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कूड़ेवाला ट्रक

पता नहीं वह कौन शख़्स था जिसने आदमी के जीवन के पड़ावों को अलग-अलग नाम दिए, लेकिन वह जो भी था, उसे थोड़ी रियायत तो बरतनी चाहिए थी! अब देखिए न, सिर्फ़ पैंतालीस-पचास की उम्र होते-होते आदमी शैशवावस्था, बचपन, किशोरावस्था, जवानी और अधेड़ावस्था की तमाम सरहदें पार कर बुढ़ापे की झोली में ऐसा टपकता है कि उसके बाद चाहे पचास साल और ज़िन्दा रहे या पाँच वर्ष, बूढ़ा ही कहलाता है। बस, उसके बुढ़ापे के रुतबे में फ़र्क़ होता जाता है। हालिया सठियाए लोग बहरे होने लगते हैं, उनके जोड़ों में दर्द रहने लगता है, और हो सकता है कि उनकी आँखों पर मोतियाबिन्द की झिल्ली भी बैठ जाए, पर बाक़ी मामलों में वे अमूमन ठीक ही रहते हैं। सत्तरियाए लोगों के दाँत झरने लगते हैं और हाज़मे की समस्या उनकी अभिन्न मित्र बन जाती है। अस्सी आते-न-आते लोग दो-चार बार ऑपरेशन टेबल की शोभा में चार चाँद टाँक दिया करते हैं। नब्बे लाँघने वाले अक़्सर कुछ भी और लाँघने में नाक़ाबिल हो जाते हैं, और अगर कहीं बाहर निकलते भी हैं तो उनके साथ एक छोटा-मोटा दवाख़ाना और तीमारदार भी चला करते हैं।

वैसे, नए घोषित बुड्ढों का अनुभव कड़वा ही होता हो, ऐसा हरग़िज़ नहीं। उन्हें सार्वजनिक वाहनों में बैठने की जगह देने वाले मिल जाते हैं, उनके लिए कई जगहों पर अलग क़तार लगा दी जाती है, उन्हें ‘बाबा’ और ‘अंकल’ जैसे सम्मानार्थक शब्दों से अलंकृत किया जाने लगता है, और महत्त्वपूर्ण फ़ैसले लेने से पहले परिवारजन उनकी राय ज़रूर माँगते हैं, भले ही अगले ही पल उसे एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल क्यों न फेंकें! ऐसे बुड्ढे वक़्त के ग़ुलाम नहीं रहते, वक़्त उनका ग़ुलाम हो जाता है। सुबह छः बजे उठिए या नौ बजे, कौन-सी बिजली गिरने वाली है? आठ बजे नहाइए या दो बजे, कौन-सा पहाड़ टूट जाएगा? मन में आए तो घूमने निकल पड़िए; इच्छा न हो, तो घर में ही कुण्डली मारे रहिए—चित भी आपकी ही रहेगी और पट भी! संक्षेप में कहूँ, तो बूढ़ा होते ही कई अपग्रेडेशन अपनेआप हो जाते हैं और उस पर तुर्रा यह रहता है कि उन तरक़्क़ियों के लिए आपको कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, फ़क़त ज़िन्दा रहना पड़ता है।

ऐसे में, बुढ़ापे-जैसी बिन माँगी मुराद पाकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना क्यों न गुम होता? आनन-फ़ानन दुबई चला गया बेटे-बहू के पास। चाहे इंग्लैण्ड हो या कनाडा, भारतीय विदेश में भी छोटे-छोटे भारत बसा ही लेते हैं, भले ही मौलिक व्यवस्था उस देश की ही क्यों न रहे। दुबई की कहानी भी कुछ अलग नहीं। सड़क, पार्क, मॉल—मैंने हर जगह भारतीय तरीक़े से चलते, हँसते, बोलते हिन्दुस्तानी देखे। वैसे यह भी हो सकता है कि जिन्हें मैं भारतीय समझ रहा हूँ उनमें से कुछ पाकिस्तानी, बंगलादेशी और श्रीलंकाई भी रहे हों, लेकिन मेरा आशय तो आपकी समझ में आ ही गया होगा। अगर नहीं आया, तो जाने दीजिए, किसी की हर बात समझना ज़रूरी थोड़े ही है! ग़ौर कीजिए तो स्कूल-कॉलेज के इम्तिहान पास कर लेने के लिए भी सबक़ पूरा समझना आवश्यक नहीं होता। बस, आइडिया मिल जाना चाहिए!

