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बीन्स की आधी फली

मेरे मुहल्ले में हर बुधवार बड़ी चहल-पहल होती है। सड़क पर उस रात नौ बजे सन्नाटा नहीं हो जाता, फल-सब्ज़ी और छोटी-मोटी घरेलू चीज़ें बेचनेवाले देर तक रास्ता-किनारे दुकान लगाये रहते हैं, हाँक लगाते रहते हैं, मोलभाव करते रहते हैं। कई दुकानदार तो सारा माल बेच कर ही दुकान बढ़ाते हैं, हाँलाकि कुछ अभागे अगले बाज़ार के लिये बचाखुचा सामान समेटते-सहेजते भी नज़र आते हैं। 

आधुनिक भारत की राजधानी दिल्ली से बस दो किलोमीटर दूर यह मुहल्ला अब भी किसी पिछड़े अर्द्धविकसित कस्बे से बेहतर नहीं। यहाँ की सड़कों पर सिर्फ़ चुनावों के समय झाड़ू लगता है, यहाँ की नालियाँ साल-भर बजबजाती हैं, यहाँ आवारा कुत्ते, गाय और बन्दर राहगीरों का जीना हराम करते हैं, और कर्णभेदी संगीत तथा कर्कश हॉर्न यहाँ की तहज़ीब में कुछ वैसे ही शुमार हैं जैसे बड़बोलापन कुछ लोगों की आदत का अहम हिस्सा बन जाता है। यहाँ के ज़्यादातर मकान तीन मंज़िले हैं, अधिकतर इमारतें ख़स्ताहाल हैं। बिजली आँखमिचैली खेलती रहती है, और हर दो-तीन महीने में कोई-न-कोई ट्रांसफ़ॉर्मर फुकता रहता है। सात-आठ साल पहले यहाँ एक सिनेमा- मॉल ख़ुला था, पर अब वह ऐसे खंडहर में तब्दील हो रहा है जिसमें सिर्फ़ उल्लू बोलते हों। मुहल्ले में दो पार्क हैं जहाँ ख़ुशक़िस्मत लोग बेतरतीब उगे पेड़-पौधों के किनारे बची चंद सहीसलामत बेंचों पर बैठ कर अनुपस्थित व्यक्तियों की बुराई करते रहते हैं। 
थोड़े शब्दों में कहूँ, तो यह जगह मनहूस है।  

बड़े शहरों में पैंतीस साल की नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद मैं इसी मुहल्ले में बस गया हूँ। यहीं क्यों बसा, कहीं और क्यों नहीं गया, वह बात जाने दीजिये। वह एक बड़ी चर्चा का विषय है जो कभी किसी और कहानी में करूँगा। यहाँ मेरे जैसे लोगों की दिनचर्या फ़्लैट के अंदर से शुरू हो कर फ़्लैट के अंदर ही ख़त्म हो जाती है। बस बुधवार का हाट ही है जो बासी खिचड़ी में ताज़े देसी घी का अहसास दिला देता है। सामान बेचने की होड़ में "भरो, भरो, भरो" पुकारते दुकानदारों से मोलभाव करते ग्राहकों को देखना मेरे लिये कौतुक का विषय है। साथ ही, ताज़ी हरी सब्ज़ी ख़रीदने का आकर्षण भी कोई कम नहीं होता। लिहाजा, मेरी पत्नी और मैं दोनों हर बुधवार की शाम तंग सीढ़ियों से आहिस्ता-आहिस्ता उतर धीमे कदमों से बाज़ार का चक्कर लगा कर ख़रीदारी ज़रूर करते हैं। घण्टे-भर का शगल भी हो जाता है और बीस-तीस रुपयों की बचत भी हो जाती है।  

कल बुधवार था। रात के साढ़े दस बज रहे थे। मैंने पत्नी से कहा, "अब और कितनी देर करोगी? चलो, सब्ज़ी लेने चलें।"

लेकिन उसमें आलस समाया था। "बस आलू-प्याज़ और ज़रा-सी सब्ज़ी ही तो लेनी है, तुम हो आओ। और हाँ, पर्स का ख़याल रखना।" उसने ताक़ीद करते हुए मुझे विदा दी।

