रुक्मिणी
नाट्य-साहित्य | नाटक अमिताभ वर्मा15 Feb 2021 (अंक: 175, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
पहला दृश्य
(फ़ुटपाथ पर तीन लोग लैम्प-पोस्ट के नीचे खड़े ठहाके मार-मार कर बातचीत कर रहे हैं।)
पुरुष 1:
क्या बात है, क्या बात है! भाई, मान गए! हरीश, तुम तो हँसी का ख़ज़ाना हो!
पुरुष 2:
हरीश को मीटिंग्स में देखो, तो कितना गंभीर लगता है! लेकिन आज जैसे-जैसे मीटिंग ख़त्म हुई और गाला डिनर शुरू हुआ, हरीश का तो कुछ और ही रंग नज़र आता गया!
पुरुष 1:
मल्टी फ़ैसेटेड पर्सनैल्टी है अपना हरीश! सुना है कि एक ज़माने में रणजी ट्रॅाफ़ी खेल चुका है, और दूसरी ओर साहित्य का शौक़ भी रखता है।
पुरुष 2:
अच्छा! भाई यह तो मुझे मालूम ही नहीं था। जिस तरह प्याज़ की पर्तें उधड़ती हैं, वैसे ही तुम्हारी पर्सनैल्टी के नए-नए पहलू सामने आ रहे हैं, हरीश! चलो, किसी दिन खुल कर बातें होंगी!
हरीश:
बिलकुल! अब चलें!
पुरुष 1:
मैं अपनी गाड़ी में छोड़ दूँ तुम्हें, हरीश?
हरीश:
नहीं! मैं ख़ुद ही चला जाऊँगा।
पुरुष 2:
अरे भाई, रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। सारी दुकानें बंद हो चुकी हैं। यहाँ तक कि पान की दुकानें भी बंद हो गई हैं। सन्नाटा छाने लगा है।
हरीश:
वह क्या है कि मुझे अच्छा लगता है सुनसान में चलना। और, कोई बहुत दूर थोड़े ही जाना है! बग़ल में ही तो है मेरा होटेल!
पुरुष 1:
ठीक है हरीश, मर्ज़ी तुम्हारी! गुड नाइट!
हरीश:
गुड नाइट!
(पुरुष 1 गाड़ी में बैठ कर दरवाज़ा बन्द करता है। दूसरा आदमी भी गाड़ी में बैठ जाता है। गाड़ी जाती है।)
हरीश:
गए दोनों! अब मै हूँ, कल्पना की ऊँचाई की तरह ऊपर बादलों से लुका-छिपी खेलता चाँद है, और यथार्थ की सच्चाई की तरह यह चौड़ी, सपाट, चमकती सड़क है जिसके दोनों तरफ़ लोहे-शीशे-गारे-ईंटों के जाल हैं, जिन्हें इमारतें कहते हैं! कितनी साँसें हर घड़ी कै़द हो कर रह जाती हैं इन इमारतों में! कितने सपने दफ़्न हो जाते हैं! कितनी हसरतें दम तोड़ देती हैं! लोगों की आँखें इन इमारतों की चमक-दमक से चुँधिया जाती हैं, लेकिन दर्द का कितना बड़ा सैलाब अंदर हिलोरें मारता है, यह जानने की न किसी को इच्छा है, न वक़्त! वाह रे ज़िंदग़ी! चलूँ अपने होटेल!
(क़दमों की आवाज़ गूँजती है।)
हरीश:
सड़क के अँधेरे कोने में खड़ी सस्ते पाउडर और सेण्ट में सराबोर यह औरतें! (हँसता है।) साहिर साहब ने क्या ख़ूब कहा था − यह सदियों से बेख़्वाब सहमी-सी कलियाँ, यह मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ, यह बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ। ... वह रिक्शावाला तो मेरे पास ही आ रहा है!
रिक्शावालाः
साहब, इंटरटेनमेंट चाहिए?
हरीश:
अभी पाँच मिनट पहले तक मैं लोगों को एंटरटेन कर रहा था, तरह-तरह के चुटकुले सुना कर उनका मनोरंजन कर रहा था! और अब तुम मेरा एंटरटेनमेंट कराओगे? क्या एंटरटेनमेंट है दोस्त?
