मोनी
नाट्य-साहित्य | नाटक अमिताभ वर्मा1 May 2020 (अंक: 155, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
पहला दृश्य
(एक मध्यमवर्गीय परिवार का डाइनिंग हाल। उर्मिला टेबल पर खाने के बर्तन रख रही है।)
उर्मिला (पुकारते हुए):
बबलू, ओ बबलू, आओ, खाना लग गया बेटा! सुनिए जी, आइए, खाना लग गया! ... अरे, अब तुम लोग आओगे भी, या खाना ऐसे ही ठंडा होता रहेगा?
अजय (पास आते हुए):
अजी, ठंडा कैसे होता रहेगा? आप इतना अच्छा खाना बनाती हैं कि आदमी खाना तो क्या, थाली, प्लेट, चम्मच, यहाँ तक कि उँगलियाँ भी चबा जाए! देखें, क्या बना है!
(अजय बर्तनों से ढक्कन हटा-हटाकर देखता है।)
अजय (ख़़ुशी से):
अरे वाह वाह वाह वाह! लौकी की रसेदार सब्ज़ी, गुड! बैंगन की कलौंजी, ग्रेट! और इसमें क्या है, अहा, अरहर की दाल! ऊँहूँ, मुँह में पानी नहीं आया, बाढ़ आ गई उर्मिला, बाढ़ आ गई!
उर्मिला (शर्माते हुए):
हटिए, मूँग की दाल और अरहर की दाल में फ़र्क़ तो जानते नहीं, और तारीफ़ के पुल बाँधे जा रहे हैं!
अजयः
इंजीनियर अगर पुल नहीं बाँधेगा, तो क्या बाँधेगा, बकरी?
उर्मिला (शरारत से):
क्यों, इंजीनियरों को बकरी बाँधने की मनाही है क्या? चलिए, बैठिए।
उर्मिला (पुकारते हुए):
बबलू, अब आओ भी बेटा। पापा खाना खाने बैठ गए हैं।
उर्मिलाः
आप शुरू कीजिए।
उर्मिला (पुकारते हुए):
बबलू!
बबलू (झल्लाते हुए):
क्या मम्मी, तुम तो आव देखती हो न ताव, बस, घिसे हुए रिकॉर्ड की तरह चालू हो जाती हो, -- बबलू, बबलू, बबलू! अरे, चैप्टर तो कम्प्लीट होने दिया करो!
उर्मिलाः
जब तुम्हें मालूम है कि नौ बजे खाना खाने का टाइम है, तो नौ बजे से पहले चैप्टर क्यों नहीं कम्प्लीट करते, हूँ?
बबलूः
मम्मी, तुम तो ऐसे बोलती हो जैसे खाना नहीं हुआ, रेडियो पर न्यूज़ हो गया, नौ बजे ब्रॉडकास्ट होगा ही! (नक़ल उतारते हुए) ये आकाशवाणी है। अब आप मम्मी से समाचार सुनिए। तीन पत्रिकाओं ने आज मेरी कहानियाँ वापस कीं ...
उर्मिलाः
... झुट्ठे, कब वापस कीं मेरी कहानियाँ?
बबलूः
तुमने टिकट लगा, पता लिखा, लिफ़ाफ़ा साथ में भेजा ही नहीं होगा, वरना ज़रूर आ जातीं वापस!
अजय (हँसी दबाते हुए):
अच्छा, अच्छा, ये चुहल बाद में करना। खाना लो बेटा, ठंडा हो रहा है।
(उर्मिला खाना परोसने लगती है।)
बबलू (शिक़ायती लहजे में):
एंहें, छी छी छी! यह क्या, तुमको कुछ और बनाने को मिलता ही नहीं क्या? वही सड़ी-सी लौकी! यह काला-काला मरे चूहे जैसा बैंगन! और यह दाल!
उर्मिलाः
दाल एक सौ बीस रुपए किलो है। और तुम इस खाने को सड़ा कह रहे हो? पापा को देखो, कितनी ख़ुशी से खा रहे हैं बेचारे!
बबलूः
अब तुम ख़ुद ही उन्हें बेचारा कह रही हो! मेरे लिए पराँठे बना दो न मम्मी!
उर्मिलाः
अच्छा, तुम एक रोटी लो, मैं पराँठे बनाती हूँ।
बबलू, (ख़ुशी से):
ये SSS ...
