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घर छोटा था।

न, घर कहाँ छोटा-बड़ा होता है? वह छोटा या बड़ा हो ही नहीं सकता! आकार तो स्थूल चीज़ों का होता है, और घर भी भला कोई स्थूल वस्तु है? वह तो एक विचार है, एक मान्यता है, एक कल्पना है। आदमी चाहे, तो दिल-जैसे छोटे से अंग में भी घर बना-बसा सकता है; न चाहे, तो विशालयकाय हवेली में भी अकेला महसूस कर सकता है। निपट अकेला।

तो, शुरुआत ही ग़लत हो गई। चलिए, फिर से शुरू करते हैं।

मकान छोटा था।

हाँ, यही ठीक रहेगा। वैसे, मकान-भी क्या था, बस दो कोठरियों, आँगन, रसोईघर-भंडार-वगैरह को एक जगह इकट्ठा कर देने की ऐसी जुगत थी, जैसे अधमँजे कलाकार पाँच मिनट की अल्पावधि में ही आलाप, जोड़, झाला, गत वगैरह सब प्रस्तुत कर खिसक लेते हैं। वर्षों से छत का बोझ सँभाले बूढ़ी दीवारों में जगह-जगह टपके पलस्तर ने छिपकलियों के लिए आश्रयस्थलियाँ रच दी थीं, सड़े पाइप पानी में ज़ंग की सुर्ख़ी मिला कर अपना दुख बयान किया करते थे, दरवाज़ों-खिड़कियों के पल्ले चौखट पर जड़े ख़स्ताहाल क़ब्ज़ों से चमगादड़ों की तरह झूलते थे, और हर बरसात में आँगन की हरी-काली काई में मेंढ़क उछलते और केंचुए रेंगते रहते थे।

हालात हमेशा ऐसे नहीं थे। बारह वर्ष पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद मुकुन्द बड़ी उम्मीद के साथ अपने इस पुश्तैनी मकान में आ जमे थे। उन्हें और उनकी पत्नी, लीला, को यहाँ आकर बड़ा आनंद मिला था। बसने से पहले जमा-पूँजी का एक अहम हिस्सा न्योछावर कर उन्होंने हर संभव मरम्मत करवाई थी, रंग-रोगन से हर कोने को चमकाया था, “स्वर्गादपि गरीयसी” की अवधारणा को जामा पहनाया था, और जीवन के आख़िरी पड़ाव का अंतिम घर बसाया था। उस समय उन्होंने यह नहीं सोचा था कि पचास-साल पुराने मकान के रखरखाव पर हर महीने-दो महीने हज़ार-दो हज़ार रुपए ख़र्च न किए जाएँ, तो वह बिगड़ैल कर्मचारी की भाँति हाथ-से-बाहर हो जाता है।

मुकुन्द भी बिगड़ैल कर्मचारी से कम थे क्या? उनमें अकड़ न होती, यदि उन्होंने लोक-व्यवहार और मान-मर्यादा के निर्वहन पर ज़रा-सा भी ध्यान दिया होता, अगर उन्हें अपनी सफलता की रत्ती-भर भी चिन्ता होती, तो क्या उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने पर मजबूर किया जा सकता था? वे कुशल अघिकारी थे, दो-चार सेवा-विस्तार तो चुटकी बजाते पा सकते थे। ऊपरवालों की कृपा रहती, तो सत्तर-पचहत्तर बरस तक नौकरी में टिके रहना भी क्या मुश्किल था? लेकिन वे तो बने ही अलग मिट्टी से थे। ऊपर पैसे पहुँचाना तो दूर, मंत्रियों-नेताओं का झूठा गुणगान तक उन्हें नागवार लगता था। हरिश्चन्द्र के बाद सत्य-धर्म निभाने का ठेका सीधा उन्हीं की झोली में आकर गिरा था जैसे। नीचे के पदों पर उनका यह अनुशासनहीन रवैया ढँका-छुपा रहा, पर सचिव बनने के बाद भी जारी उदासीनता एक दिन उन्हें मंत्रीजी के निजी कार्यालय के कठघरे तक खींच ले गई थी। उनकी ईमानदारी की प्रशंसा करने की औपचारिकता के बाद उनसे अर्थशास्त्र का ज्ञान साझा किया गया था, दलगत वित्तीय आवश्यकताओं की चर्चा की गई थी, देश की आज़ादी के बाद निजी आर्थिक स्वाधीनता की महत्ता पर ज़ोर दिया गया था, और अंत में स्पष्ट शब्दों में चालचलन सुधारने या नौकरी छोड़ने की धमकी दी गई थी।

मुकुन्द चिकने घड़े थे, चालचलन क्या सुधारते! आदर्शों को सूली पर लटकाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी उनके सामने। दोनों लड़के पढ़ाई पूरी कर विदेशों में बस चुके थे। पत्नी और ख़ुद की गुज़र-बसर के लिए उनकी पेंशन काफ़ी होती। ऊपर से, वे एक ऐसी रक़म बैंक में जमा कर चुके थे जो उन्हें बेटों की मदद के बिना भी छोटी-बड़ी परेशानियों से उबारने के लिए पर्याप्त होती। सेवा विस्तार में उनकी दिलचस्पी न थी, नौकरी के बचे-खुचे तीन वर्षों में वे हर वह साधन जुटाने वाले थे जो सादा किंतु सम्माननीय बुढ़ापा काटने के लिए ज़रूरी होता।

