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प्रेतात्मा और मटकी

अगर आप भूत-प्रेत-जिन्न-पिशाच वग़ैरह को नहीं मानते, उनके अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, तो यह बहुत अच्छी बात है। जो सचमुच है, उसके होने को आसानी से साबित भी किया जा सकता है। हवा, धूप, ख़ुश्बू − यहाँ तक कि दिल के दर्द और हृदय की अकुलाहट − के अस्तित्व का प्रमाण बाक़ायदा काग़ज़ पर छापा जा सकता है। दूसरी ओर, मनगढ़ंत बातों के बारे में तो सिर्फ़ अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। बे-सिर-पैर की बातों पर ध्यान देकर अपना और दूसरों का माथा ख़राब नहीं करना चाहिए, समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। आप ठीक करते हैं जो विज्ञान की कसौटी पर ख़रे उतरे तथ्यों पर ही भरोसा करते हैं।

पता नहीं कैसे परसों रात वह बात याद आ गई। और, याद भी ऐसी आई, कि अब दिमाग़ से उतर कर जाने का नाम ही नहीं ले रही। कोई आज की बात थोड़े ही है वह! पचास साल से ऊपर हो गए उसे बीते। उन दिनों विल्स नए सिगरेट के रूप में, अमूल नए मक्खन के रूप में, और राजेश खन्ना नए हीरो के रूप में उभर रहे थे। चाँद पर पहला क़दम रख दिया गया था। घरों में सुबह-शाम पत्थर के कोयले की अँगीठी पर खाना पकता था। साढ़े तीन रुपए में बकरे का एक किलो बढ़िया गोश्त मिलता था, गोल्डन ईगल बियर की बोतल पाँच-साढ़े पाँच रुपए में आ जाती थी। 

सरकारी मन्त्रियों-अधिकारियों में ख़ाली-पेट देश सेवा करने की बजाय अपनी जेब भरने का जज़्बा पनप चुका था। देश के हर राज्य का कमो-बेश यही हाल था। श्रीकृष्ण सिन्हा और कृष्ण बल्लभ सहाय जैसे दिग्गजों के सतरह साल के शासन के बाद बिहार की चौथी विधान सभा के डेढ़ साल के कार्यकाल में चार-चार व्यक्ति मुख्यमन्त्री की कुर्सी गर्म करने का कीर्तिमान स्थापित कर चुके थे। वहाँ सरकारी अधिकारी घर से ही दफ़्तर चलाने की परम्परा स्थापित कर रहे थे। बन्दरटोपी और खद्दर का मोटा लबादा ओढ़े साहबलोग आलीशान टेबल पर विराजमान होते, और चपरासी ’हुज़ूर’ की मुट्ठी गर्म कर अपना काम निकालनेवालों को एक-एक कर अन्दर भेजना शुरू कर देता। उधर साधारण बिहारी भूख, बीमारी और सामाजिक कुरीतियों से छटपटा-छटपटा कर बेमौत मरता रहता, और इधर उसके चुराए पैसे से बोरिंग रोड, पाटलिपुत्र कॉलोनी, डाक बंगला रोड में इमारतें बनतीं, गहने ख़रीदे जाते, बाँकीपुर क्लब में आमोद-प्रमोद होता। 

बिहार की राजधानी, पटना, हरा-भरा शहर था। वहाँ बहुमंज़िली इमारतें थी ही नहीं, किसी भी जगह से चारों तरफ़ एक-दो किलोमीटर तक आराम से देखा जा सकता था। सड़कों पर रिक्शा और साइकिल की घण्टियों की टुनटुनाहट का मधुर संगीत गूँजता था, जिसे बसों-मोटरगाड़ियों के कर्कश हॉर्न यदाकदा भंग कर दिया करते थे। सड़कों-गलियारों में पैदल चलने में न तो असुरक्षा थी, न ही मानहानि का ख़तरा था। 