अगस्त का महीना था। गर्मी इतनी कि दिन क्या, रात में भी ख़ुले में बाहर निकलना मुहाल था। चौबीसों घण्टे एयरकण्डीशनर चलाए बिना गुज़र न थी। दुबई के सेन्ट्रली-एयरकण्डीशण्ड घरों में हर कमरे में अलग कण्ट्रोल पैनल नहीं लगाया जाता, फिर बहू का घर ही अलग क्यों होता? ड्रॉइंग रूम और रसोईघर का पैनल घर के मुख्यद्वार के क़रीब लगा था, और मेरे कमरे का पैनल बहू के शयनकक्ष में। एक बार जो टेम्परेचर सेट हो गया सो हो गया, उसमें छेड़छाड़ करने की रत्तीभर भी गुंजायश नहीं रहती थी उसके बाद। इसलिए सोते समय तो तापमान हमेशा ठीक रहता, लेकिन कभी-कभी देर रात या तो ठण्ड लगने लगती या गर्मी की वजह से साँस लेना दूभर होने लगता। कभी-कभी वैसे-भी घण्टों नींद नहीं आती।

लेकिन उस रात वैसी कोई बात नहीं थी। मैं चैन से सो रहा था कि अचानक नींद उचट गई। पहले तो समझ में नहीं आया कि हुआ क्या, फिर धीरे-धीरे होश सम्भले और एक अजीब-से शोर पर ध्यान गया। उसे शोर कहना शायद मुनासिब न होगा। वे दूर से आती हुई मिलीजुली आवाज़ें थीं—किसी बड़े वाहन के इंजन की, भारी धातु के टकराव की, लोगों के पुकारने की। कमरे की छत पर पीली-सफ़ेद रोशनी के नमूने गोल-गोल नाच रहे थे। मुझसे रहा न गया, कौतूहल ने मुझे छठी मंज़िल के अपने कमरे से बाहर झाँकने पर मजबूर कर दिया।

काँच की दूसरी तरफ़ दूर गंदले आसमान से टूटा-फूटा ज़र्द चाँद मेरी ओर ही ताक रहा था। एक-आध तारे भी धूल की चादर के पार से टिमटिमा कर अपनी मौजूदग़ी का अहसास दिलाने को बेकल थे। आसमान का नीला-कालापन उफ़क़ तक पहुँचते-पहुँचते हल्के उजाले में तब्दील हो रहा था और इमारतों की छतों से लाल-सब्ज़-पीली रोशनी की लड़ियाँ उस उजाले में दिलक़श रंग भर रही थीं। इमारतों के बाशिंदे भले ही घरों में बत्ती गुल कर सो रहे हों, पर खिड़कियों-दीवारों पर जड़े शीशे अंदर की हल्की-सी रोशनी और सड़क के बेतहाशा दूधिया उजाले की भरपूर चुग़ली कर रहे थे।