लेकिन उनकी इच्छा उनके मन में ही दबी रह गई थी। परिस्थितियाँ ऐसी विकट होती गईं कि मुकुन्द ने साधन एकत्रित करने की योजना ताक पर रख स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आलिंगन कर लिया था। उन्हें आकस्मिक सेवानिवृत्ति से कोई शिकायत नहीं हुई थी, बल्कि आत्मसम्मान अक्षुण्ण रख पाने की सफलता से प्रफुल्लित पति-पत्नी जीवन के उस नए खंड का भरपूर आनंद लेने की चेष्टा में संलग्न हो गए थे।

पर वह आनंद एक-दो महीने में ही सीले पटाखे की तरह फुस्स हो गया था। मुकुन्द की पेंशन इंद्रजाल का रहस्य बन गई थी। काग़ज़ी तौर पर तो सब कुछ दुरुस्त था, सम्बन्धित अधिकारी तरह-तरह के आश्वासन भी देते थे, पर न जाने वह कौन-सा राहु था जो मुकुन्द की पेंशन मिलने की हर संभावना को अंतिम क्षण में ग्रस लिया करता था। बारह साल बाद भी वे ग्रहों की प्रतिकूल दशा का प्रतिकार नहीं कर सके थे, और बैंक खाते से उपजे मामूली ब्याज पर निर्भर थे। रोज़मर्रा के ख़र्च के लिए बेटों से मदद लेना उनके स्वभाव में नहीं था, न ही उनके घर जाकर बसना उनकी ग़ैरत को मन्ज़ूर था। इस सबका नतीजा वही था जो आपको पहले से ही मालूम है: वे उस टूटते घर में जीवन काटने को मजबूर थे।

सहकर्मी तो उनके कार्यकाल में ही कतराने लगे थे, धीरे-धीरे सम्बन्धियों और पुराने मित्रों ने भी मुकुन्द और लीला को उनके हाल पर छोड़ दिया था। अलबत्ता, चित्रा ने नाता नहीं तोड़ा था उतनी जल्दी। एक ही तो बहन थी उनकी। वे मुकुन्द, अर्थात कृष्ण थे, तो उनकी छोटी बहन थी चित्रा, यानी सुभद्रा। छोटी भी ऐसी-वैसी नहीं, पूरे दस बरस का अन्तर था भाई-बहन की उम्र में। उसके ब्याह और गृहस्थी बसाने में मुकुन्द और लीला ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। बाद में, उन्हीं दोनों ने उसका इलाज करवाया था, देखभाल की थी। फलस्वरूप, चित्रा बत्तीस वर्ष की उम्र में माँ बन सकी थी। उसकी बेटी का नाम मुकुन्द ने ही सुझाया था – देविका।

देविका बारह-तेरह साल की रही होगी जब चित्रा उनके इस घर में पहली बार आई थी। तब तक पेंशन की अनिश्चितता से त्रस्त मुकुन्द-लीला जीवन-शैली बदल चुके थे। अब घर में वही सब्ज़ियाँ आतीं जो हाट बंद होने से पहले औने-पौने दामों में बिका करती थीं। नई चप्पलों की बजाय टूटी चप्पलें सिलवा कर काम चलाया जाने लगा था। सवारी लेने की जगह पैदल चलने और बर्तन-कपड़ों और घर की सफ़ाई महरी से करवाने की बजाय स्वयं करने का स्वास्थ्य-सम्मत विकल्प अपनाया जा चुका था। मुकुन्द रोज़ दो पैकेट सिगरेट और हफ़्ते में दो पेग शराब पीने की लत छोड़ चुके थे। दोनों जन अलग-अलग फ़ोन रखने की जगह एक से काम चला रहे थे। सोने से पहले दिनभर का ख़र्च डायरी में दर्ज करना और बची रक़म गिनना उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन चुका था।

जहाँ पाई-पाई का हिसाब रखा जाता हो, वहाँ रुपये ख़र्च करना बड़ा भारी लगता है। मुकुन्द गंभीर स्वर में बोले थे, “कल चित्रा आ रही है।”

उनके बोले बिना ही लीला समझ गई थी, वे कहना क्या चाहते हैं। दोनों पति-पत्नी चित्रा को हर बार एयरपोर्ट से लाया करते थे। अगर कभी मुकुन्द को समय न मिलता, तो लीला अकेली चली जाती थी उसे लाने। एयरपोर्ट पर गले मिलने, हँसी-ठिठोली पर पाँच-दस मिनट गुज़ारने के बाद ही चित्रा गाड़ी में बैठा करती थी।

लेकिन अब बात और थी। गाड़ी बिक चुकी थी।

लीला बुदबुदाई थी, “टैक्सी से एयरपोर्ट जा तो सकते हैं, पर हज़ार-बारह सौ स्वाहा हो जाएँगे।”

“हज़ार-बारह सौ क्यों? वापसी का किराया भी तो हमें ही देना होगा,” मुकुन्द सोच में डूब गए थे।

“बाप रे! मतलब दो-ढाई हज़ार रुपये! उतना पैसा कहाँ है हमारे बजट में? फिर वह आएगी तो दूध-फल-सब्ज़ी-अनाज का ख़र्च भी तो बढ़ जाएगा,” लीला का स्वर कातर था।

“देविका को कोई गिफ़्ट देनी होगी, फिर जाते समय पैसे भी देने होंगे। रसोई गैस, बिजली की खपत बढ़ जाएगी, सो अलग,” मुकुन्द का स्वर दयनीय हो चला था।

दोनों थोड़ी देर एक-दूसरे का मुँह देखते रहे थे, फिर लीला ने पूछा था, “आने से मना कर दें उसको?”