ऐसे ही समय जदुनाथ सिन्हा स्वास्थ्य विभाग से रिटायर हुए थे। अच्छे ओहदे पर थे, घर के भी समर्थ थे। राजेन्द्र नगर में बड़ा दुतल्ला मकान बनाया था उन्होंने। घर के आगे अहाते में हरी दूब का बगीचा था जिसके छोर पर अमरूद, जामुन, आम, वगैरह मौसमी फलों के पेड़ लगे थे। सुबह-सुबह जदु बाबू और उनकी पत्नी बगीचे में लॉन चेयर में बैठ कर माली को हिदायत देते, "ए रामधन, ऊ केलवा का पत्ता सूख कर लटकने लगा है, काट कर बाहर बीग काहे नहीं देते?" और माली पूरी मुस्तैदी से "जी, हुजूर" कह कर काम में जुट जाता। ड्राइवर पोर्च में गाड़ी रोक कर बेटे-बहू को उतारता, और फिर गराज में गाड़ी खड़ी कर हाथ बाँधे प्रस्तुत हो जाता। पीछे आँगन में इन दोनों कर्मचारियों की पत्नियाँ मूँग की बड़ी और आम का अचार लगाने में व्यस्त हो जातीं। टप्पर के नीचे बँधी गाय बछड़े को चाटते-चाटते दोनों स्त्रियों की तरफ़ देख किसी सरस टुकड़े की आशा में रम्भाती। एक रिटायर्ड कर्मचारी को भला इससे ज़्यादा और सुख चाहिए भी क्या! लेकिन, एक परम सुख जदु बाबू से बहुत दूर था।

उनका छोटा बेटा, मोहन, ठीक नहीं था। देखने-सुनने में सामान्य मोहन को पूर्णिमा और अमावस्या की रात को न जाने क्या हो जाता कि वह पागलों-जैसी हरकतें करने लगता! कभी खिड़की पर कसी लोहे की जाली से सिर इतना टकराता कि लहू रिस आता, तो कभी भारी आवाज़ में किसी अनजानी भाषा में जाप-सा करने लगता। रात-भर बुख़ार में तपता, बाहर भागने को व्याकुल रहता। 

स्वास्थ्य विभाग के अफ़सर को डॉक्टरों से परिचय का क्या अभाव − जदु बाबू ने हर बड़े डॉक्टर से मोहन की जाँच करवाई, पर सबने उसे बिलकुल सामान्य ही पाया। काँके के पागलख़ाने के विशेषज्ञ भी मोहन के दिमाग़ का शॉर्ट-सर्किट न तलाश सके। "हर तरह से स्वस्थ" घोषित मोहन साल-दर-साल बढ़ता गया, मुहल्लेवाले हर पखवारे उसके आर्तनाद के भुक्तभोगी बनते गए, और जदु बाबू और उनकी पत्नी की चिन्ता के बादल घने होते गए – मोहन की देखरेख करने के लिए वे हमेशा तो रहेंगे नहीं। उनके जाने के बाद रिश्तेदार मोहन को उसके अपने ही घर से निकाल देंगे। वह सड़कों पर भिखारी-जैसा घूमता-फिरेगा, और एक रात प्रलाप करता-करता, मुँह से झाग उगलता-उगलता, दम तोड़ देगा। बेचारा न विवाह का सुख भोग सकेगा, न परिवार का। 

माता-पिता की आत्मा काँप जाती। जब व्याकुलता बर्दाश्त से बाहर हो गई, तो पति-पत्नी विज्ञान का दरवाज़ा खटखटाना छोड़ कर कर्मकाण्ड की शरण में आ गए। पूजापाठ में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे, दूर-पास के मन्दिरों में चढ़ावा चढ़ाने लगे, हर हफ़्ते कभी दो तो कभी तीन दिन व्रत करने लगे। पुजारियों का घर भरता गया। जदु बाबू और उनकी पत्नी की कमर झुकने लगी, शरीर क्लान्त होने लगा, हिम्मत समाप्त होने पर आ गई, पर मोहन ज्यों-का-त्यों रहा। 