हमारी इमारत के पिछवाड़े एक बड़ा ट्रक खड़ा था। उस सफ़ेद मॉडर्न ट्रक के केबिन के ऊपर सफ़ेद-पीली स्ट्रोब लाइट गोल-गोल घूम रही थी। ट्रक के ऊपर-दाएँ-बाएँ तीनों तरफ़ सफ़ेद लोहे की चादर-सी लगी थी, सिर्फ़ पीछे का हिस्सा ख़ुला था। वहाँ सिलिण्डर और हुक्स वगैरह लगे थे। वर्दीधारी कर्मचारी आदमक़द पात्रों से ट्रक में कूड़ा गिरा रहे थे। बाप रे, कोई ज़रा-मना थे वे पात्र! मैंने इमारत के नीचे उन्हें पास से देखा था। मोटी धातु के उन पात्रों की ऊँचाई छः-छः फ़ीट से कम क्या होगी। चौड़ाई भी चार फ़ीट से कम तो नहीं ही थी। इमारत में यह पात्र जगह-जगह लगे थे। इमारत का हर गारबेज शूट किसी-न-किसी पात्र के ऊपर ख़ुलता था। हर पात्र में पहिए लगे थे। पात्र भर जाने पर सफ़ाई कर्मचारी उसे खिसका कर वहाँ दूसरा पात्र लगा दिया करते। मैंने देखा था, पात्र को खिसकाने में ख़ासी मेहनत लगती थी। पूरे भरे पात्र को दो आदमी पूरा ज़ोर लगा कर ही हिला पाते थे। इस मशक़्क़त के दौरान अक्सर उनके कूल्हे की हड्डियाँ उभर आतीं, कमर झुक जाती, सिर, कंधे और बाहें ज़मीन की सीध में आ जाते और गालों में हवा भर जाती। कर्मचारी पात्रों को ट्रक के ख़ुले हिस्से के आगे लाते, ट्रक ड्राइवर को इशारा करते, और उन भारी-भरकम पात्रों को मशीन इतनी आसानी से अपने अन्दर पलट लेती, जैसे बिल्ली चूहा उछाल रही हो निगलने से पहले। इस दौरान पात्र कई बार ट्रक की दीवारों से टकराता और ज़ोर की आवाज़ होती। पात्र तब तक हिलता रहता जब तक पूरी तरह ख़ाली न हो जाए। कर्मचारी उसे बाहर निकालने से पहले कचरे की हर बूँद के ट्रक में गिरने की तसल्ली करते।

दस-पंद्रह मिनट में सभी पात्र ख़ाली हो गए। ट्रक गुड़गुड़ाता चला गया। कर्मचारी ख़ाली पात्रों को धकिया कर इमारत के अन्दर ले आए। बाहर सन्नाटा छा गया। कमरे की छत पर पीली-सफ़ेद रोशनी का रक़्स बन्द हो गया। मैं आँखें भींच कर सोने की कोशिश करने लगा।

क़रीब दस मिनट की कोशिश के बाद आँखें भारी होना शुरू हुईं, तो एक आवाज़ आने लगी—जैसे दरवाज़े पर कोई दस्तक दे रहा हो, “खट्-खट्-खट्-खट् खट्-खट्-खट्-खट्!”

“अगर किसी को आना है, तो वह दस्तक क्यों देगा, कॉलबेल क्यों नहीं बजाएगा? क्या कॉलबेल ख़राब है? लेकिन रात के ढाई बजे इस तरह दस्तक कौन देता है? ऐसी आवाज़ तो तब आती है जब बड़ी होशियारी से लकड़ी से लकड़ी टकराई जाती है—फँसे पेंच को निकालते समय, जोड़ों को ढीला करते समय, दरवाज़े में लगे ताले को बिना चाभी खोलते समय। . . . बिना चाभी दरवाज़ा खोलते समय?” मैं सतर्क हो गया। तो क्या कोई चोर हमारे घर का मुख्यद्वार खोल कर अन्दर आने की जुगत भिड़ा रहा था? इमारत में पास के बिना अन्दर आना, अन्दर आने के बाद कैमरे की नज़र बचा कर घूमना, और गार्ड की निगहबानी को धोखा देना नामुमकिन के बराबर थे। बहू-बेटा कई रात दरवाज़े पर ताला लगाए बिना सो चुके थे, कभी कोई बेजा वारदात नहीं हुई। “यक़ीनन, दुबई बड़ा महफ़ूज़ शहर है, और इस इमारत में हिफ़ाज़त का कड़ा इंतज़ाम है, लेकिन फिर भी, अनहोनी तो हो ही सकती है न,” मैंने सोचा।

“बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचना ठीक नहीं। दरवाज़े पर जाकर देखता हूँ कि दरअसल यह गड़बड़-घोटाला है क्या!” इस पक्के इरादे के साथ मैं उठ ही रहा रहा था कि ध्यान गया—“खट्-खट्” की ताल विलम्बित से मध्य लय में पहुँच गई थी, और वह आवाज़ हमारे दरवाज़े से नहीं बल्कि छत से आ रही थी। यानी, ऊपरवाले फ़्लैट से। ज़ाहिर था, ऊपरवालों की नींद कूड़ा-निष्पादन-प्रकरण से टूट गई थी और अब दोबारा सोने के लिए वे नींद लाने के सबसे असरदार उपाय का इस्तेमाल कर रहे थे। बस थोड़ी देर की बात थी! मैं जानता था, “खट्-खट्” को मध्य पार कर द्रुत और फिर अतिद्रुत पर पहुँचने में बहुत देर नहीं थी। वही हुआ भी! तीन-चार मिनटों में “खट्-खट्” बेहिसाब रफ़्तार पकड़ते हुए ऐसे मुक़ाम पर पहुँच गई कि अंदेशा होने लगा—या तो आज तबला फट जाएगा या घोड़ा ताल में रेला बजा रहे तबलची की उँगली हमेशा के लिए जवाब दे जाएगी! मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। लेकिन तभी तूफ़ान यकायक थम गया। उफ़्! उतनी तेज़ रफ़्तार के बाद का सन्नाटा कानों को बहरा करने लगा। थोड़ी देर तक कोई आवाज़ नहीं आई, फिर क़रीब-क़रीब एक साथ दो फ़्लश चले, और रात की मासूमियत लौट आई। मुझे शर्म लगी। क्या घरों में प्राइवेसी की इस क़दर कमी होनी चाहिए कि एक के निहायत ज़ाती मुआमले दूसरों के आगे इतनी आसानी से फ़ाश हो जाएँ? फिर याद आईं मुम्बई की तीन इंच चौड़ी दीवारें जिनसे पड़ोसी की हर बात सुनी जा सकती है, और मैं धीरे-धीरे नींद के आग़ोश में पहुँच गया।

अगले दिन मैं शर्मसार रहा, जैसे अनजाने में किसी की डायरी के पन्ने पढ़ लिए हों। मैंने ख़ुद को समझाया—मैं कोई ताक-झाँक थोड़े ही कर रहा था! मैंने कोई कैमरा या माइक्रोफ़ोन थोड़े ही फ़िट किया था! आवाज़ सुन कर नाहक ख़ुद को दोष देना कहाँ की अक़्लमन्दी है? मैंने तय किया कि आज इतना काम करूँगा कि थकावट के मारे बिस्तर पर गिरते ही नींद आ जाए। वही हुआ भी! मैं रात दस बजे नहा कर जैसे ही लेटा, नींद आ गई। चार घण्टे छक कर सोया, और रात दो बजे कूड़ा-लादने का शोरशराबा सुन कर जाग गया। ट्रक के जाने के बाद भी मुझे नींद नहीं आई, बल्कि तरोताज़ा लगता रहा। मैंने सोचा, अच्छी सेहत के लिए रोज़ाना आठ घण्टा सोने की दुहाई देने वाले यह नहीं जानते कि चार घण्टे की गहरी नींद आठ घण्टों की छटपटाहट से बेहतर होती है। पर सवाल था, कि रात ढाई बजे करूँ क्या? किताब पढ़ूँ, चिट्ठी-पत्री करूँ, संगीत सुनूँ, या बालकनी का चक्कर लगाऊँ? किसी नतीजे पर पहुँच पाता, उससे पहले ‘खट्’ की सहमी-सी आवाज़ आई। कुछ सोच पाता उससे पहले दूसरा ‘खट्’ बजा। थोड़ी देर तक ‘खट्-खट्’ ऐसे रुक-रुक कर होती रही जैसे तबला ट्यून किया जा रहा हो, लेकिन उसके बाद जैसे बाँध के सारे दरवाज़े एक साथ खोल दिए गए! तबला और ढोलक के अलावा बौंगो-कौंगो का कामयाब पुट आज की अदायगी में नए रंग भरने लगा। साथ में बज रहे सारंगी या वायलिन के लहरे की आवाज़ तो मेरे कानों तक नहीं पहुँची, पर उसे बिना सुने भी मुझे कोई शक़ नहीं था कि साथी साज़िंदे को भी मौसीक़ी में आला दर्जे की महारत हासिल थी।