“क्या बहाना बनाएँगे? क्या कहेंगे? वह भी, आने से ठीक एक दिन पहले मना करना कैसा लगेगा? वह क्या जवाब देगी मनोज को?” मुकुन्द खिन्न हो गए थे।

“बता देंगे सच-सच,” लीला ने कहा था।

“हूँ, हम सच-सच बता देंगे और वह सच-सच मान लेगी कि उसका भाई, जो चार महीने पहले सेक्रेटरी था, इतनी जल्दी ऐसी हालत में पहुँच गया है कि इकलौती बहन पर ख़र्च करने के लिए उसके पास दस हज़ार रुपये भी नहीं बचे हैं? और अगर चित्रा मान भी ले, तो क्या गारंटी है कि मनोज भी मान लेगा? वह यह नहीं समझेगा कि हम चित्रा से न मिलने का बहाना तलाश रहे हैं? और फ़र्ज़ करो कि मनोज भी मान गया, तो भी, हमें अपनी दुर्दशा का ढिंढोरा पीट कर मिलेगा क्या? वह मुझे बेवकूफ़ नहीं समझेगा? मेरे सिद्धान्तों की खिल्ली नहीं उड़ाएगा? बिज़नेसमैन ठहरा, हमें पैसे कमाने की दस उल्टी-सीधी तदबीरें नहीं सिखाने लगेगा?” मुकुन्द तैश में आ गए थे।

“लेकिन चित्रा पर दस हज़ार ख़र्च करके हमें मिलेगा क्या? कोई मामूली अमाउन्ट नहीं है, बीस दिनों का बजट है वह! क्या करेंगे उसके जाने के बाद? भूखे मरेंगे?” लीला आवेश में आई थी, फिर सम्भलते हुए बोली थी, “और, यहाँ रहने पर उसे असलियत का पता नहीं चलेगा?”

“समझेंगे, बीमारी में ख़र्च हो गए।” मुकुन्द ने लम्बी साँस ली थी, “स्थिति का यहाँ आकर पता चलना, और फ़ोन पर उसके बारे में जानना – दोनों में बड़ा फ़र्क है।”

कुछ देर दीवार की ओर ताकने के बाद लीला चुपचाप चली गई थी। मुकुन्द ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की थी। धीरे से उठे थे और खिड़की के बाहर देखने लगे थे। सामने पेड़ की कोटर में गौरैया का घोंसला था। इतना बड़ा कि उनकी दो हथेलियों में आसानी से समा जाता! मुकुन्द का विचार था कि घोंसला बनाने में सारा श्रम चिड़े ने किया था, चिड़िया ने सिर्फ़ अंडे दिए थे। अंडों से बच्चे निकल चुके थे। मुकुन्द और लीला उनके लिए अक्सर खिड़की के बाहर दाने या रोटी के टुकड़े बिखेर दिया करते थे। चिड़ा-चिड़िया गर्दन टेढ़ी कर उन्हें देखते और जल्दी से खाद्य-सामग्री चोंच में भर कर घोंसले में वापस बैठ जाते थे। बच्चे उन्हें देख बेचैन हो जाते, चूँ-चूँ चीं-चीं के शोर के बीच माता-पिता बड़ी सावधानी से अपनी बड़ी चोंच से उनकी नन्ही-सी चोंच में चुग्गा डालते। मुकुन्द बड़े कौतुक से वह दृश्य देखा करते थे। लीला मन-ही-मन ईश्वर को स्मरण कर लिया करती थी।

एयरपोर्ट पर मुकुन्द को अकेला आया देख चित्रा को हैरानी हुई, “भाभी नहीं आईं? तबीयत तो ठीक है उनकी?”

“काश! यह बहाना कल दिमाग़ में आया होता!” मुकुन्द ने अपने-आप को उलाहना दिया, फिर बात टाल दी थी, “नहीं-नहीं, लीला ठीक है। तुम्हारे लिए अपने हाथों से कुछ बना रही है।”

“वाऊ! बहुत दिनों बाद भाभी के हाथों का कुछ मिलेगा। हर बार तो आपकी मेड कुछ बनाती थी और भाभी एयरपोर्ट आती थीं। जानकी नाम था न उसका? देखा, अब भी याद है मुझे! अभी वही है, कि मेड बदल ली आपने?” चित्रा जोश में बोले जा रही थी, “यह एयरपोर्ट हर कुछ महीनों में कितना बदल जाते हैं! अब इसकी पार्किंग कहाँ है? देविका, सी, मामाजी विल टेक अस होम इन हिज़ कार।”

दोपहर शाम में गुम हुई और शाम ढल कर रात का बाना ओढ़ने जा रही थी। इन पाँच घंटों में मुकुन्द-लीला के बदले तेवर से चित्रा का सर भिन्ना चुका था। क्या-क्या सोच कर आई थी वह! क्या-क्या प्रॉमिस किया था उसने देविका से – मामा ये करेंगे, मामा वो करेंगे, मामी ऐसे घुमाने ले जाएँगी, मामी वैसे रेस्त्राँ में खिलाएँगी – पर वहाँ जैसे मातम छाया था। कोई ख़ुशी ही नहीं थी उनके आने की। बेचारी देविका शाम सात बजे खाना खाकर सो गई थी। ऐसा क्या कर दिया था उसने? कहीं मनोज ने तो कुछ उल्टा-सीधा नहीं कह दिया था?