रिक्शावालाः
चलिए साहब, लिए चलता हूँ। आप ख़ुद देख कर पसंद कर लीजिएगा अपना इंटरटेनमेंट!
हरीश:
एंटरटेनमेंट! कितना सभ्य नाम उढ़ा दिया तुमने हवस की ख़रीद-फ़रोख़्त को! आदमी दूसरों को धोखा देता है, तो ख़ुद को भी धोखा देता है, ताकि जीना आसान लगने लगे। यह नहीं जानता कि शौक़ हर रंग रक़ीबे-सरो-सामाँ निकला, क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला, दिल में फिर गिरिया ने इक शोर उठाया ग़ालिब, आह! जो क़तरा न निकला था, सो तूफ़ाँ निकला! ... चलो!
दूसरा दृश्य
(तंग कोठरी जिसमें एक फ़ोल्डिंग चारपाई और एक लोहे की आलमारी है। आलमारी पर ग़र्द भरी गठरियाँ और पुलिंदे हैं। एक ओर दो फ़ुट लंबा-चौड़ा झरोखा है। एक छोटी-सी तिपाई पर अगरबत्ती जल रही है। कमरे में तबले की धमक और घुँघरू की आवाज आ रही है।)
हरीश:
छिः! कैसी गंदी जगह है! इस बेचारी अगरबत्ती की ख़ुश्बू सीलन की गमक से बार-बार परास्त हो रही है।
(पायल, दरवाज़े के कब्ज़ों के चरमराने, दरवाज़ा बंद होने, और साँकल चढ़ाने की आवाज़। कमरे में एक लड़की आ गई है।)
हरीश:
आ गईं? आओ, बैठो। ऐसा नहीं कि मैं पहली बार ऐसी जगह आया हूँ। और ऐसा भी नहीं लगता कि तुम किसी से इस तरह पहली बार मिल रही हो। यह जगह बदनाम ज़रूर है, लेकिन मंटो से लेकर मोराविया तक न जाने कितने साहित्यकारों का प्रेरणास्रोत रही है। (ठण्डी साँस भर कर) फ़ासले ऐसे भी होंगे, यह कभी सोचा न था, सामने बैठा था मेरे, और वह मेरा न था! ... ऐसे गठरी की तरह न बैठो! मेरी तरफ़ देखो, और मुझे भी देखने दो। ... इधर देखो, ऐसे! (चौंक कर) अरे! तुम कितनी छोटी हो, जैसे कोई बच्ची ही हो! ... हाँ! तुम्हारे चेहरे पर मासूमियत की झलक बाक़ी है। ... और तुम्हारी पलकों की कोर पर उतर आए यह दो मोती इस बात की गवाही दे रहे हैं कि अगरबत्ती की इस महक में तुम्हारा दम घुटता है। तुम यहाँ नई आई हो?
रीताः
एक साल हो गया।
हरीश:
एक साल! नर्क की यह चक्की तो बस एक महीने में पत्थर को पानी में तब्दील कर देती है! तुम पर एक साल में रंग न फेर सकी? कमाल है! लगता है, तुम्हारे जिस्म से ज़्यादा दिलचस्प तुम्हारा ज़ेहन होगा। तुमसे बात करने का मन कर रहा है।
रीताः
यहाँ बात नहीं करते। सब सुनाई देता है!
हरीश:
अच्छा! तो, बाहर चलोगी?
रीताः
मौसी से पूछिए! लेकिन उसका अलग पैसा लेगी!
हरीश:
बाहर जाने तो देगी न?
रीताः
हाँ! शुरू-शुरू में तो मना करती थी, पर पिछले महीने दो बार जाने दिया था।
हरीश:
ठीक है, मैं अपने होटेल ले चलूँगा तुम्हें! डरोगी तो नहीं?
रीताः
डर शरीर के बचाव के लिए लगता है। जब शरीर ही नहीं बचा, तो डर किस बात का? लाश को न डर लगता है, न ख़ुशी होती है!