परफ़ॉरमेन्स का प्रसारण ख़त्म होने के बड़ी देर बाद तक मैं चकराया-सा पड़ा रहा—वे लोग आवाज़ कम करने के लिए कोई तरक़ीब क्यों नहीं आज़माते? मेरे दिमाग़ में शोर कम करने के इंजीनियरिंग के नुस्ख़े घूमने लगे। इनमें एक नुस्ख़ा यह भी है कि शोर के ख़िलाफ़ ऐसा शोर किया जाए कि दोनों आपस में गड्ड-मड्ड होकर सन्नाटे में तब्दील हो जाएँ। नुस्ख़ा याद कर मुझे हँसी आ गई—उस शोर की बराबरी का शोर पैदा करना क्या कोई मामूली बात थी!

दुबईवासियों को कुछ बातों की आदत पड़ जाती है। पार्किंग का पैसा बचाने के चक्कर में गाड़ी में एक दो लोगों को छोड़ कर दुकान में घुसना, टॉल बचाने के लिए लम्बे भीड़-भाड़वाले रास्ते से जाना, ‘सेल’ का फ़ायदा उठाने के लिए ज़रूरत से कहीं ज़्यादा सामान ख़रीदना, वगैरह, इन्हीं आदतों का हिस्सा हैं। मैंने भी एक आदत पाल ली—रात ढाई बजे ‘खट्-खट्’ सुनने की। कुछ ऐसा हो गया कि दो बजे नींद जो खुलती तो उस दिन की ‘खट्-खट्’ सुनने के बाद ही वापस आती। अब मुझे उसमें शर्मिन्दा होने-जैसी कोई बात नहीं लगती थी। हाँ, मैंने उस आवाज़ का ज़िक्र किसी से नहीं किया—ऊपरवालों की वह रोज़ की क़वायद मेरा ज़ाती राज़ बन गई थी, और ‘खट्-खट्’ की आवाज़ वह लोरी जिसे सुने बिना मुझे दोबारा नींद नहीं आती थी।

एक दिन हद हो गई! कूड़ेवाले ट्रक के जाने के बारह मिनट बाद भी कोई हरक़त न हुई। दो मिनट और ग़ुजरे। सन्नाटा छाया रहा। मैंने घड़ी पर नज़र फेरी—पौने तीन बज रहे थे। ऐसा तो कभी नहीं हुआ था! फ़नकारों को आज आख़िर क्या हो गया था? ऐसी चूक पहले तो कभी नहीं हुई। इधर ढाई बजते थे और उधर कार्यक्रम शुरू हो जाता था। मैंने दूसरी घड़ियाँ देखीं—सबमें तीन बजने में दस मिनट का समय था। मेरी नींद हवा हो गई। पहले झल्लाहट हुई, फिर ग़ुस्सा आने लगा। इच्छा हुई कि चिल्लाऊँ या ऊपरवालों के फ़्लैट की घण्टी बजा कर शिकायत करूँ, “अज़ीज़, आप बिना किसी चेतावनी के यकायक ऐसे ख़ामोश कैसे हो सकते हैं? आपको ज़रा-सी भी ख़बर है कि आपकी इस हरक़त, यानी हरक़त न करने, से मुझको कितनी तक़लीफ़ से गुज़रना पड़ रहा है? अगर मैं नहीं सो सका और मेरा ब्लड-प्रेशर बढ़ गया और उसकी वजह से दिल का दौरा वगैरह पड़ गया तो उसका ज़िम्मेदार कौन होगा?” फिर सोचा, हो सकता है वे लोग या उनमें से कोई एक कहीं चला गया हो, या बीमार पड़ गया हो। आजकल तो सुबह हँसता-खेलता आदमी शाम को कटे पेड़ की तरह ढेर हो जाता है और कई बार हफ़्ते-भर में हमेशा के लिए रुख़सत भी हो जाता है। एक-के-बाद एक ख़याल आता रहा, और अंत में तंग आकर मैं उठ बैठा। पाँच बज गए थे।