उसने बाहर आकर मनोज को फ़ोन लगाया था। रात के पहले प्रहर में मनोज की शराब की महफ़िल सजा करती थी। उन महफ़िलों में व्यवसाय की उलझनें इतनी आसानी से सुलझा करती थीं, मानो उनका कभी वजूद ही नहीं था। शराब के तीसरे-चौथे दौर के साथ हर कानून की काट और हर मर्ज़ की दवा बोतल से निकले जिन्न की भाँति नमूदार हो जाती थी मनोज के आगे।

जब तक मनोज ख़ुद न बुलाए, उन महफ़िलों में उसके पास जाना या उससे घरेलू बात करना वर्जित होता था। उस अघोषित नियम का उल्लंघन गृह शांति के लिए कितना घातक था, वह चित्रा अच्छी तरह जानती थी। फिर भी, उसने फ़ोन लगाया। मीठी-मीठी दो बातें करने के बाद बोली, “भैया से तो आपकी इधर कोई बातचीत नहीं हुई होगी। मैं अभी घर के बाहर हूँ, वरना बात कराती।”

“अरे कोई बात नहीं। तुम अपना ख़याल रखो। बाई!” मनोज ने बात ख़त्म कर गिलास की ओर हाथ बढ़ाया था।

“मुकुन्द से बात! हुँह!” – उसने कड़वा घूँट भरा था। एक साल से उसके और मुकुन्द के बीच कोई बात नहीं हुई थी। शादी तय होते समय उसने और उसके माता-पिता ने सोचा था कि मुकुन्द की सहायता से उसका व्यापार चल निकलेगा, दिन दूनी-रात चौगुनी तरक़्क़ी होगी, पर हुआ था ठीक उल्टा। क्लर्क और सेक्शन ऑफ़िसर मुकुन्द से ज़्यादा रसूख़ रखते थे। मुकुन्द का नाम लेने पर सरकारी कर्मचारियों के तेवर बदल जाते थे, बना बनाया काम बिगड़ जाता था। वह पागल तो था नहीं कि उतना कुछ होने पर भी मुकुन्द से गाहे-बगाहे बात करता। बस, जन्मदिनों और त्योहारों पर औपचारिकता निभा दिया करता था दो शब्द बोल कर।

“वह पट्ठा भी ऐसा अकड़ू है कि अपनी तरफ़ से एक कॉल भी नहीं करता!” – मुकुन्द के प्रति उसके हृदय में रोष का अलाव सदा सुलगता रहता था। उससे अच्छी तो लीला थी जो चित्रा को विदा करते समय मनोज को याद रखती थी, उसके लिए कुछ-न-कुछ भिजवाती थी।

चित्रा समझ गई थी कि मनोज ने कुछ नहीं किया। या तो भैया-भाभी उससे नाराज़ थे, या कुछ और हुआ था। पर क्या?

रात का सादा खाना गले से उतारते-उतारते चित्रा से रहा नहीं गया, बोल ही बैठी थी, “आप लोगों को हमारा आना अच्छा नहीं लगा?”

मुकुन्द का कौर गले में फँस गया था। लीला उनके गिलास में पानी भर कर बोली थी, “ऐसे क्यों कह रही हो? ऐसा तो कुछ भी नहीं।”

“कैसे कुछ नहीं? हर बार मैं आती थी तो हम बाहर जाते थे, घूमते-फिरते थे, रेस्त्राँ में खाते थे, सेलिब्रेशन होता था, और आज? आज, पहले तो, आप एयरपोर्ट नहीं आईं। भैया ने कहा कि हमारे लिए कुछ बना रही हैं। अच्छा भाई, मान लिया। पर बनाया क्या आपने? चिकन करी और हलवा! सचमुच, क्या इतनी-सी चीज़ बनाने के लिए आपका घर में रुकना ज़रूरी था? कौन खाता है हलवा? देविका ने एक चम्मच लेकर छोड़ दिया और . . . अगर आप नहीं चाहते थे कि मैं आऊँ तो पहले क्यों नहीं बता दिया कि ‘बहन, मत आया कर यहाँ! अब इस घर में कोई जगह नहीं बची तेरे लिए’।” चित्रा की आवाज़ रुँध गई थी।

लीला स्तब्ध होकर उसे देखती रह गई थी। कुछ बोलने का प्रयास किया, पर ज़बान सूख गई थी।

मुकुन्द गिलास को ध्यान से देखते रहे, मानो चित्रा की बात का जवाब देने की ज़िम्मेदारी उसी की थी।

कमरे से देविका का अस्पष्ट स्वर सुनाई दिया था और चित्रा आधा खाना प्लेट में छोड़ कर उठते हुए चेतावनी देती गई थी, “अगर हमारा आना पसन्द नहीं है तो कल जल्दी-से-जल्दी हम वापस चले जाएँगे।”

कमरे का दरवाज़ा धड़ाम से बन्द हो गया था। लीला सन्न रह गई थी। मुकुन्द को भी जैसे साँप सूँघ गया था। टेबिल साफ़ कर लीला बर्तन धोने लगी, और मुकुन्द खिड़की से बाहर देखने लगे थे। रात के अँधेरे में आसमान में छिटके सितारों के नीचे अकेला खड़ा पेड़ उन्हें अपनी ओर घूरता मालूम हुआ था।

आधे घंटे बाद लीला आ गई थी। दोनों थोड़ी देर चुप रहे थे, फिर एक साथ बोल पड़े थे, “यह अच्छा नहीं हुआ।”

दोनों ने माना था कि सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि उन्हें सफ़ाई देने का मौक़ा ही नहीं मिला। दोनों इस बात पर भी एकमत थे कि चित्रा को अगले दिन जाने नहीं देना चाहिए।

कल उसे समझाएँगे कि हमारे साथ क्या घट रहा है – दोनों तय कर सोने की चेष्टा करने लगे थे।

चित्रा का मुँह सुबह भी फूला हुआ था। उसने चाय पीते-पीते ऐलान किया था, “हम कल जाएँगे, चौबीस घंटे के अंदर लौटा देख मनोज न जाने क्या समझें।”

पति-पत्नी ने संतोष की साँस ली थी। लीला बोली थी, “ठीक किया।”

मुकुन्द ने कहा था, “तुम समझ रही हो कि हमारे बीच कुछ ख़राब हो गया है। लेकिन ये तुम सिर्फ़ अपनेआप के बारे में सोच कर समझ रही हो। ज़रा हमारी ओर भी देखो! क्या हम उसी तरह रह रहे हैं जैसे पहले रहते थे? नहीं! उस समय अच्छी-ख़ासी सैलरी आती थी, जी खोल कर ख़र्च करते थे . . .”