(बबलू बर्तनों को ध्यान से देखता है)
बबलूः
मम्मी, तुम बर्तन कैसे धोती हो? कितने गन्दे हैं! प्लेट में डिटर्जेंट लगा है। गिलास में भी। पापा, आपकी प्लेट में भी कुछ लगा है!
उर्मिलाः
कहाँ लगा है, दिखाओ? कहाँ है?
बबलू (चिढ़ते हुए):
यह क्या है, देखो? लाइए पापा, अपनी प्लेट दीजिए, मैं धोता हूँ।
(बबलू एक-एककर बर्तन धोता है)
उर्मिलाः
बेटा, इतना बारीक़ दिखाई नहीं देता। बर्तन धोते समय चश्मा नहीं पहनती न!
अजयः
जब से वह पिछली आया चली गई, तब से यही प्रॉब्लेम है।
बबलूः
तुम दूसरी मेड क्यों नहीं रख लेतीं मम्मी?
उर्मिला (दूर से):
मैं पराँठे बना रही हूँ बेटा, ज़ोर से बोलो!
बबलू (चिल्लाते हुए):
तुम दूसरी मेड क्यों नहीं रख लेतीं मम्मी?
उर्मिला (दूर से):
मेड मिलेगी, तब तो रखूँगी! (पराँठे देती है) यह लो पराँठे!
बबलूः
दो!
बबलू (चबाते हुए):
मेड मिलेगी क्यों नहीं, लेकिन तुम रखना ही नहीं चाहतीं! न ज़्यादा पैसे देने पर राज़ी होती हो, न ज़्यादा छुट्टी देने पर! ऐसे में कौन आएगी तुम्हारे पास?
अजयः
बात तो ठीक है बबलू की। अब वह ज़माने लद गए जब दिन में दो बार, साल में तीन सौ पैंसठ दिनों के लिए आया मिला करती थी। तुम ऐसा क्यों नहीं करतीं? आस-पास के घरों में देखो, उनकी आया से बात करो।
बबलूः
हाँ, ताक-झाँक करने की तुम्हारी आदत कब काम आएगी?
उर्मिलाः
ताक-झाँक मैं करती हूँ या तुम? बता दूँ पापा को, कल क्या कर रहे थे?
बबलूः
बस, बात ही करो तुम, और पराँठे मत दो!
उर्मिला (हँसते हुए):
अच्छा, पोल खुलने का डर हुआ तो पराँठे याद आने लगे! लाती हूँ पराँठे।
दूसरा दृश्य
(घर की छत)
उर्मिला (स्वगत):
उफ़, कितना बोरिंग काम है यह पड़ोसियों के दरवाज़े ताकना! लेकिन आया रखनी है, तो यह भी कर के देख लेते हैं! बबलू के रोज़-रोज़ के ताने कौन सहेगा? लेकिन कोई नज़र भी तो आए! वह, वह निकली एक आया शर्मा जी के गेट से! ज़रा पास आए तो पूछती हूँ। ... हाँ, यह आई पास! धत् तेरे की, यह तो उनकी बरेलीवाली बहन है! एक आया उधर से आ रही है। बबलू ठीक कहता था, ताक-झाँक करने के अपने अलग फ़ायदे हैं! यह लो, वह आया तो वहीं से मुड़ गई! ... अरे, घोष साहब की छत पर वह बच्ची कौन है? उनका तो कोई बच्चा नहीं! ... कपड़े फैला रही है। ज़रूर उनकी आया की लड़की है! लेकिन, उनके घर तो कोई आया नहीं! दोनों मियाँ-बीवी सुबह काम पर चले जाते हैं और शाम को लौटते हैं। चलो पूछ कर देखती हूँ! (पुकारते हुए) ए! ... ए! ... ए लड़की! ... ए लड़की ... (स्वगत) कमाल है, सुनती ही नहीं! वहाँ अपनी छत घोष साहब की छत के पास है, वहीं जा कर बोलती हूँ ... (पुकारते हुए) ए लड़की! ... ए लड़की! ... अरे इधर-उधर क्या ताक रही है? इधर देख! ... (स्वगत) बहुत डरी हुई लगती है। चोर-वोर है क्या? लेकिन, चोर होती तो कपड़े क्यों फैलाती? उल्टा उन्हें समेट कर रफ़ू-चक्कर नहीं हो जाती? ... (कड़े स्वर में) ... ए लड़की! इतनी देर से पुकार रही हूँ, सुनती क्यों नहीं? क्या कर रही है यहाँ? क्या नाम है तेरा?