हरीश:
सही बात है! ... ज़िंदग़ी है या कोई तूफ़ान है, हम तो इस जीने के हाथों मर चले! ... आज्ञा ले कर आता हूँ तुम्हारी सम्माननीय मौसीजी से!
तीसरा दृश्य
(होटल का कमरा)
हरीश:
इस कारोबार में असली नाम-पते छुपा लिए जाते हैं। नक़ली पहचान पर बदनामी की मुहर लगी भी, तो क्या लगी! जैसे क़ीमती सामान पर चढ़ी प्लास्टिक की पर्त पर गंदगी लग गई हो। कपड़ा फेरा, पुँछ गई! नाम बदल लिया, बदनामी धुल गई! लेकिन फिर भी, मैं बता दूँ कि मेरा असली नाम हरीश है। बताना मेरी मजबूरी है, क्योंकि होटेल में कमरा मेरे असली नाम से ही बुक है। चाहो, तो अपना नाम बता सकती हो!
रीताः
रीता!
हरीश:
रीता! भूख लगी है? कुछ खाओगी?
रीताः
नहीं! आपको जो करना है, जल्दी करिए, और मुझे वापस छोड़ आइए!
हरीश:
बिल्कुल! व्यापार तो व्यापार है। सौदे में मुरव्वत कहाँ? रीता, जानती हो, मेरी बीवी है जो मुझे जान से ज़्यादा प्यार करती है। बेटी है, जो तुमसे बड़ी है। शादी हो चुकी है उसकी! एक बेटा भी है। उसकी शादी अभी नहीं हुई। हम सभ्य लोग हैं। या, यूँ कहें, हम अपनी असभ्यता को बड़ी सफ़ाई से ढँके रहते हैं। हम पर कोई उँगली भी नहीं उठा सकता।
रीताः
मुझे क्यों सुना रहे हैं यह सब? जल्दी से अपना काम करिए न!
हरीश:
क्या 'काम करिए, काम करिए' की रट लगाए बैठी हो? उस सात फ़ुट की कोठरी के बजाय आलीशान होटेल के इस एयरकण्डीशण्ड ख़ुश्बूदार कमरे में दो पल शांत नहीं बैठ सकतीं? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि तुम मेरी बेटी से भी छोटी हो? शर्म न आती हो, न सही, घिन भी नहीं आती तुम्हें? तुम सिर्फ़ बातें नहीं कर सकतीं?
रीताः
बात नहीं करने से आप मारेंगे?
हरीश:
नहीं बेटी, मैं तुम्हें मारूँगा नहीं। मैं तुम्हारे साथ कोई ज़बर्दस्ती नहीं करूँगा। चाहो, तो चुपचाप सो जाओ उस दूसरे बिस्तर पर। कल सुबह तुम्हें छोड़ आऊँगा मौसी के पास!
रीताः
ठीक है।
हरीश:
तुम्हें मौसी के पास जाना अच्छा लगेगा?
रीताः
दूसरा कोई चारा नहीं है।
हरीश:
क्यों? मैं तुम्हें भगा ले जाऊँ, तो?
रीताः
नहीं भगा पाएँगे! मौसी को ख़बर हो जाएगी! उसका जाल बहुत बड़ा है। होटल के बाहर ही आपको रोक लिया जाएगा।
हरीश:
अच्छा! ऐसा हुआ है कभी?
रीताः
जी हाँ! मौसी की लड़कियों को भगाने की हिम्मत कोई नहीं करता। आप उन्हें ख़रीद सकते हैं, भगा कर नहीं ले जा सकते!
(घण्टी बजती है।)
हरीश:
रात के एक बजे यह कौन आया, देखूँ! (दरवाज़ा ख़ोलता है)
वेटरः
सलाम साहब! कुछ चाहिए?
हरीश:
नहीं। कुछ चाहिए होगा, तो फोन कर दूँगा। थैंक यू!
वेटरः
थैंक यू, सर! गुड नाइट!
हरीश:
गुड नाइट! (हरीश दरवाज़ा बंद करता है़)
हरीश:
गया! जासूसी करने आया था! सोचता होगा कि दरवाज़ा ख़ुलने में देर लगेगी, मैं किसी और ही हाल में मिलूँगा, और ... वैसे, ग़लत भी क्या है इस तरह सोचने में?