“तो अब अच्छी-ख़ासी पेंशन आती होगी। ऐसा तो सबके साथ होता है। रिटायर होते ही आदमी क्या खाना-पीना छोड़ देता है?” चित्रा तपाक से बोली थी।

“हमें पेंशन नहीं मिल रही, और न ही उसके जल्दी मिलने की उम्मीद है,” लीला धीरे से बोली थी।

“यह मैं नहीं मान सकती कि एक रिटायर्ड सेक्रेटरी को उसकी पेंशन नहीं मिलेगी। अरे, देर-सबेर हो रही होगी,” चित्रा ने ढिठाई से कहा था।

“लीला ठीक कह रही है, चित्रा। मेरी पेंशन मिलेगी कि नहीं, कोई नहीं कह सकता। मिनिस्टर के लेवेल से इंस्ट्रक्शन हैं मुझे परेशान करने के। शुक्र मनाओ कि सीबीआई नहीं लगाई गई है मेरे पीछे,” मुकुन्द गंभीरता से बोले थे।

“सीबीआई क्या लगाएगा कोई आपके पीछे? आपकी रेप्युटेशन ही इतनी क्लीन है!” चित्रा नर्म तो पड़ी, लेकिन आगे बोली थी, “भैया, आपको रिलेशन्स मेनटेन करने चाहिएँ। बातचीत करके, या जैसे भी हो, पेंशन रिलीज़ करवा लेनी चाहिए।”

“इतना आसान नहीं है। पता नहीं कहाँ किस ऑर्डर पर बैकडेटेड साइन करने पड़ें . . .” मुकुन्द बोल ही रहे थे कि देविका उनके पास आ गई थी। चित्रा उससे कुछ बोलने लगी, लीला नाश्ता बनाने में जुट गई और मुकुन्द खिड़की के सामने खड़े हो गए थे।

दूसरे दिन जाते-जाते चित्रा लीला की मुट्ठी में चुपके से दस हज़ार रुपए थमा गई थी। लीला ने कुछ बोलना चाहा, तो उसे आँखों से धमकी देकर चुप करा गई थी चित्रा।

जाने के बाद चित्रा महीने-दो महीने पर फ़ोन करती रही, फिर धीरे-धीरे सम्पर्क का वह सूत्र भी सूख गया था। याद नहीं, उससे बात हुए दस महीने गुज़रे थे या एक साल पूरा हो गया था। बात करते भी तो क्या? हर सवाल और जवाब ज़बानी याद हो चुका था सबको।

मुकुन्द खिड़की के सामने बैठे थे। अब वे ज़्यादा देर खड़े नहीं रह पाते थे, घुटनों में असहनीय दर्द होने लगता था। घोंसला सूना था, चिड़ियाँ जा चुकी थीं, लेकिन पेड़ की फुनगियों पर हलचल हो रही थी। पक्षियों का कलरव उन्हें अब भी आह्लादित करता था। चिड़ियों को देख-सुन वे सबकुछ भूल जाते थे। चहचहाहट के बीच एक और स्वर उभर रहा था, पर उन्हें कोई चिड़िया नहीं दिखी।

थोड़ी देर बाद वही स्वर दोबारा उभरा। धत् तेरे की! यह तो उनका फ़ोन बज रहा था। चश्मा लगा कर फ़ोन उठाने में इतनी देर हो गई कि रिंग बन्द हो गई। तब तक लीला भी वहीं आ गई।

“दो बार रिंग आई। देखिए, किसका है? पेंशन-रिलीज़ की तो कोई ख़बर नहीं?” लीला की आशावादिता सराहनीय थी।

“देख रहा हूँ,” स्क्रीन का मुआयना करते हुए मुकुन्द चौंके, “अरे! ये तो चित्रा के कॉल हैं। हे भगवान, क्या हो गया? सब ठीक तो है?”

“घबराते क्यों हैं, फ़ोन करके देख लीजिए।”

“हाँ, देखता हूँ। एक साल से उसने कॉन्टैक्ट नहीं किया। अब आज अचानक दो-दो कॉल कर दिए,” उन्होंने चित्रा का नम्बर मिलाया।

चित्रा के घर सब ठीक था। सब ठीक क्या था, बहुत अच्छा था। वह बोली, “भैया, पंद्रह तारीख़ को देविका की शादी है। हो सके तो आप लोग आइएगा।”

“अरे, देविका इतनी बड़ी हो गई? क्यों नहीं आएँगे चित्रा, ज़रूर आएँगे। क्या नाम है लड़के का? क्या करता है?” मुकुन्द प्रश्नों की झड़ी लगाने वाले थे कि चित्रा ने उन्हें रोक दिया, “भैया, कई जगह फ़ोन करना है, बहुत काम बाक़ी हैं। आज ज़्यादा बात नहीं कर पाऊँगी, प्लीज़। कार्ड में सब लिखा है, पढ़ लीजिएगा। आप दोनों को आमंत्रण है! ठीक है? फिर बाद में बात करते हैं, बाई!”