पत्नी के बिना ख़रीदारी करने में मज़ा नहीं आता। एक रुपये का धनिया भी ख़रीदने से पहले वह पंद्रह सब्ज़ीवालों से भाव पूछती है, जबकि मैं बस उनकी हाँक सुनकर ही काम चला लिया करता हूँ। मैं सब्ज़ी चुनने में भी सावधानी नहीं बरतता, जबकि वह एक-एक आलू नापतौल कर उठाती है, और कभी-कभी तो वज़न भी दोबारा तुलवाती है।

कन्धे पर झोला टाँगे मैं दुकानों की क़तार के बीच बढ़ने लगा। इतनी रात को भी दूसरों से टकराये बिना चलना नामुमक़िन नहीं तो मुश्क़िल ज़रूर था। बहुत सी दुकानें आधी से ज़्यादा ख़ाली हो चुकी थीं। आमतौर पर ऐसी हालत में भाव कम होने लगता है, पर उन दुकानों में दाम अभी ऊँचे ही थे। वैसे भी, इस बाज़ार के आरम्भ की सौ-एक दुकानों के दाम बाद की दुकानों की दर से हमेशा ज़्यादा होते हैं।  

मैं आगे बढ़ता गया। टी-क्रॉसिंग पर एक दूसरी सड़क से मिलते ही हाट दो समकोणीय दिशाओं में फैल जाता है। उत्तर दिशा की ओर तीन-चार सौ दुकानें होती हैं, और दक्षिण की तरफ़ लगभग सौ। उत्तर दिशा की ओर चलने-फिरने की जगह इतनी कम होती है कि अक्सर परेशानी हो जाती है। कहीं छाता फँसता है तो कहीं झोला अटक जाता है। हम ज़्यादातर ख़रीदारी हाट के दक्षिणी भाग में ही करते हैं। आज तो पत्नी भी साथ नहीं थी, इसलिये कहीं और जाने का सवाल ही नहीं उठता था। मैं दक्षिणी भाग की ओर ही मुड़ गया। प्याज़ का ठेला देखते ही ख़रीदने को बढ़ा, तभी याद आया कि पत्नी की सलाह है, "आलू-प्याज़ अन्त में लिया करो। उनका भारी बोझा काहे को ढोते फिरते हो?" प्याज़वाला "आइये, आइये" करता रह गया, और मैं "बाद में, भैया!" बोलकर बागे बढ़ गया।

अजीब समस्या थी! टिमटिमाती रोशनी में सब्ज़ियाँ हरी कम और काली ज़्यादा दिखाई दे रही थीं। दाम भी कोई ख़ास कम नहीं थे। मैंने आधा किलो अरवी ली और इस उम्मीद में चलता गया कि शायद आगे कहीं किसी जगह कुछ बेहतर मिल जाय। सुबह की बरसात से जगह-जगह जमा हो गये कीचड़ में रास्ता बनाता, दुकानदारों की "बीस रूपये पाव" की पुकार सुनता मैं आगे बढ़ रहा था। मेरी उम्र में ‘बीस‘ का ‘तीस‘ और ‘तीस‘ का ‘बीस‘ सुनाई पड़ना आम बात है। दुकानदार इस कमज़ोरी का ग़लत फ़ायदा उठाने से बाज नहीं आते। कई बार झोले में बीस रूपये की सब्ज़ी उड़लवाने के बाद मुझे तीस रूपये देने पर मजबूर होना पड़ा है। दुकानदार भाँप जाते हैं कि मैं झोले से सब्ज़ी वापस कर दस रूपये बचाने के बदले इज़्ज़त बचाना श्रेयस्कर समझता हूँ। 