धीरे-धीरे सबकी समझ में आ गया कि मोहन की विक्षिप्तता-रूपी पूतना आसानी से परास्त होने वाली राक्षसी नहीं। पहले उसकी दुर्दशा का कारण ग्रहों की वक्र दृष्टि में खोजा जा रहा था, अब वह दोष तन्त्र-मन्त्र और यन्त्र जनित षड़यन्त्र के माथे मढ़ा जाने लगा। बिहार, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा, असम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड में तान्त्रिकों की कमी नहीं – एक ढूँढ़िए, हज़ार मिलेंगे। पचास साल पहले तो उनकी भरमार थी। कोई राख मले नंग-धड़ंग सरेआम घूमता, कोई लबादों-मालाओं-आभूषणों से लैस रहता; कोई बियाबान में बँधी मचान पर सालों गुज़ार देता, तो कोई सर्वसुविधायुक्त संगमरमरी भवन में आसन जमाता। जदु बाबू के हितैषियों ने ऐसे-ऐसे चमत्कारी तान्त्रिकों का उल्लेख किया कि सहज ही विश्वास नहीं होता था। एक तान्त्रिक रोज़ मुख से अँतड़ियाँ निकाल कर उन्हें गंगाजल में धोता था, एक कंकालों को चने खिलाता था, एक ने कई दुरात्माओं को बन्दी बना रखा था, और एक जब जी चाहे माँ काली से बात कर लेता था – गुणी जनों की कोई कमी थी भला? 

पता नहीं जदु बाबू को कितने पाखण्डियों ने ठगा, लेकिन आख़िरकार उन्हें एक दिव्य पुरुष मिल ही गए। जदु बाबू तथा उनकी पत्नी ने पूरी श्रद्धा से बाबा के हर आदेश को शिरोधार्य किया। कृष्ण पक्ष आरम्भ होते ही सबका बाहर आना-जाना, यहाँ तक कि छत पर टहलना भी बन्द कर दिया गया। खिड़कियों को पर्दो से ढँक दिया गया, पिछवाड़े के एक दरवाज़े को छोड़ हर द्वार बन्द कर दिया गया। आवश्यक ख़रीदारी का काम विश्वासी नौकर-चाकरों के सुपुर्द कर दिया गया। अतिथियों के प्रवेश पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। भिखारी गुहार लगा-लगा कर निराश लौटने लगे, पड़ोसी घर में व्याप्त ख़ामोशी के बारे में अटकलें लगाने लगे, यहाँ तक कि आत्मीयों के फोन का जवाब भी विश्वस्त नौकर ही देने लगे। रात में चुपके से आवश्यक सामग्री जुटाई गई, और चतुर्थी की रात के गहराने के साथ यज्ञ प्रारम्भ हो गया।

यज्ञ में क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम। वेदी पर ज़रूरी सामग्री पहुँचने के बाद उस कमरे के दरवाज़े सुबह तक बन्द रहते। ऐसा नहीं कि किसी को जानने की उत्सुकता नहीं होती, लेकिन किवाड़ों के पास जाते ही शरीर में गनगनाहट होने लगती। उस पार से लोबान की महक और मन्त्रोच्चार की अस्पष्ट ध्वनि दरवाज़े के पास खड़े व्यक्ति को ऐसा मदहोश कर देती कि उसका सिर घूमने लगता और वह किसी सुरक्षित जगह की शरण में चला जाता। एक ही छत के नीचे रहने के बावजूद नौकर-चाकरों को यह पता भी नहीं चल सका कि यज्ञ में किस दिन कौन शामिल हुआ। जदु बाबू, उनकी पत्नी, बड़े बेटे-बहू, और मोहन – हर रात सबके कमरों पर कुण्डी लग जाती और दिन में ज़ुबान पर ताले लटक जाते। नौकर-चाकर खुसरपुसर कर तरह-तरह की अटकलें लगाते। दरअसल क्या हो रहा था, वह या तो ओझा और मालिक लोग ही जानते थे या स्वयं भगवान, लेकिन न तो जदु बाबू और उनकी पत्नी कभी उतने परेशान दिखे थे और न ही मोहन का चेहरा पहले कभी इतना रक्तहीन-सफ़ेद दिखा था। 