मोनीः
मोनी।
उर्मिलाः
यहाँ क्या कर रही है?
मोनीः
काम।
उर्मिलाः
माँ कहाँ है तेरी? अरे इधर-उधर क्या ताक रही है? जवाब दे!
मोनीः
त्रिपुरा।
उर्मिलाः
क्या? क्या तेरी माँ त्रिपुरा में है?
मोनीः
हाँ।
उर्मिलाः
तो तू यहाँ किसके साथ है?
मोनी (जाते हुए):
अकेले!
उर्मिलाः
अरे अरे, जाती कहाँ है?
उर्मिला (स्वगत):
यह लो! यह बच्ची तो भाग कर छत से नीचे चली गई। बहुत डरी हुई लगती है। कुछ गड़बड़ है! शाम को इन्हें बताऊँगी।
तीसरा दृश्य
(घर की छत)
उर्मिला (स्वगत):
कल भी कोई आया नहीं मिली, आज भी नहीं! देखें, घोष साहब की छत पर वह लड़की फिर दिखती है या नहीं। इन्होंने तो उसकी बात रिकॉर्ड करने को कहा है। चलो, शायद एक कहानी के लिए मसाला मिल जाए! वह आई। आज कपड़े नहीं फैला रही। क्या नाम था इसका? हाँ, मोनी!
उर्मिला (पुकारते हुए):
मोनी!
उर्मिला (स्वगत):
अरे वाह! आज तो पहली बार में ही सुन लिया। इधर आने भी लगी।
उर्मिलाः
आज कपड़े नहीं फैला रही?
मोनीः
भात दो।
उर्मिलाः
क्या?
मोनीः
भात दो।
उर्मिला (स्वगत):
हे भगवान, अब इसे भात कैसे दूँ? थाली गन्दी हो जाएगी।
मोनीः
भात दो न माँ।
उर्मिला (स्वगत):
बेचारी बहुत भूखी लगती है। किसी टूटी प्लेट में दे देती हूँ इसे खाना।
(मोनी से) ठहर, लाती हूँ!
(उर्मिला एक प्लेट में कुछ लाती है।)
मोनीः
जल्दी। बाबू आ जाएगा।
उर्मिला (स्वगत):
बाबू? कौन बाबू? यह इतनी डरी हुई क्यों है? और ... और यह बाबू कौन है? (मोनी से) यह ले भात! अरे अरे! (स्वगत) यह तो मुट्ठी भर-भर कर सूखा भात खाने लगी!
उर्मिलाः
ठीक से खा। (स्वगत) बाप रे, यह तो ऐसे खा रही है जैसे जन्मों की भूखी हो! यह लो, खाना ख़त्म हुआ नहीं कि फिर भाग गई! जूठी प्लेट मेरे धोने के लिए छोड़ गई महारानी!
चौथा दृश्य
(डाइनिंग हाल)
बबलूः
क्यों मम्मी, पिछले पंद्रह दिनों से गुमसुम हो?
अजयः
बेटा, मम्मी एक स्टोरी पर काम कर रही हैं।
उर्मिलाः
हाँ, और कहानी पूरी होने को भी आ गई है। बस, अंत बाक़ी है। मैंने बताया था न, मोनी कैसे हमेशा डरी-डरी सी रहती थी! डरी, और भूखी! खाने पर झपट्टा मारते समय भी चारों तरफ़ नज़र दौड़ाए रखती। जैसे कोई ख़तरा हमेशा सर पर मँडराता था उसके!
अजयः
हूँ।
उर्मिलाः
तीन-चार दिन यही सिलसिला रहा। धीरे-धीरे मोनी का डर कुछ कम हुआ। बोलने भी लगी। उसने बताया, उसके माँ-बाप त्रिपुरा में रहते हैं। परिवार में भाई बहन सब हैं। ग़रीब हैं, सो सब को कमाना पड़ता है।
बबलूः
फिर, जल्दी बताओ न मम्मी, मोनी घोष अंकल के वहाँ कैसे आ गई?