एक दुकान काफ़ी ख़ाली-ख़ाली थी। बस थोड़ा-सा माल ही बाक़ी बचा था--तीन-चार लौकियाँ, दो-तीन किलो शिमला मिर्च, थोड़ी-सी फ़्रेन्च बीन्स, और चार-पाँच किलो परवल। मैं शिमला मिर्च टटोलने लगा, तो दुकानदार बोला, "यह मेरी तरह मोटी हैं, पर भारी नहीं हैं।" मुझे हँसी आ गयी। हर सब्ज़ी का दाम बाक़ी जगहों से कम था। मैं थोड़ी-बहुत मात्रा में हर सब्ज़ी तुलवाने ही वाला था, कि दुकानदार पहले एक महिला के लिये फ़्रेन्च बीन्स तोलने लगा। मुझे चिढ़ तो हुई, पर ज़ब्त कर के रह गया। यह डर भी था कि ध्यान भटकने से कहीं सब्ज़ियों के दाम भूल न जाऊँ, और दुकानदार मूर्ख बनाकर मुझसे ज़्यादा पैसे न झटक ले। एकाग्रचित्त होकर मैं मन में "दस की लौकी, पच्चीस की शिमला मिर्च" दोहरा ही रहा था, कि दुकानदार महिला से बोला, "देख लीजिये, देख लीजिये, एक-एक फली देख लीजिये, सब बढ़िया हैं!" महिला ने उकताए स्वर में कहा, "हाँ, भाई हाँ, ठीक है। इतना नहीं देखना मुझे।" फिर मुझे देखते हुए बोली, "इन लोगों की यही प्रॉब्लम है। शराब पी कर अनाप-शनाप बकने लगते हैं।" मैं चौंका। इधर-उधर देखा तो वहाँ मेरे सिवाय कोई था ही नहीं। वह ऐसी आत्मीय बात मुझी से कर रही थी। लेकिन मैं तो उसे जानता भी नहीं था! महिला अँधेरे में ठीक से तो नहीं दिखी, पर वह मुझे परिपक्व औरत कम और पच्चीस-तीस साल की युवती ज़्यादा मालूम हुई। साधारण नाक-नक़्श और मझोली क़द-काठीवाली, घरेलू कपड़ों में लैस, वह युवती मुझसे क्यों बात कर रही थी, मेरी समझ में ज़रा देर से आया। दुकानदार को पिये हुए जान कर वह यह नहीं जताना चाहती होगी कि वह अकेली थी। मैंने भी उसी के लहजे में उत्तर दिया, "अच्छा, तो ये बात है!" सब्ज़ी ख़रीद कर वापस मुड़ा, तो युवती मेरे पीछे ही भरा झोला लिये खड़ी मिली। मैं उसे देख कर मुस्कराया, तो उसने बड़े आग्रह से कहा, "सुनिये, मुझे मेरे घर छोड़ देंगे? दरअसल, उस तरफ़ सुनसान पड़ता है।"

हाट की दक्षिणी सीमा पर शिव मन्दिर है। युवती ने उसी ओर इशारा किया था। मुझे उससे सहानुभूति हुई। पता नहीं किस मजबूरी में उसे इतनी रात को अकेले हाट में आना पड़ा था। मेरे मना करने से कहीं उसे अकेले जाना पड़ गया और उसके साथ कोई हादसा  हो गया, तो? ज़रूर उसने मेरी उम्र देखकर आग्रह किया होगा, वरना लड़कियाँ ग़ैर मर्दों पर कहाँ भरोसा करती हैं।

"चलिये," मैंने कहा।

युवती ख़ुश हो गयी। "थैंक्यू! मुझे मालूम था कि आप मेरा साथ ज़रूर देंगे।" वह खनकती हुई आवाज़ में बोली।

मैं चकराया। मैं चेहरे और नाम भले ही भूल जाऊँ, पर आवाज़ जल्दी नहीं भूलता। पर इस लड़की की तो आवाज़ भी याद नहीं थी मुझे। क्या मैं सचमुच उससे कभी नहीं मिला था? हो सकता है, कभी किसी के घर मुलाक़ात हुई हो जिसे मैं भूल गया पर उसे याद रह गया हो। वरना इतने अधिकार से कोई कैसे बोल सकता है? मुश्क़िल यह थी कि मैं उससे इस बारे में कुछ पूछना भी नहीं चाहता था--उसे ख़राब जो लगता। 

हम दोनों साथ-साथ चलने लगे। हाट की आख़िरी दुकान के बाद, सचमुच, सन्नाटा छाया था। साठ फ़ीट चौड़ी सड़क सौ फ़ीट चौड़ी लग रही थी। बादलों से छन कर आती चाँदनी में सफ़ेद और पीले मकान भी मटमैले दिख रहे थे। बीस-तीस कदम चलते ही मुझे याद आया कि मैंने आलू-प्याज़ तो लिये ही नहीं थे। पर अब क्या हो सकता था? भला मैं उसे सुनसान रास्ते पर अकेली छोड़ कर कैसे जा सकता था!