लीला उन्हें सवालिया निगाहों से ताक रही थी, “देविका की शादी है?”

“हाँ!” मुकुन्द ने भ्रमित-से स्वर में उत्तर दिया।

लीला ख़ुशी से बोली, “बड़ी अच्छी ख़बर है। कब है शादी?”

“पंद्रह को,” उत्तर मिला।

“पंद्रह को? इसी पंद्रह को? आज पाँच है। बस, दस दिनों में?” लीला को विश्वास नहीं हो रहा था।

“हूँ . . . महीना तो उसने नहीं बताया, पर अगर किसी और महीने में शादी होती तो वह भी बताती न! कहा कि कार्ड भेजा है,” मुकुन्द थोड़े गम्भीर हो गए।

“तब तो शादी इसी महीने है। और क्या कह रही थी?”

“कह रही थी कि ‘हो सके तो आइएगा’। ऐसा क्यों बोली वह? ‘हो सके’ का क्या मतलब है? सीधे नहीं बुला सकती थी?” मुकुन्द ने व्यग्रता से कहा।

“अरे, बोल भी दिया तो क्या गुनाह कर दिया? उसे क्या मालूम नहीं कि हम कितनी तंगी में दिन काटते हैं। याद नहीं दस साल पहले उससे क्या बात हुई थी, यहाँ क्या-क्या हुआ था?” लीला ने समझाया।

“वह तो ठीक है लेकिन शायद उसने सिर्फ़ फ़र्ज़ निभाने के लिए फ़ोन किया था। वरना ये क्यों कहती कि ‘आप दोनों को आमंत्रण है’? आमंत्रण तो फ़ॉर्मल होता है। स्टेज पर बुलाने के लिए कवियों को आमंत्रण दिया जाता है। अपनों को तो निमंत्रण दिया जाता है,” मुकुन्द की चिन्ता बरक़रार थी।

“ये तो बाल की खाल निकालनेवाली बात हुई! उसने मज़ाक में एक भारी लफ़्ज़ इस्तेमाल कर लिया होगा। वह आपकी तरह हिन्दी लिटरेचर थोड़े-ही पढ़ती है कि आमंत्रण और निमंत्रण में फ़र्क जाने। फिर, पूजा-पाठ में देवी-देवताओं को आमंत्रण ही दिया जाता है, निमंत्रण नहीं।”

लीला का तर्क अकाट्य था। मुकुन्द चुप हो गए। लीला उनका मुँह ताकती रही। जब ख़ामोशी बर्दाश्त से बाहर हो गई तो आक्रोश से बोली, “मैं जानती हूँ, आप क्यों चुप हैं। ख़र्चा! शादी में जाएँगे तो पैसे ख़र्च हो जाएँगे। बारह साल में हम कहाँ गए हैं? कहीं नहीं! ख़र्चा हो जाएगा। बारह साल में हमारे घर कौन आया है? सिवाय एक बार चित्रा को छोड़ कर कोई नहीं! क्यों नहीं बुलाते हम किसी को? ख़र्चा हो जाएगा। कोई नहीं पूछता हमें। मर जाएँगे तो भी किसी को पता नहीं चलेगा जब तक लाश की सड़ाँध से तंग आकर मुहल्लेवाले दरवाज़ा न तुड़वाएँ।”

मुकुन्द उसे देखते रहे, पर फिर भी कुछ न बोले। लीला भुनभुनाती हुई दीवार की ओर मुँह कर लेट गई। मुकुन्द सूने घोंसले को देख न जाने क्या सोचते रहे।

शाम की चाय का कप लेते हुए मुकुन्द बोले, “तुम ठीक कहती हो। देविका का जन्म हमारी कोशिशों का ही नतीजा है। हम उसके माँ-बाप नहीं हैं, लेकिन हम ऑर्डिनरी रिलेटिव भी नहीं हैं। फिर चित्रा मेरी इकलौती बहन है और देविका उसकी इकलौती बेटी। जाना चाहिए शादी में।”

लेकिन उतनी देर में लीला का विचार बदल चुका था, “जाना चाहिए तो ज़रूर, पर जाएँगे कैसे? शादी की डेट कोई आज तो फ़िक्स हुई नहीं होगी। वह हमें पहले बता सकती थी। दस दिनों में शादी है और आदमी कम-से-कम दो दिन पहले तो जाएगा। आज का दिन तो निकल ही चुका है। यानी रफ़ली सिर्फ़ एक हफ़्ते का टाइम दिया है उसने। इतनी शॉर्ट नोटिस पर कहाँ मिलेगी ट्रेन में जगह? ईवेन, प्लेन में भी बहुत मँहगीवाली सीट ही मिलेगी। कहाँ जाना है ये भी नहीं पता। कार्ड पता नहीं कब मिलेगा। हो सकता है न भी मिले।”

“कह रही थी कि बहुत बिज़ी है,” मुकुन्द बोले।

“कितनी भी बिज़ी हो, अगर उसे सचमुच बुलाना होता तो पहले बुलाती। और ये कैसा बुलाना कि मनोज ने बात ही नहीं की?” लीला ने शंका ज़ाहिर की।

“अब, मनोज तो पहले भी कहाँ बात करता था? जहाँ तक चित्रा का सवाल है, हो सकता है उसे हमारे आने के बारे में डाउट हो और उसलिए उसने पहले फ़ोन नहीं किया,” मुकुन्द ने स्पष्टीकरण दिया।

“तो बात वही हुई न, कि हमें बुलाया तो है पर मन से नहीं। अब ऐसे बेमन के बुलावे पर हम पचास हज़ार ख़र्च कर दौड़े चले जाएँ या इग्नोर कर दें?”