उर्मिलाः
मोनी पहले कहीं और काम करती थी। बोलती है, साहब के घर बड़े-बड़े लोग आते थे।
बबलूः
मोनी इतनी ग़रीब है। उसे तो सब आदमी बड़े आदमी ही लगेंगे।
उर्मिलाः
हाँ, यह बात भी है। फिर उस समय मोनी और भी छोटी थी। कोई नौ साल की रही होगी। बोलती है, साहब की लड़की कॉलेज में पढ़ती थी। दोनों लड़के इंजीनियरिंग पढ़ते थे किसी दूसरे शहर में।
बबलूः
जानकारी तो पूरी इकट्ठा करती है ये मोनी! मैं तो आज तक उसे देख भी नहीं पाया।
उर्मिलाः
देखोगे कैसे? उसे बाहर निकलने की मनाही जो है! ख़ैर! छुट्टियों में लड़के घर आते। चहल-पहल हो जाती। अच्छा खाना पकता। सब घूमने जाते।
पाँचवाँ दृश्य
(बेड रूम)
मोनी (स्वगत):
बाबू, माँ, दादा, दीदी, सब तीन घंटे से बाहर हैं। मैंने कितना कहा कि मुझे भी ले चलो, लेकिन नहीं! बोले, गाड़ी में जगह नहीं है। ... झूठ बोलते हैं! ... जगह नहीं है, तो उस दिन दीदी की सहेली के लिए जगह कैसे हो गई थी? ... ये लोग मुझे गन्दी समझते हैं। आज मैं भी दिखा दूँगी कि मैं कितनी सुंदर हूँ। ये सब जो दीदी का सुंदर लगनेवाला सामान है न, सब लगाती हूँ। ... आह, कितनी अच्छी है इस तेल की ख़ुश्बू! जैसे ख़ूब सारे फूल हों। ... थोड़ा और लगा लूँ। ... आह, माथा ठंडा हो गया। ये पाउडर ... मैं तो दीदी से भी ज़्यादा गोरी हो गई! वाह! ... और इसको होंठ पर लगा लूँ। ... गाल पर भी थोड़ा-थोड़ा! ... वह लोग मुझे देखेंगे तो पहचान नहीं पाएँगे। परी लग रही हूँ बिलकुल! जैसे गाँव में नाटक में आई थी। ... बस, अब यह सेंट लगा लूँ तो ...
(दरवाज़ा ख़ुलने की आवाज़। शीशी टूट कर गिरने की आवाज़।)
साहब (कड़कते हुए):
तो ये होता है हमारी एब्सेंस में!
मेम साहब:
हाय राम, हज़ार रुपए के नए सेंट की शीशी तोड़ डाली इसने! कैसी भूत जैसी दिख रही है!
साहब:
तुझे खिलाते हैं, पिलाते हैं, बच्चे की तरह रखते हैं, पर तेरा लालच है कि कम ही नहीं होता।
मेम साहब:
खाना-पीना तो बहुत खिलाया इसको! अब टॉनिक खिलाओ।
(साहब और मेम साहब मोनी को पीटते हैं। मोनी "नहीं बाबू", "नहीं माँ", चिल्लाती रह जाती है।)
छठा दृश्य
(डाइनिंग हाल)
उर्मिलाः
उन लोगों ने मोनी के बाल काट डाले। मोनी वापस अपने घर भाग गई। लेकिन, जब हमेशा साथ रहने वाले होठों को भी खाना मिलने पर एक-दूसरे से अलग होना पड़ता है, तो बेचारी मोनी कब तक परिवार के साथ रह पाती! उसे एक बार फिर काम की तलाश में बाहर निकलना पड़ा। इस बार उसे किसी सेठ के घर काम मिला।
अजयः
अमीर घर में तो आराम रहा होगा।
उर्मिलाः
आराम? हाँ, आराम था, लेकिन मोटे सेठ, भारी भरकम सेठानी, उनके रिश्तेदारों, और उनके कुत्तों को! तीन-तल्ला हवेली में सबकी जी हुज़ूरी करते-करते बीमार पड़ गई मोनी। वैसे तो और भी नौकर-चाकर थे वहाँ, लेकिन किसी नौकर के छुट्टी चले जाने पर काम का बोझ बढ़ जाता।
बबलूः
इसका मतलब, सेठ उतना ख़राब भी नहीं था। छुट्टी तो देता था कम-से-कम!