बारह दिन बाद अमावस्यावाली रात यज्ञ में विशेष प्रबन्ध हुआ। उस दिन रोज़ से कहीं अधिक सामग्री मँगाई गई, कमरों की खिड़कियों पर छिटकनी लगा दी गई, रोशनदानों को उढ़का दिया गया, और नौकरों को आँगन में ही रहने की सख़्त हिदायत दे दी गई। रामधन और उसकी बीवी भंडारघर में दुबक गए, और ड्राइवर केशव ने पत्नी के साथ भूसाघर की शोभा बढ़ाई। जाड़े की रात थी, कैलाशजी के सिवाय किसी को कोई ख़ास असुविधा न हुई।

यद्यपि कैलाश ठाकुर मालिक नहीं थे, किन्तु वे नौकरों की श्रेणी में भी हरग़िज़ शुमार नहीं होते थे। स्वास्थ्य विभाग में जदुनाथ सिन्हा के कार्यकाल के दौरान वे पटना आयुर्वेदिक कॉलेज एवं अस्पताल में कम्पाउण्डर थे। वैसे तो उनके रहने की स्थायी व्यवस्था कॉलेज के पूर्व प्राचार्य कविराज ज्ञानेन्द्रनाथ सेन के आवास में थी, लेकिन फक्कड़ तबीयत के कैलाशजी के लिए लम्बे समय तक एक ही स्थान पर टिकना असम्भव था। वे कभी हफ़्तों तक हमारे यहाँ रुक जाते, तो कभी जदु बाबू के घर। सत्तर के क़रीब उम्र होने के बावजूद दिन में दस-पंद्रह किलोमीटर पैदल चले बिना उन्हें नींद नहीं आती थी। पिछले ग्यारह दिनों से वे घर की छत पर घण्टों टहल कर अपनी दिनचर्या पूरी कर कहे थे, लेकिन आज उन्हें छत पर जाने से भी रोक दिया गया था। जदु बाबू की पत्नी ने ताक़ीद की थी कि वे यज्ञवाले कमरे के आसपास ही रहें। बेचारे कैलाशजी दैनिक आर्यावर्त और दैनिक प्रदीप को दो बार खंगालने के बाद इस असमंजस में थे कि समय कैसे काटा जाय। 

कमरे के किवाड़ों से रिसता धुआँ और ओझा का कर्कश स्वर कैलाशजी के सरल मन में खलबली पैदा करने में असमर्थ था। वे उन लोगों में से थे जो न तो ज़्यादा सोचते हैं, और न ही सोच सकते हैं, केवल सोचने की मुखमुद्रा बना सकते हैं। मैं उन्हें कई बार आकाशवाणी की समाचारवाचिका विनोद कश्यप के बुलेटिन सुना कर पूछता, "अंकल, बताइए। न्यूज़ आदमी पढ़ रहा है या औरत?" और वे हर बार बोलते, "आदमी!" मुझे आश्चर्य होता, वे स्पष्ट नारी स्वर क्यों नहीं पहचान पाते, लेकिन उन्हें नाम सुन कर अंदाज़ लगाने में आसानी होती थी। ’हवामहल’ पर प्रहसन समाप्त होने के बाद भी वे रेडियो के पास कान गड़ाए रहते, पूछते, "आउ होगा?" स्पष्ट है, चलने-फिरने के लिए अपार शक्ति प्रदान करते समय ईश्वर ने उनके बुद्धि कौशल में असाधारण कटौती कर दी थी। 

कैलाशजी का धैर्य समाप्त होने से पहले ओझा का मन्त्रोच्चार समाप्त हो गया। कैलाशजी की दृष्टि स्वतः ही गलियारे में लगी घड़ी की ओर उठ गई – रात के तीन बज रहे थे। 

"तीन घण्टा में तो भोर हो जाएगा," उन्होंने उबासी लेते हुए सोचा। उनके कुछ और सोचने से पहले ही कमरे के अन्दर से जदु बाबू की पत्नी की महीन पुकार सुनाई दी, "कैलासजी, तनि सुनिए!"