“इग्नोर कैसे करेंगे? मैं उसे कह चुका हूँ कि हम ज़रूर आएँगे। फिर तुम ख़ुद भी कहती हो कि हम सबसे अलग-थलग ऐसे जी रहे हैं कि क्राइसिस में कोई पूछनेवाला भी नहीं होगा। न! जाना ही ठीक होगा,” मुकुन्द का मतिभ्रम छँट चुका था।

“ओ के! तो लेट अस प्रिप्रेयर ए टू-डू लिस्ट विथ द कॉस्ट इनवॉल्व्ड!” लीला ने डायरी पर क़लम टिका दी और मुकुन्द लैपटॉप पर रेलगाड़ी में बर्थ तलाशने लगे।

तेरह तारीख़ को उन्होंने चित्रा को फ़ोन किया, “चित्रा! हम कल आ रहे हैं। बड़ी मुश्किल से अभी एसी टू टीयर में जगह मिली है, ‘तत्काल’ कोटे में।”

“वेरी गुड, भैया। आप दोनों आ रहे हैं न? अकेले तो मुझसे संभल ही नहीं रहा। आप आएँगे तो बड़ी हेल्प हो जाएगी,” बोलते-बोलते वह किसी और से बात करने लगी। स्पष्ट था कि वह बहुत व्यस्त थी।

“हाँ चित्रा, हम दोनों आ रहे हैं।”

“ओके भैया, कल बात होगी। सॉरी, बहुत बिज़ी हूँ . . .” वह फिर किसी से बात करने लगी और सम्बन्ध कट गया।

“ये बताने की क्या ज़रूरत थी कि हम एसी टू टीयर में आ रहे हैं?” लीला ने पूछा।

“अरे, वह नहीं बताऊँगा तो वह रिसीव करने कैसे आएगी?” मुकुन्द चिढ़े।

“आप भी न! आपसे दो मिनट फ़ोन पर बात करने का समय तो मिलता नहीं उसे, और वह आएगी आपको स्टेशन पर रिसीव करने? अगर ऐसा ही होता तो ट्रेन का नाम नहीं पूछती वह?”

लीला का व्यावहारिक ज्ञान मुकुन्द के फ़लसफ़े पर भारी पड़ा, उन्हें स्टेशन पर लेने कोई नहीं आया। दोनों रिक्शा कर, पूछते-पाछते, मनोज की हवेली पर पहुँचे, तो दंग रह गए। चहारदीवारी पर लगे लोहे के नक़्क़ाशीदार दरवाज़े की जालियों से उस दो-मंज़िला मकान के आगे फैली हरी घास के बाग़ीचे में महलनुमा तम्बू लगता दिख रहा था। बाग़ीचे के चारों ओर क्यारियों में तरह-तरह के गुलाब खिले थे। दरवाज़े से लगता ड्राइव-वे कहीं अंदर, ख़ूबसूरत घने पेड़ों के पीछे, गुम हो रहा था।

संतरी को परिचय देने से पहले ही उन्हें किसी ने कैमरे की मदद से अंदर देख लिया और दरवाज़े खुल गए।

चित्रा उन्हें देखकर खिल गई। गले मिल कर बोली, “भैया, आज ‘संगीत’ है। गाना गाना होगा आपको भी।” मनोज भी आदर से मिला। देविका रूप-सज्जा कराने गई हुई थी, सो उससे मुलाकात न हो सकी।

मुकुन्द एक मर्मस्पर्शी गीत लिख कर लाए थे। उसमें देविका के जन्म से उनके सम्बन्ध का सांकेतिक विवरण था। गीत की धुन भी बढ़िया थी। वैसे तो गाना उन्हें कंठस्थ हो चुका था, पर फिर भी कमरे में जाकर उन्होंने गायन का एक अभ्यास और कर लिया।

लेकिन, गाना गाने की नौबत नहीं आई। चित्रा ने लीला को मेहमानों की औपचारिक आवभगत का ज़िम्मा सौंप दिया था। मुकुन्द अकेले क्या करते, वे भी लीला के साथ हो लिए। पाँच मिनट भी नहीं गुज़रे होंगे कि मनोज उनके पास आकर मुस्कुराया, “भैया, आप कहाँ इस पचड़े में पड़ गए?” फिर पीछेवाली पंक्ति की एक टेबल इंगित कर बोला, “आप वहाँ आराम से बैठ कर ड्रिंक्स-स्नैक्स लीजिए न।” हँस कर कहता गया, “यहाँ सरकारी लोग आपको देख कर कॉन्शस हो रहे हैं।”

मुकुन्द का चेहरा स्याह हो गया। आसपास के अतिथियों को देख कृत्रिम रूप से मुस्कुराते, पेय की चुस्कियाँ लेते, और फूहड़ गानों और बेहूदा नृत्यों पर ताली बजाते हुए वे चार घंटे उन्होंने कैसे काटे, वे ही जानते थे। एक बार लीला ने पास आकर कहा, “सब लोग नाच-गा रहे हैं। आप क्यों नहीं जा रहे? जाइए!” शोर-शराबे में उनका उत्तर लीला के कानों तक पहुँचने से पहले ही गुम हो गया, और वह मुस्कुराती हुई वापस चली गई।

रात में उसे मुकुन्द के गीत की याद आई, “आपने गाना क्यों नहीं गाया?”

मुकुन्द अनमने से बोले, “वैसे ही! मन नहीं हुआ।”

लीला ने पूछा, “किसी ने कुछ कहा क्या?”