रीताः
आप अपने-आप से बोलते रहते हैं, मेरे बाबा की तरह!
हरीशः
बाबा?
रीताः
हाँ, मेरा बाबा!
हरीशः
क्या करता था तुम्हारा बाबा?
रीताः
किसान था। रोज़ सुबह खेत पर जो जाता, तो अँधेरा होने पर ही लौटता था। झोंपड़ी के पास आ कर पैर धोता, और फिर ज़मीन पर पसर जाता। ज़रा भी हिले-डुले बग़ैर। कई बार डर लगता, बाबा मर तो नहीं गया! मैं चुपके से पास जा कर देखती। उसके शरीर से बूढ़ी चमड़ी, पसीने, और मिट्टी की मिली-जुली महक आती। मुझे अच्छी लगती। उसकी पसलियाँ ऊपर-नीचे होतीं, धीरे-धीरे। गले में एक गड्ढा-सा हिलता। मुझे तसल्ली हो जाती। मेरा बाबा ज़िंदा है! मैं पुकारती, "बाबा!" बाबा कहता, "बेटी, हुक्का दे!"
हरीश:
तुम्हारे घर में और कोई नहीं था?
रीताः
नहीं! माँ मेरे बचपन में ही गुज़र गई। तीन बहनें थीं। उनको बाबा ने ब्याह दिया। हर ब्याह में ज़मीन बिकती गई। जब तीसरी बहन का ब्याह हुआ, ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा भी बिक गया।
हरीश:
फिर?
रीताः
बाबा दूसरों की ज़मीन पर खेती करने लगा। मैं दोपहर में उसे ज्योना पहुँचाती। वह कभी हल जोत रहा होता, कभी फ़सल काट रहा होता, कभी क्यारियाँ सँवार रहा होता। कुछ बुदबुदाता हुआ।
हरीश:
क्या बुदबुदाता था वह?
रीताः
उसकी ज़िंदगी से जुड़ी अधूरी बातें! "अच्छा, अगली बार दे देंगे" ... "हो जाएगा" ... "भगवान सबकी सुनते हैं" ... "अभी उमर नहीं हुई है" ... "इसको भी पार लगा देंगे" ... "सब ठीक हो जाएगा" ... यही सब बोलता था!
हरीश:
क्या वह बहुत बूढ़ा था?
रीताः
चालीस भी नहीं पहुँचा था! लेकिन देखो, तो उम्र ज़्यादा लगती थी। हाथ-पैरों में मोटी-मोटी नसें उभरी हुई थीं। आँखें अंदर धँसी थीं। पेट पीठ से मिला हुआ था। झुक कर चलता था। लगता था, माँ की अर्थी और तीन बहनों की डोली का बोझ उसके कंधों से उतरा ही नहीं। जब पैसे मिलते, तब भी उसके कंधे झुके ही रहते। बड़ी देर तक हिसाब जोड़ता। पैसे हर बार उसकी उम्मीद से कम निकलते। वह मायूस हो जाता। समय के साथ उसकी मायूसी में बरक़्क़त होती गई। वह कमज़ोर होता गया, मैं बड़ी होती गई, मँहगाई बढ़ती गई।
हरीश:
फिर?
रीताः
उसे मेरी शादी की चिंता सताने लगी। वह हर समय बड़बड़ाने लगा। ले-दे कर उसका था ही कौन? तीन दामाद, और गाँव के लोग! सबके पास जाता, गिड़गिड़ाता, "मेरी बेटी पार लगा दो।" बड़ा अच्छा आदमी था। लेकिन सिर्फ़ अच्छा होने से ही तो दुनिया में सब नहीं हो जाता! सब जानते थे, बाबा के पास पैसा नहीं है। उसकी बात सुनते। तसल्ली देते, आशा दिलाते। बाबा लौट आता। मुझे बहुत प्यार करता था। बोलता, लोग कहते हैं, मदद कर देंगे। कुछ दिन ख़ुश रहता। असलियत
मालूम पड़ जाने पर फिर बुदबुदाने लगता। उसकी कमर कुछ और झुक जाती। हाथ-पैरों की नसें और उभर आतीं। नींद में बड़बड़ाता, "हो जाएगा" ... "पार लगा देंगे" ...
