख़ून करने की बात सोच भी लूँ तो सामान्य तरीक़े से बर्ताव नहीं कर पाऊँगा। ज़बान काँपने लगेगी, हाथ-पैर बिलावजह हिलने-डुलने लगेंगे, और नज़रें मिलाना मुश्क़िल हो जायेगा। पर, गुप्ता मेरी तरह कोई भला आदमी थोड़े-ही था! अगर मामूली आदमी होता, तो इतने सालों से दुकान कैसे चला पाता? बिज़नेस करना कोई खेल थोड़े-ही होता है। हज़ारों दाँव-पेंच आज़माने होते हैं, लाखों झूठ-सच बोलने पड़ते हैं, सैंकड़ों लोगों को ख़ुश करना पड़ता है।

"जय रामजी की! आप सब इधर जमा हैं, मैं कहूँ, कोई बात हो गई है क्या?"

गुप्ता का प्रश्न सुन कर मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि सोचा, उसे वहीं पटककर उसकी छाती पर बैठ जाऊँ और चिल्ला-चिल्ला कर कहूँ, "हाँ, बात हुई है, बहुत बड़ी बात हुई है, और वह बात यह है कि तुमने अपने बेटे का क़त्ल कर दिया है क्योंकि वह अपाहिज था, बदसूरत था, उसे देखकर तुम्हें शर्म आती थी, उसकी मौजूदग़ी से तुम्हारी झूठी शान में बट्टा लगता था ..."

चड्ढा साहब ने बात सम्भाल ली, बोले, "मुहल्ले में लॉ ऐण्ड ऑर्डर की बिगड़ती हालत पर बातचीत कर रहे थे। हर कुछ दिनों में कोई-न-कोई अनटुवर्ड इन्सिडेण्ट हो जाती है।"

"फिर कुछ हो गया क्या?" गुप्ता ने हैरत से पूछा। चोरी और सीनाज़ोरी का इससे बढ़िया उदाहरण और क्या मिलता!

"नहीं, वैसे कल रात आपके घर से भी कुत्ते के ज़ोर-ज़ोर से भौंकने की आवाज़ आ रही थी।" कुमार साहब फिर से टाँग खुजलाने लगे थे।

"अरे, वो तो उसकी तबीयत ठीक नहीं थी।"

मालिक का क़त्ल होते देख किस कुत्ते की तबीयत ठीक रहती है, मैंने सोचा।

"वैसे, अब यहाँ छीनाझपटी, चोरी वगैरह कम हो जायेगी। मेरे बाऊजी के दोस्त का पोता इधर थाने में आ गया है।" गुप्ता ने कहा।

"अरे, पुलिसवाले तो साले और लेते हैं, है कि नहीं?" यह शर्माजी थे।

"नहीं-नहीं, वह बेचारा ऐसा नहीं है। अगले हफ़्ते वैष्णोदेवी जा रहा है। हमने कहा कि हमसे पैसे लेकर हमारी तरफ़ से भी चढ़ावा चढ़ा देना, तो मान ही नहीं रहा था। बोल रहा था, पैसे-वैसे की क्या बात है। बड़ी मुश्क़िल से लिये। अभी तो गया है थोड़ी देर पहले।" गुप्ता ने बताया।

कुबड़े के क़त्ल पर पर्दा डालने की कहानी अच्छी थी। मुझसे रहा न गया। सोचा, कील की बगल में जितने वार होंगे, वह उतनी टेढ़ी होती जायेगी। कील के सिर पर एक ज़ोरदार प्रहार करना ज़रूरी था।

मैंने पूछना आरम्भ किया, "अच्छा, तो कुबड़ा कहाँ है?" लेकिन भूल समझ में आते ही बीच में ही बात रोककर खाँसने का नाटक करने लगा। फिर भी, मेरे मुँह से "अच्छा, तो कु" तक तो शब्द निकल ही गये थे।

खाँसी पर नियन्त्रण पाकर मैंने अपना सवाल पूरा किया, "अच्छा, तो कब जा रहे हैं?"

"बुधवार को," गुप्ता ने जवाब दिया।

तभी एक चमत्कार हुआ। कुबड़ा गुप्ता का फ़ोन हाथ में लिए साक्षात चला आया, "पापा, वो बहनें मकान की डीटेल कन्फ़र्म करना चाह रही हैं।"

गुप्ता ने दो-चार मिनट बात की, फिर हमें बताने लगा, "कुछ दूर पर मेरा एक प्लॉट ख़ाली पड़ा है। उसे वृद्धाश्रम बनाने के लिए दे रहा हूँ। कोई पैसा नहीं लूँगा, पर ज़मीन मेरे ही नाम रहेगी।"

तभी अन्दर से कुत्ते की च्याऊँ-च्याऊँ सुनाई पड़ी। कुबड़ा बोला, "इसकी तबियत अब भी ठीक नहीं हुई। डॉक्टर के पास चलते हैं।"

"हाँ, चलो" कहकर गुप्ता अपने बेटे के साथ वापस चला गया।

"यह तो किसी का भी मर्डर नहीं हुआ।" कुमार साहब ने खिसियानी हँसी हँसते हुए कहा।

"हुआ न!" मैंने कहा।

"किसका?" शर्माजी ने पूछा।

"हमारे विवेक का, जो पूर्वाग्रह की वजह से हमें लोगों के बारे में ग़लत राय बनाने पर मजबूर कर देता है, भले आदमी को अपराधी बना देता है।" मैंने जवाब दिया, और चलने को तत्पर हुआ।

चड्ढा साहब मेरे साथ हो लिए। उन्होंने पूछा, "पूर्वाग्रह का मतलब प्रीकन्सीव्ड नोशन होता है न?"

मैंने जवाब में सिर हिलाया।

चलते-चलते देखा, शर्माजी कह रहे थे, "देखना, आश्रम के नाम पर मुफ़्त में बिल्डिंग बनवा कर उन औरतो को निकाल-बाहर करेगा साला!"

जोज़फ़ और कुमार साहब सहमति में सिर हिला रहे थे।

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हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

एकांकी

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