कैलाशजी चुस्त सिपाही की तरह दरवाज़े के पास तैनात हो गए।

"भित्तर आ जाइए," महीन आवाज़ में आग्रह हुआ।

कैलाशजी ने घबराते-सहमते दरवाज़ा खोलने की चेष्टा की, तो उसके कपाट बिना किसी प्रयास के पूरे खुल गए। छोटे लाल बल्ब के प्रकाश में धुएँ में सराबोर कमरे की हवा शराब की दुर्गन्ध, माँस की चिराइँध, लोबान की मीठी महक, फूलों की ख़ुश्बू, और हवा में तैरते सामूहिक निश्वास से बोझिल थी। सबकुछ धुँधला दिख रहा था। कैलाशजी का माथा घूमने लगा। लगा, गिर पड़ेंगे। 

एक आकृति ने कहा, "ध्यान से सुनिए, बाबा का कह रहे हैं।"

कमरे के बीचोंबीच स्थित यज्ञ वेदी के उस तरफ़ बिछी दरी पर जदु बाबू और उनकी पत्नी बैठे थे, उन दोनों की दाईं तरफ़ उनका बड़ा लड़का और पुत्रवधू थे, और बाईं ओर वस्त्रहीन मोहन बेहोश पड़ा था। सिन्दूर, राख, चन्दन और गेरू से उसके शरीर पर जगह-जगह विचित्र चिन्ह अंकित थे। कैलाशजी उसे ठीक से देख पाते, उससे पहले ही ओझा ने कड़कती आवाज़ में आदेश दिया, "इधर देख!"

ओझा की आँखें आग उगलते लाल अंगारों की तरह सुलग रही थीं, जैसे भस्म कर देंगी। कैलाशजी उसकी ओर देखने का साहस नहीं जुटा पाए, निगाहें नीचीं और बदन समेट कर खड़े हो गए। 

"वो मटकी देख रहा है?" ओझा ने ललकारा।  

कैलाशजी ने देखा, वेदी के किनारे राख के ढेर पर मिट्टी की एक मटकी रखी थी। मटकी का मुँह लाल कपड़े से ढँका था। वह मटकी अंत्येष्टि के समय इस्तेमाल होनेवाली मटकियों से बहुत अलग नहीं थी – बस, उन्हें लाल की बजाय सफ़ेद कपड़े से ढँका जाता है। 

"इसे लेकर गंगा तक जा और नदी में प्रवाहित कर दे। मटकी किसी भी चीज़ से छूनी नहीं चाहिए, तेरे बदन से भी नहीं। इसे सिर्फ़ इसकी रस्सी से उठाना है। ध्यान रहे, मटकी प्रवाहित करते समय तेरे घुटने नदी के पानी में पूरी तरह डूबे होने चाहिएँ। मटकी उठाने के बाद कहीं मत रुक, किसी से बात मत कर, किसी भी आवाज़ पर ध्यान मत दे, चाहे जो भी दिखे घबरा मत, मुड़ कर मत देख, वरना मुर्दा बन जाएगा। बोल, कर सकेगा?" ओझा फुफकार रहा था।

कैलाशजी की घिग्घी बँधी थी, बेचारे क्या उत्तर देते। वैसे भी, अब रहस्य जानने के बाद पीछे हटने का सवाल कहाँ था? उन्होंने जदु बाबू की ओर देखा।

"कौन रस्ता जाइएगा?" जदु बाबू ने प्रश्न किया, फिर स्वयं ही उत्तर भी दे दिया – "दरभंगा हाउस के पीछे जाना ठीक रहेगा। जल्दी किजिए, रस्तवा अभी खाली मिलेगा।" 

कैलाशजी मटकी की ओर हाथ बढ़ा कर पीछे हट गए, "बड़ी जाड़ा पड़ रहा है। तीन कोस से का कम जाना होगा। पेसाब करके आउ कोटवा लेके आते हैं।"

ओझा की फटकार बादलों की गर्जना से भयंकर थी, "चोप! काम पूरा कर, वरना बेमौत मरेगा।"