एक दिन मेरा मँझला जीजा आया। बाबा से न जाने क्या बात की। बाबा ख़ुश हुआ। इतना ख़ुश, कि मुझे जीजा के साथ उसके गाँव भेजने पर तैयार हो गया। बोला, दो दिन की तो बात है। मुझे जीजा पसंद नहीं था। मैं बहुत रोई। फिर, मेरे बिना बाबा को खाना कौन खिलाता, उसके पैर कौन धुलाता, उसका हुक्का कौन बनाता? लेकिन, बाबा नहीं माना। मुझे गाँव के बाहर तक छोड़ने आया। अलग होते समय अण्टी खोल कर मुझे सारे-के-सारे पैसे दे दिए। पूरे सतरह रुपए थे। मैंने बाबा के पाँव और गाँव की मिट्टी पर सिर लगाया, और टीन की हरी संदूकची लेकर जीजा के साथ चलने लगी।
हरीश:
हूँ।
रीताः
तीन-चार कोस चलने के बाद बस अड्डा आ गया। मैं समझी, जीजा मुझे ले कर बस में चढ़ेगा। लेकिन वह मुझे एक मोटर के पास ले गया। मोटर में एक आदमी और एक औरत पहले से बैठे थे।
चौथा दृश्य
(एक छोटी वैन के आगे एक पुरुष और एक स्त्री खड़े हैं। वैन के अन्दर दो लोग बैठे हैं।)
जीजाः
रुक्मिनी, पैर छू इनके, यही तेरे सास-ससुर हैं! हाँ, जा, बैठ जा गाड़ी में।
रीताः
तुम संग नहीं आओगे?
जीजाः
हम दूसरी गाड़ी से आएँगे। इसमें जगह नहीं है न! ला, तुझको बाबा कुछ पैसा दिया था न? हमको दे दे, हम सँभाल कर रख लेंगे!
रीताः
वह तो ...
औरतः
दे दो बेटी, ज़िद नहीं करते! और ए जी, तुम बोरे की तरह बैठे क्या हो? उतरो गाड़ी से और दे दो इनको इनका हक़।
(एक आदमी वैन से उतर कर जीजा को कुछ देता है। रीता, औरत और दोनों आदमी वैन में बैठ जाते हैं।)
औरतः
अब इतनी देर मत लगाओ। चलो भैया, बढ़ाओ गाड़ी!
(वैन चलने लगती है। ध्वनि इफ़ेक्ट आता है।)
औरतः
अरे बेटी, लगता है बड़ी दूर से पैदल चल कर आई हो! कितनी धूल है तुम्हारे चेहरे पर! ये लो, ये इत्र से भीगा रुमाल लो, और चेहरा पोंछ लो, ताज़गी आ जाएगी। ठीक से पोंछो बेटी। लाओ, मैं पोंछ देती हूँ, हाँ, ऐसे!
औरत (बुदबुदाते हुए):
हो गई बेहोश! तीन घण्टे तक इसे होश नहीं आएगा। और जब होश आएगा ...
पाँचवा दृश्य
(होटल का कमरा)
रीताः
उसके आगे की बात मैं नहीं सुन सकी। होश आया, तो शायद तीन-चार घण्टे गुज़र चुके थे। मोटर किसी अनजान शहर की सीमा पर एक मकान के आगे रुकी। मुझे एक कमरे में ले जाया गया।
(ध्वनि इफ़ेक्ट)
रीताः
मैं नहीं रहूँगी यहाँ! मैं वापस जाऊँगी। मेरे बाबा घर वापस आ गए होंगे। छोड़ दो मुझे! मैं बाबा के पास जाऊँगी, मैं बाबा के पास जाऊँगी ... (रो पड़ती है)
(ध्वनि इफ़ेक्ट समाप्त होता है)
रीताः
बाबा के पास मैं फिर कभी नहीं जा सकी। लेकिन मेरा मन बाबा से दूर कभी नहीं जा सका।
हरीश:
उस कमरे में क्या हुआ तुम्हारे साथ?