उर्मिलाः
बाक़ी नौकर बड़े थे, अपनी बात कह पाते होंगे। लेकिन दस साल की मोनी के लिए तो छुट्टी एक सपना थी। झाड़ू-पोंछा, कपड़ा धोना, बर्तन माँजना -- उसके जिम्मे कोई भी काम अड़ा दिया जाता। जिस उम्र में बच्चे ख़ुद को भी नहीं सँभाल पाते, मोनी को भारी काम सँभालने पड़ते थे। उसे अक्सर चोट लग जाती।
सातवाँ दृश्य
(आँगन)
मोनीः
आंटी जी, आज बर्तन नहीं धो पाएँगे, पाँव जल गया है।
सेठानी (कर्कष स्वर में):
बहाने मत बना निगोड़ी, बर्तन पाँव से धोती है कि हाथ से? आए दिन कोई-न-कोई नखरा लगा ही रहता है इसका! चल, काम कर!
(कुत्ता किंकियाते हुए आता है)
सेठानी (लाड़ से):
अले अले अले अले, क्या हो गया मेले प्याले टॉमी बाबा को, देखें तो! (घबरा कर) अरे हाय राम, ये चोट कैसे लग गई? ... सुनो जी, देखो न, कितनी ज़ोर की चोट लगी है अपने टॉमी को!
सेठ:
क्या हो गया, देखें! ... अरे, यह तो जल गया है! यह जल कैसे गया?
(कुत्ता किंकियाता है)
सेठानी:
ज़रूर मोनी ने ही कुछ किया है। तब से जल गई, जल गई, रट रही है।
सेठानी (कर्कष स्वर में):
क्यों री, अब साँप क्यों सूँघ गया तुझे? बोल, क्या किया है तूने टॉमी के साथ? बोल! बोल न!
मोनीः
मैंने कुछ नहीं किया। वह अपने आप ही जल गया!
सेठ:
अपने आप ही जल गया? ... अपने आप ही जल गया, माने?... वह कुत्ता है, कोई आदमी नहीं जो सिगरेट जलाते-जलाते जल जाय! सच-सच बोल, कैसे जलाया तूने टॉमी को?
(कुत्ता किंकियाता है)
मोनी (हिचकते हुए):
छत पर सुरेश भैया पत्ते जला रहे थे। लपट ज़्यादा तेज़ हो गई तो भैया डर गए। मुझे बोले, पत्ते हटाओ, और ख़ुद भाग गए। मैंने पत्ते उठाए, पर वह तो सुलग रहे थे। मैं उन्हें ठीक से थाम नहीं पाई। हवा के ज़ोर से पत्ते उड़े। कुछ टॉमी की पीठ पर गिरे, कुछ मेरे पाँवों पर।
सेठानी (कर्कष स्वर में):
तुझे तो मैंने नीचे पोंछा लगाने को कहा था, तू छत पर कैसे पहुँच गई?
मोनीः
पोंछे का कपड़ा लेने।
सेठानी (कर्कष स्वर में):
पोंछे का कपड़ा लेने, या सुरेश के साथ लसड़-लसड़ करने? जब देखो उसके पीछे-पीछे, पीछे-पीछे, घूमती है। है तो बित्ते भर की, पर लच्छन देखो इसके ज़रा!
मोनीः
पोंछे का कपड़ा छत पर ही तो रहता है!
(सेठानी मोनी को मारती है।)
महिलाः
एक तो ग़लती करती है, उस पर से ज़बान लड़ाती है।
(सेठानी मोनी को और मारती है। मोनी सिसकियों के बीच "मैंने ग़लती नहीं की, मैंने ग़लती नहीं की" कहती रह जाती है।)
आठवाँ दृश्य
(डाइनिंग हाल)
उर्मिलाः
मोनी पर सेठानी का हाथ एक बार क्या छूटा, बारबार छूटने लगा। बीमार तो वह रहने ही लगी थी। हॉस्पिटलाइज़े शन की नौबत आई, तो सेठ ने मोनी के घरवालों को पाँच सौ रुपए दे कर मोनी को चलता किया।
बबलूः
तो पाँच सौ रुपयों में हो गया मोनी का इलाज?
उर्मिलाः
इलाज? इलाज क्या होता, वह पाँच सौ रुपए तो घर के खाने-ख़र्चे में स्वाहा हो गए! महीनों तक ज़िदगी और मौत के बीच झूलती रही बेचारी मोनी।
अजयः
फिर?
उर्मिलाः
फिर! फिर तक़दीर को तरस आया। मोनी अपने-आप ही ठीक होने लगी। इसी बीच एक नौकरीपेशा जोड़े ने मोनी के पिता को पाँच हज़ार रुपए दिए, और मोनी को ले गया। मोनी का पिता ख़ुश था। उसे क्या पता था कि उसने अपनी ही बेटी को जीते जी नर्क में ढकेल दिया था!