दो मिनट बाद कैलाशजी बदहवास घर का फाटक खोल कर बाहर निकले। मटकी का वज़न न के बराबर था, फिर भी उन्होंने मटकी की रस्सियाँ बाएँ हाथ की मुट्ठी में इतनी कस कर थामी हुई थीं, कि उसे छीनने के लिए किसी पहलवान को भी ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ती। अँधेरा गहरा था, पर गलियाँ कैलाशजी की जानी-पहचानी थीं। वे बढ़ने लगे। गली के दोनों ओर पेड़ों पर पक्षी शान्त थे, यहाँ तक कि आवारा कुत्ते भी चुप थे। जल्दी ही वे मुहल्ले की सँकरी गली और आसपास की छोटी सड़कें पार कर आर्य कुमार रोड पहुँच गए। बड़े अचरज की बात थी! आर्य कुमार रोड, गोविन्द मित्रा रोड, यहाँ तक कि बेहद व्यस्त अशोक राजपथ भी बिलकुल सूना पड़ा था। 

"अच्छे हुआ कि सब खाली है। कोई पुलिसवाला चोर समझ कर दू सोटा लगा देता त हम का करते? हँड़ियो फूट जाता। अब का, पंद्रह मिनट में त गंगाजी में इसका रामनामसत्त हो जाएगा!" कैलाशजी संतुष्ट थे। बस, मुट्ठी बाँधे-बाँधे उनकी उँगलियों में दर्द होने लगा था। उँगलियों पर ध्यान दिया, तो आभास हुआ कि उनकी कलाई, यहाँ तक कि बाँह और कन्धे में भी दर्द हो रहा था। उन्होंने मटकी दूसरे हाथ में लेने की सोची, लेकिन ऐसा करने में उसका शरीर से स्पर्श हो सकता था। 

"जाए द, जब हतना देर सहे, त थोरा देर अउर सह लेंगे," कैलाशजी स्वयं को सान्त्वना देते हुए बढ़ने लगे। कालीमन्दिर के पीछेवाली गली के पास पहुँचते-पहुँचते उनकी हिम्मत जवाब देने लगी, पसीने से सराबोर कुर्ता पीठ से चिपक गया, और फूल-सी हल्की मटकी मन-भर भारी लगने लगी। 

"बाबू हो! ई त अपना कन्धा पर हल रख कर खेत जोतने के समान हो गया। अगर ई मटकिया को कहीं दूइये सेकेन्ड के लिए रख कर दम ले लेते तो साँस बच जाता," कैलाशजी का मन बावला होने लगा।

"नहीं! साहेब हम पर बिस्वास करते हैं तब्भे न हमको हतना बड़का जिम्मेदारी दिए हैं! कौनो छोटा-मोटा चीज होता त ऊ केसव्वा चाहे रामधनवा को नहीं दे देते? हनुमानजी त लछमनजी के लिए पहाड़े उठा लिए थे, आउ हम मोहन के लिए हतनो काम नहीं कर सकते?" उनके दिमाग़ ने लगाम कसी। 

दिमाग़ चाहे जो कहे, वस्तुस्थिति तो यही थी कि उनके शरीर में एक पग आगे बढ़ाने की शक्ति भी नहीं बच गई थी। "थोड़ा देर खड़े-खड़े सुस्ता लेने से भी कुछ ताक़त तो आ ही जाएगा, फेर चलेंगे," उन्होंने निर्णय लिया। लाचार, वे एक चौराहे पर पेड़ के नीचे एक पल को ठिठके, मगर दिमाग़ ने फिर चाबुक लगाया, "रुकेंगे त एहीं भुइयाँ में धँसले रह जाएँगे, चलेंगे त कामो हो जाएगा अउर जानो बच जाएगा।"