रीताः
उसमें मैं एक रात रही। दूसरे दिन मेरे सास-ससुर − वह औरत और वह आदमी − नहीं दिखे। मैं एक दूसरे आदमी के साथ थी।
छठा दृश्य
(एक अतिसामान्य कोठरी)
दूसरा आदमीः
अरी, तू ग़लत लोगों के चक्कर में पड़ गई थी! क़िस्मतवाली है, जो मैं आ गया। पूरे पाँच हज़ार रुपए दिए, तब छोड़ा उन्होंने, हाँ! मैं तो मस्तमौला आदमी हूँ! किसी का भला होता हो, तो पैसा क्या चीज़ है, हाथ का मैल! ले, बीड़ी पिएगी?
रीताः
नहीं!
दूसरा आदमी (हँसता है):
अच्छा, मत पी! (क़श ले कर) मैं बहुत बड़ा कारोबार करता हूँ। पचास आदमी काम करते हैं मेरे अण्डर। बहुत कमाई है। अब तेरे दुःख के दिन गए। मेरा पैसा भी तो तेरा ही है। मेरे साथ शहर में रहना।
रीताः
और बाबा?
आदमी (अचकचा कर):
बाबा? बाबा कौन? (हँसता है) अच्छा, तेरा बाबा! अरे वह भी हमारे साथ रहेगा आराम से!
रीता (ख़ुशी से):
सच? बाबा को ज़िंदगी में पहली बार आराम मिलेगा?
आदमीः
हाँ! चल, पास आ। अरी आ ना!
रीताः
नहीं!
आदमीः
शरमा मत, आ!
सातवाँ दृश्य
(होटल का कमरा)
रीताः
उस बार मैंने पहली बार जाना, कि हर आदमी बाबा नहीं होता। और उसके बाद, हर रात जानती आई हूँ!
हरीश:
उस आदमी ने तुमसे शादी की?
रीताः
उसने मुझे चार-पाँच दिन अपने पास रखा। मैं भुलावे में आ गई। बच्ची ही तो थी! फिर, उसने मुझे मौसी के हवाले कर दिया। यहाँ हर रोज़ दस-पंद्रह लोग मुझसे मिलते हैं। हर मुलाक़ात मुझे बाबा से एक क़दम और दूर ले जाती है। मुझे दो दिन के लिए भेजा था उसने! अब एक साल हो गया। उसकी आँखें पथरा तो नहीं गई होंगी? वह ... वह ... वह ज़िंदा तो होगा? उसने मुझे क्यों अलग किया? मैं साथ रहती, तो क्या बुरा होता?
हरीश (रुँधे गले से):
बेटी! हर बाप चाहता है कि उसकी बेटी सुखी रहे। तुम्हारे बाबा ने भी यही चाहा।
रीताः
बाबूजी, सुबह होने में कितनी देर है?
हरीश:
अब सुबह होने में देर नहीं!
रीताः
तो आप मुझे मौसी के पास छोड़ देंगे?
हरीश:
नहीं! छोड़ूँगा नहीं, छुड़ा लूँगा! मेरी एक बेटी की शादी हो गई, तो दूसरी बेटी मिल गई मुझे! हम तुम्हारे बाबा के पास ज़रूर जाएँगे, लेकिन मैं ज़रा पुलिस में जान-पहचानवाले एक अफ़सर को फोन कर लूँ ताकि आदरणीय मौसी इस बार तुम्हें न रोक पाएँ। ... तुमने मुझे सबकुछ सचसच बताया है न रीता?
रीताः
हाँ, एक बात के सिवाय!
हरीश:
कौन-सी बात?
रीताः
मेरा नाम रीता नहीं, रुक्मिणी है। रीता नाम तो मौसी ने दे दिया।
हरीश:
रुक्मिणी, मुझे मालूम है! तुम्हारे बाबा का दिया नाम बड़ा अच्छा है। और तुम्हारे संस्कार भी। काश, तुम्हारे जैसी परेशानी में फँसी हर लड़की तुम्हारी तरह ही उससे उबर सके! काश, अब हर सुबह ऐसी ही हो।
(हरीश फ़ोन मिलाने लगता है।)
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