अगले दो-तीन दिन सुकून से गुज़रने के साथ मुझे यक़ीन हो गया कि ऊपरवालों ने या तो अपने जज़्बात पर क़ाबू रखना सीख लिया था, या नॉएज़-सप्रेशन गैजेट में इन्वेस्ट कर लिया था। जो भी हो, नतीजा अच्छा ही था। कूड़े के ट्रक के रवाना होने के बाद अब मेरी नींद ख़राब करने वाला कोई नहीं था!

लेकिन मेरी सोच सेहरा में शबनम के क़तरे-जैसी कम-उम्र निकली। हफ़्ता गुज़रते-न-गुज़रते रियाज़ फिर शुरू हो गया। आख़िर मेरे कुंद ज़ेहन में भी बात समा गई कि पिछली चार-पाँच रातों की ख़ामोशी हया या साइंस की वजह से नहीं बल्कि क़ुदरती पाबन्दियों की वजह से रही होगी। मेरे पास मौसीक़ी के उन टुकड़ों को चुपचाप सुनने और सहन करने के सिवाय और कोई चारा न था। वैसे भी, महीने के अन्त में मेरा वापस लौट जाने का प्रोग्राम था। “चलो, जब इतने दिन झेला, तो कुछ दिन और सही”—सोच कर मैंने रोज़ ज़हर निगलना क़ुबूल कर लिया।

लेकिन मुश्किल से दस दिन गुज़रे होंगे, कि माहौल एक बार फिर शांत हो गया। अभी तो कार्ड में काफ़ी करेंसी बची होनी चाहिए थी, यह बेवक़्त की जंग-बन्दी कैसे हो गई? बात कुछ समझ में नहीं आई। “छोड़ो हटाओ, कुछ हुआ होगा, हमसे क्या?” सोच कर मैंने इस बार ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वैसे भी, अब मुझे ‘खट्-खट्’ के साथ और उसके बग़ैर, दोनों सूरतों में घोड़े बेच कर सोने की आदत पड़ गई थी।

मेरी वापसी में चार-पाँच दिन रह गए थे। बहू ने घर में एक पार्टी रखी। उसका ख़याल था कि उसके जिन दोस्तों-पड़ोसियों से मैं मिल चुका था उनसे विदा ले सकूँगा, और जिनसे नहीं मिल सका था उनसे जान-पहचान हो जाएगी। मुझे उसके दोस्तों से मिलना अच्छा लगता था। वे लोग बड़ी इज़्ज़त बख़्शते थे—शायद उन्हें मुझमें अपने बाप की झलक नज़र आती थी। मुझे उनमें अलग-अलग शख़्सियतों के रंग दिखाई देते थे। छोटे क़द और मीठी ज़ुबान वाली रमा नन्ही चिड़िया-जैसी थी, हमेशा मुस्करा कर और आँखें नचा कर बात करने वाली प्रीत से घरेलू बिल्ली-जैसे अपनेपन का अहसास होता था, और घुँघराले बालों वाली लम्बी-चौड़ी सरला हर बात को ऐसे नपे-तुले अंदाज़ से कहती कि लगता, कोई रंगबिरंगा बड़ा तोता मालिक को रिझा रहा हो। इन महिलाओं के पतियों से भी मेरी अच्छी जान-पहचान थी। पार्टी शुरू होते ही हमारे ठहाके गूँजने लगे।