जाड़े की रात में पसीने से लथपथ, थकावट से चूर, वे आगे बढ़े, और हैरत में पड़ गए। सामने से एक सफ़ेद आकृति उन्हीं की तरफ़ दौड़ी चली आ रही थी। वे घबरा कर किनारे हो गए। वह एक जवान लड़की थी। ख़ुले बाल उसके कन्धों के दोनों ओर बारी-बारी से ऐसे झूम रहे थे जैसे कोई झूला गतिमान हो। उस गौर वर्ण युवती ने बिलकुल सफ़ेद कपड़े पहने हुए थे। वह इतनी तेज़ दौड़ रही थी कि उसको स्पष्ट रूप से देखना असम्भव था। वह क्यों दौड़ रही थी, पता नहीं। उसके आगे-पीछे दूसरा कोई न था। उसके पास आते ही कैलाशजी के बदन में झुरझुरी दौड़ गई। युवती ने उनकी तरफ़ देखा और गति धीमी किए बिना दौड़ती चली गई। उफ़्, कितनी काली-काली, बड़ी-बड़ी आँखें थीं उसकी! उसकी दृष्टि कैलाशजी के कलेजे को भेद गई। उन्होंने बरबस मुड़ कर देखा, लड़की चौराहे पर ओझल हो रही थी। 

गंगा में मटकी प्रवाहित करते-करते कैलाशजी का बदन बुख़ार से तपने लगा। वे जैसे-तैसे घर वापस लौटे तो देखा, यज्ञवाले कमरे में जैसे भूचाल आकर चला गया था। वे भौंचक से इधर-उधर ताकने लगे। बैठकख़ाने में जदुबाबू की पत्नी रुँआसी खड़ी थीं। बिना कुछ पूछे ही बोलीं, "का जाने कइसे रोसनदनवा से एगो बिलाई छड़प के आ गया आउ बेदी पर से चढ़ावावाला माँस ले के भागने लगा। बाबाजी रोकने का कोसिस किए त उनको अटैक कर दिया।" वे आगे भी बहुत कुछ बोलती गईं, पर कैलाशजी कुछ न सुन सके। उनका दिमाग़ सुन्न हो चुका था। वे अपने कमरे में जाकर लेट गए। दो दिनों तक बुख़ार ने उन्हें उठने नहीं दिया। 

स्वस्थ होने के बाद वे हमारे घर आए और पूरा क़िस्सा बयान किया। माँ ने हैरत से और पिताजी ने हिकारत से उनकी गाथा सुनी। माँ को पूरा विश्वास था कि अगर कैलाशजी मुड़ कर नहीं देखते तो यज्ञ सफल हो जाता। पिताजी पूरी घटना को अंधविश्वास और कैलाशजी की कल्पना की उपज मान रहे थे। उनका कहना था कि अगर कोई युवती सड़क पर पौ फटने से पहले दौड़ भी रही थी, तो भी उसे प्रेत नहीं माना जा सकता। हो सकता है कि वह उस इलाक़े के किसी छात्रावास की निवासी हो जो रंगे हाथों पकड़े जाने के भय से भाग रही हो। रोशनदान से बिल्ली के अन्दर आने को भी वे उस जीव के माँस की तलाश में घूमने की नैसर्गिक प्रकृति का द्योतक ठहरा रहे थे। कैलाशजी को बुख़ार आना भी स्वाभाविक था, जाड़े की रात में खुली हवा में घूमनेवाले को बुख़ार हो जाना कोई अनहोनी तो नहीं! मैं चुपचाप सुनता रहा, पर मेरा मन पिताजी की बातों को मानने से बग़ावत कर रहा था। यदि किसी युवती को रंगे हाथों पकड़े जाने का डर होगा तो वह सरेआम सड़क पर दौड़़ लगाएगी या किसी अगम्य कोने में जाकर छुप जाएगी? किस बिल्ली की शिकार करने की नैसर्गिक प्रवृत्ति इतनी प्रबल होगी कि वह बन्द रोशनदान को खोलेगी और छः इंसानों की मौजूदगी के बावजूद दस फ़ीट की ऊँचाई से नीचे छलाँग लगा देगी?  

दो-तीन साल बाद कैलाशजी से मेरा सम्पर्क टूट गया, पर इतना तय है कि अगर उस दौरान मोहन की हालत में कोई सुधार हुआ होता, तो वे हमें ज़रूर बताते । मोहन को अच्छा चिकित्सक नहीं मिला या अच्छा ओझा, उसका निर्णय आप पर छोड़ता हूँ। आप, जो विज्ञान की कसौटी पर ख़रे उतरे तथ्यों पर ही भरोसा करते हैं।

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/05/15 11:03 AM

बेहद जिज्ञासापूर्ण कहानी

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