बबलूः
क्यों, क्या हुआ वहाँ?
उर्मिलाः
शुरू-शुरू में तो मोनी को जानवरों की तरह बाँध कर रखा जाता, कि भाग न जाय। पति-पत्नी सुबह काम पर चले जाते, और शाम को घर लौटते। मोनी सुबह से शाम तक भूखी रहती, कुछ भी खाए बग़ैर। उसे बस एक वक़्त खाना मिलता। वह सुबह झाड़ू-पोंछा करती, रात को बर्तन माँजती, और दिन भर रस्सी से बँधी पड़ी रहती। पास-पड़ोस तक को इसकी भनक भी नहीं लगी।
अजयः
बड़े निर्दयी लोग थे!
उर्मिलाः
बाद में कपड़े धोने का काम भी मोनी के सिर मढ़ दिया गया। पति-पत्नी फ्रि़ज और दरवाज़े पर ताला लगा कर, खिड़कियाँ जाम कर, सुबह चले जाते। मोनी कपड़े धोती। ज़रा सी भी गंदग़ी मिलने पर उसका खाना आधा कर दिया जाता। बस, अच्छी थीं, तो दो बातें!
बबलूः
वह क्या?
उर्मिलाः
मोनी को रस्सी से बाँधना छोड़ दिया उन्होंने। और धुले कपड़े पसारने के लिए उसे छत पर जाने की आज़ादी भी मिल गई।
बबलूः और उस आज़ादी का फ़ायदा उठा कर मोनी भाग गई!
उर्मिलाः
नहीं, वह मानसिक और शारीरिक रूप से टूट चुकी थी। हमेशा डरी, हमेशा थकी, हमेशा भूखी! एक और थपेड़े के इंतज़ार में! ... कि अचानक एक दिन उस पर नज़र पड़ गई मेरी!
अजयः
क्या? तो हमारे पड़ोसी घोष साहब ही मोनी के साथ ऐसा बुरा बर्ताव करते हैं?
उर्मिलाः
हाँ! मोनी ने पिछले पंद्रह दिनों में धीरे-धीरे मुझे सब बता दिया है, और मैंने उसकी बातें टेप भी कर ली हैं।
बबलूः
तो चलो, छुड़वाएँ उसको घोष अंकल के चंगुल से!
अजयः
नहीं, पहले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करनी चाहिए। लेकिन, उर्मिला, तुम्हें गवाही देनी पड़ सकती है।
उर्मिलाः
मैं तैयार हूँ।
नवाँ दृश्य
(डाइनिंग हाल)
इंस्पेक्टरः
आपकी समझदारी, दिलेरी, और ठंडे दिमाग़ की दाद देनी होगी मिस्टर अजय और मिसेज़ उर्मिला! आपने अपराधी का पता ही नहीं बताया, उसके ख़िलाफ़ पुख़्ता सबूत भी दिए। हमने मिस्टर और मिसेज़ घोष को ग़िरफ़्तार कर लिया है।
बबलूः
ग़िरफ़्तार?
इंस्पेक्टरः
हाँ बेटा! चौदह साल से छोटे बच्चों से घर या दूकान में काम करवाना जुर्म है। इसके अपराधी को दो साल तक की क़ैद और बीस हज़ार रुपए तक जुर्माना हो सकता है। तुम्हारी मम्मी ने एक मिसाल क़ायम की है।
उर्मिलाः
सच पूछिए इंस्पेक्टर साहब, तो यह सब बबलू की वजह से ही हुआ। न यह मुझे आस-पास के घरों में ताक-झाँक करने को कहता, और न मोनी पर मेरी नज़र पड़ती!
अजयः
बेटा, तुम्हारी उम्र में तो ताक-झाँक करने को माफ़ किया जा सकता है, लेकिन तुम्हारी मम्मी की उम्र में नहीं! उर्मिला जी, बहाने बनाना छोड़िये और अब ताक-झाँक बिल्कुल बन्द कीजिए!
उर्मिलाः
लेकिन ताक-झाँक किए बिना आया कैसे मिलेगी?
बबलूः
आया नहीं चाहिए मम्मी, मैं ख़ुद ही प्लेट धो लूँगा!
(सब हँसते हुए चाय पीने लगते हैं।)
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