क़रीब आधा घण्टा गुज़रा होगा कि कॉलबेल बजी। बहू ने दरवाज़ा खोलते ही “सो लेट” और “वेलकम-वेलकम”-जैसा कुछ कहा। कमरे में दाख़िल होने वाले शख़्स के चेहरे से अमीरी टपक रही थी। उनकी कलाई से बँधी घड़ी लाखों की रही होगी। उनके चश्मे का फ़्रेम भी आला दर्जे का था। ‘नमस्ते’ कह वे मेरे पास ही बैठ गए। उनके पीछे, सहमी-शर्माई-सी उनकी बीवी के क़दम रखते ही मैं समझ गया कि साहब बैठ क्यों गए थे—उनकी बीवी को जगह ही इतनी ज़्यादा चाहिए थी कि आसपास किसी और के सही-सलामत खड़े रहने की गुंजायश कम ही बचती थी! उस ख़ातून का मुँह बला का सुन्दर था। कटारी-जैसी आँखों पर नक़ली पलकें, लम्बी-लम्बी भौंहें जिनका एक-एक बाल चुस्त-दुरुस्त सिपाही की तरह अपनी जगह पर मुस्तैद था, रोशनी से दमकते गाल, लुभावना लिपस्टिक, बेपरवाही से सजाई लटें, नक़ली नाख़ूनों से लैस हाथ—लग रहा था कि वे सिनेमा की शूटिंग से सीधे लौट रही हैं।

अफ़सोस, भगवान् ने उन्हें बेपनाह हुस्न दिया था, तो चर्बी देने में भी कोताही नहीं की थी! उनका उभार ठुड्डी के नीचे छोटी-बड़ी चोटियाँ तय करता जाँघों के आगे झूलते पहाड़ की शक़्ल में ख़त्म होता था। अगर मुँह को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए, तो सामने से उनका शरीर कछुए की पीठ-जैसा था। बात यहीं पूरी हो जाती, तो भी थोड़ी राहत थी, पर उस ख़ातून के पैर गैण्डों के पैरों जैसे मोटे और छोटे थे। उन्हें पीछे से देख कर लगा कि उनकी पीठ और कूल्हों को अगर एक पिनकोड दे दिया जाए तो बड़ा मुनासिब रहेगा।

वे मुझे देखकर बड़े हसीन अंदाज़ से मुस्कराईं। बहू ने परिचय कराया, “पापा! सपना और शुभम् हमारे ठीक ऊपरवाले फ़्लैट में रहते हैं।”

मैं तपाक से उठ कर बोला, “ओह! आपसे मिल कर बड़ी ख़ुशी हुई!”

बहू ने मुझे अचरज से देखा। उसने मुझे इस बेबाक़ी से कभी किसी और से मिलते नहीं देखा था। बेचारी को क्या पता, शब-ए-मौसीक़ी के फ़नकारों से मेरी कितनी आत्मीयता हो चुकी थी! लेकिन परिचय अभी पूरा नहीं हुआ था। सपना के तम्बू-जैसे बदन के पीछे एक पतला-दुबला चौबीस-पच्चीस साल का जवान नुमायाँ होते ही बहू ने बात पूरी की, “और ये हैं सपना के कज़िन . . . ”

सपना ने बहू की बात बीच में ही काट दी, “कज़िन क्या, मेरे अपने सगे भाई से बढ़ कर हैं . . . ”

शुभम् ने सिर हिला कर अपनी बीवी की बात की तस्दीक़ की। उस जवान का नाम मेरे पल्ले नहीं पड़ा, पर उससे फ़र्क भी क्या पड़ता था? मुझे तो मौसीक़ी के फ़नकारों से बात करनी थी जो इतने तरन्नुम में परफ़ारमेंन्स देते थे कि आपा ही खो बैठते थे। यह भी जानना था कि आजकल वे ख़ामोश हो गए थे या उन्होंने रियाज़ का ख़ामोश अंदाज़ सीख लिया था।