मुकुन्द मौन रहे। वे जानते थे कि उनके विपरीत, लीला की शाम अच्छी बीती थी, उसे इतना आनन्द आया था कि वह समारोह के दौरान मुकुन्द को भूल-सी गई थी। बेचारी को इतने सालों के बाद ख़ुशी मिली थी, उसका मज़ा क्यों ख़राब किया जाए?

वे छत देखते हुए छटपटाते रहे। फिर सोचा, क्यों न बता ही दें उसे। उन्होंने लीला के कन्धे पर हाथ रखा। वह सुगबुगाई तक नहीं। लीला के मंद-मंद खर्राटे उसकी थकावट का सबूत दे रहे थे। मुकुन्द करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगे।

अगली सुबह हल्दी का उबटन लगाने की रस्म के दौरान बहुत हँसी-ठठ्ठा हुआ। लीला को उतना आनंदित पहले कब देखा था, मुकुन्द भूल चुके थे। वे दीवार के सहारे कुर्सी लगा कर बैठे रहे। वैसे भी, महिलाओं के उस कार्यक्रम में मर्दों की भूमिका न के बराबर थी।

रात में बारात के स्वागत से मुकुन्द दूर ही रहे। एक कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठ कर तब तक सारा कार्यक्रम देखते रहे, जब तक दूल्हा-दुल्हन के साथ फ़ोटोग्राफ़ के लिए उन्हें स्टेज पर नहीं बुलाया गया। उनका दम घुटने लगा था। एक-दो-बार बाहर गए, पर जी बहलने की बजाय बाहर सड़क पर सरकारी गाड़ियों की क़तार देख कर उनका मिज़ाज और चिड़चिड़ा गया। ज़ाहिर है, वे उन अधिकारियों की गाड़ियाँ थीं जो शादी में आए थे। उन्हें सरकारी सहूलियत के बेजा इस्तेमाल से परहेज़ ही नहीं था, नफ़रत भी थी।

अतिथियों का भोजन समाप्त होने पर दूल्हा-दुल्हन और क़रीबी रिश्तेदारों के लिए टेबिलें सजीं। मुकुन्द देविकावाली टेबिल के पास जा ही रहे थे कि चित्रा उनके पास आकर फुसफुसाई, “भैया, वे लोग इतने हैं कि कोहनी-से-कोहनी टकराने की नौबत आ गई है। प्लीज़, आप इस बग़ल वाली टेबिल पर बैठ जाइए।”

“हाँ, हाँ, नो इश्यूस,” कह कर लीला ने उन्हें इंगित टेबिल पर बैठा दिया। उस टेबिल पर अन्य लोग भी थे। कोई ज़्यादा-से-ज़्यादा बातें करने में व्यस्त था, तो कोई अधिक-से-अधिक पकवान खाने में।

मुकुन्द की रुचि न खाना खाने में थी, न बातचीत करने में। उन्हें गुमसुम देख लीला बोली, “कुछ खा नहीं रहे हैं। तबीयत तो ठीक है न आपकी? आज देर तक जागना है विदाई के लिए, और रात में ट्रेन भी पकड़नी है।”

“मैं ठीक हूँ, बस थोड़ी हरारत-सी हो गई है,” उन्होंने पीछा छुड़ाया। पचास साल में उन्हें पहली बार कहीं बैठने से रोक दिया गया था – यह बात समझने की थी, बताने की नहीं।

देविका की विदाई के बाद वे देर तक सोते रहे। दोपहर के खाने के समय उनकी गंभीरता को देविका की विदाई की पीड़ा समझ लीला चुप रही। चित्रा से थोड़ी बात हुई, पर मनोज से उतनी भी नहीं।

अंत में जाने का समय आ गया। चित्रा ने ना-ना करने पर भी बहुत-से पकवान बँधवा दिए। मनोज ने एक ड्राइवर से उन्हें स्टेशन छोड़ आने को कहा। घर से निकलते-निकलते चित्रा फिर गले मिली। आश्चर्य! मनोज भी गले लगा। बोला, “सरकारी लोगों में आज भी आपकी चर्चा होती है। चीफ़ सेक्रेटरी मलहोत्रा बोले कि आप जैसा ईमानदार अफ़सर न पहले कभी आया था और न उसके कभी भविष्य में आने की उम्मीद है। कह रहे थे कि आज भी वहाँ आपकी ट्रांसपेरेंसी और एफ़िशियेंसी के एक्ज़ाम्पल दिए जाते हैं। मैंने भी कह दिया, ‘तो क्या इसीलिए उनकी पेंशन नहीं दी जा रही, कि कोई दूसरा उनके जैसा ईमानदार न बने?’ तिलमिला गए! बोले, ‘मुझे तो पता ही नहीं था। अभी रिलीज़ करवाता हूँ मनडे को’।”

मुकुन्द को सुखद आश्चर्य हुआ। मनोज का हाथ थाम फीकी हँसी हँस कर बोले, “अब तक न जाने कितने मनडे आकर गुज़र चुके हैं।”

“मेरे मलहोत्रा से स्पेशल टर्म्स हैं। जब उन्होंने ख़ुद ही कहा है, तो पीछे नहीं हटेंगे।”

दूसरे दिन सुबह मुकुन्द ने खिड़की के सामने खड़े होकर पेड़ की ओर देखा। घोंसला अब सूना नहीं था। वहाँ गौरैया का एक नया जोड़ा मँडरा रहा था।

लीला कमरे में शादी के पकवान लेकर दाख़िल हुई, “आज इन्हीं का नाश्ता कर लेते हैं। दोपहर से प्रॉपर खाना बनाऊँगी।”

पति-पत्नी व्यंजनों का रस ले-लेकर नाश्ता करने लगे।

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