शुभम् एक नामी-गिरामी ऑडिटिंग कम्पनी में बहुत बड़े ओहदे पर थे। हमारी बातचीत शुरू हुई। मानना पड़ेगा, बहुत दिनों के बाद किसी आदमी से ऐसी बातें हो रही थीं जिनका कुछ मतलब निकलता था, जिनसे कुछ हासिल होता था। मसलन, वायरकार्ड के स्टीफ़न एरफ़ा के इक़बालिया बयान कि उनकी कम्पनी ने केपीएमजी को स्पेशल ऑडिट के लिए फ़र्ज़ी दस्तावेज़ दिए, या रशिया में व्लादिमीर मऊ की ग़िरफ़्तारी क्या बताती है—ऐसी बातें करने वाला मुझे और कोई नहीं मिला। मुझे बातचीत में बड़ा रस मिलने लगा। यक़ीन ही नहीं होता था कि अभी जो आदमी मेरे सामने इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है वही रात को सबकुछ भूलभाल कर हंगामा बरपा करता है।

शुभम् को भी मेरी बातचीत में दिलचस्पी थी। उसे यह जान कर हैरत हो रही थी कि अपने काम के दौरे पर मैं कभी घूमने नहीं गया, साइट सीइंग नहीं की। होटल के कमरे, एयरपोर्ट, और ग्राहक के दफ़्तर या कारख़ाने के अलावा मैंने कभी और कहीं का रुख़ ही नहीं किया।

मैंने हँसते हुए कहा, “इसीलिए, अब यहाँ की गारबेज हैण्डलिंग देख कर भी मज़ा आता है!”

शुभम् ने कहा, “इतनी माडर्न जगह में गारबेज हैण्डलिंग का ऐसा प्रिमिटिव प्रोसेस देख कर सरप्राइज़ तो होता है, लेकिन दे डू द बेस्ट ऑफ़ इट। कोई स्पिलेज नहीं, पाँच मिनट बाद ही पता भी नहीं चलता कि गारबेज हैण्डलिंग हुई है। और, कोई वैल्युएबल गारबेज में मिक्स हो जाए, तो उसे ट्रैक कर डम्पिंग यार्ड से रिट्रीव भी कर लेते हैं ये लोग।”

“पर शोर बहुत होता है। मेरी तो नींद टूट जाती है!” मैंने कहा।

औरतों से बातचीत में मसरूफ़ सपना की एक भौं मेरी बात पर ज़रा सा हिली, और फिर किसी चुस्त-दुरुस्त सिपाही की तरह वापस अपनी जगह लौट गई।

“ओह! आपका बेड रूम इस तरफ़ होगा न, इसलिए डम्पिंग नाइज़ आपके पास आता है। हमारा बेड रूम पीछे की तरफ़ है। और वैसे भी, सामने भी होता तो क्या डिफ़रेन्स होता? मैं तो बिस्तर पर जो एक बार रात ग्यारह बजे लेटता हूँ तो सुबह सात बजे ही उठता हूँ। चाहे बगल में बैण्ड ही क्यों न बजने लगे, आई कन्टिन्यू टू स्लीप लाइक ए लॉग!”

“अभी टूर से वापस आए होंगे, जेट लैग होगा, शायद इसलिए कह रहे हैं!” मैंने कहा।

“अभी टूर से वापस आया? ओह नो नो, मैं तो दस दिनों से यहीं हूँ। हाँ, उससे पहले ज़रूर एक महीने के लिए बाहर था। पर, टूर से कभी भी लौटूँ, मेरी नींद हमेशा पक्की रहती है।”

“एक महीने लम्बा टूर!”

“अब क्या करें? काम तो करना ही पड़ता है। सपना को भी बहुत लोनली नहीं लगता होगा—भाई जो है उसका कम्पनी देने के लिए! क्यों सपना?” शुभम् ने सपना की ओर प्यार से देखा।

सपना ने कुछ कहा नहीं, बस मुस्कुरा कर सिर हिला दिया। उसकी मुस्कराहट बला की हसीन थी। पर मेरा ध्यान उसकी तरफ़ नहीं, कूड़ेवाले ट्रक की ओर था। पता नहीं क्यों!

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सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
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थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

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