"कहाँ है घर आपका?" मैंने शब्दों से उलझते हुए पूछा। 

"पास ही है। चौराहे से जो रास्ता अन्दर सिनेमा-मॉल की तरफ़ जाता है, बस उसी पर।" उसने इठलाते हुए कहा, फिर सकुचाते हुए बोली, "मैंने आपको बेकार में फँसा दिया न! क्या करूँ, घर में और कोई भी जाने की हालत में होता तो मुझे नहीं जाना पड़ता। और जब निकलने में लेट हो गयी, तो वापस लौटने में और देर तो होनी ही थी।"

वह और तेज़ चलने लगी, लेकिन बड़े सलीके से, मेरी तरह लदर-फदर करती हुई नहीं। मैंने कनखियों से देखा, तो वह बिलकुल सामने देख रही थी। शायद उसके होठों पर मुस्कराहट थी। दिखने में वह मामूली भले ही रही हो, पर उस समय आकर्षक लग रही थी। तेज़ चलने के बावजूद उसके पैरों से आहट तक नहीं हो रही थी। 

बातें दिलचस्प बनाती है, सोचते हुए मैंने कहा, "नहीं, नहीं, कोई बात नहीं। मेरा घर भी उधर से कोई ज़्यादा दूर नहीं।"

चौराहे से अन्दर की तरफ़ मुड़ते ही मैं चौंक गया। रास्ता इतना अँधेरा होगा, मैंने कल्पना भी न की थी। मैं उस रास्ते से अक्सर गुज़रता था, पर दिन की रोशनी में वह रास्ता किसी भी और रास्ते की तरह बिलकुल मामूली दिखता था। अभी तो कुछ भी साफ़ नज़र नहीं आ रहा था, मानो चश्मे के लेन्स पर भाप जम गयी हो। शायद आसमान में बादल गहरा गये थे।

हमारी पदचाप सुन कुत्तों ने भौंकना शुरू कर दिया। कुछ रोने भी लगे। मुझे कुत्ते पसन्द हैं, पर रात में अजनबी कुत्तों का भरोसा नहीं किया जा सकता। और, उनका भयावह रोना सुन कर तो मेरे बदन में झुरझुरी दौड़ जाती है।  

"आपको मालूम है, कुत्ता भैरव का वाहन है।" लड़की की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया। सुनसान में मैं उसके कपड़ों की सरसराहट साफ़ सुन पा रहा था। घ्यान देता, तो शायद उसकी साँसों की आवाज़ और दिल की धड़कन भी सुन लेता। अजीब इत्तफ़ाक़ था--हम शिव मन्दिर को पार करने के बावजूद शिव के ही दूसरे रूप, भैरव, के वाहनों के समीप चल रहे थे। 

"आपको कुत्ते पसन्द हैं?" मैंने पूछा।

"नहीं! मैं कुत्तों को पसन्द नहीं करती, और वे मुझे पसन्द नहीं करते।" लड़की हँस पड़ी, जैसे बड़ी मज़ेदार बात कह दी हो। कुत्ते घबरा कर दोबारा भौंकने लगे।

मुझे अचानक डर-सा लगा। अगर यह लड़की मुझे सचमुच ‘फँसा‘ दे, तो मैं क्या करूँगा? भले घरों की लड़कियाँ रात में अनजान आदमियों के साथ इस तरह बेपरवाह घूमती हैं क्या? अगर उसे डर लग रहा था, तो उसने मेरे जैसे दुर्बल प्रौढ़ का साथ ही क्यों चुना? अगर उसके साथियों ने मुझे घेर लिया, तो मैं क्या करूँगा? मेरी गर्दन से पसीने की बूँद टपकने लगी। मैं लड़खड़ा-सा गया। कुत्तों को क्रोध प्रकट करने का एक और कारण मिल गया। 

"आपका झोला भारी है क्या? मैं उठा लूँ?" उसने सहानुभूति जतायी।

"नहीं-नहीं, आप लड़की हो कर ऐसे मत पूछिये। सामान तो मुझे आपका उठाना चाहिये।" मैंने झेंपते हुए कहा।

"अंकल, मुझे तो आदत है। इससे कहीं ज़्यादा भारी वज़न ले कर यूँ जा सकती हूँ  इधर-से-उधर!" वह एकबार फिर खिलखिलायी। 

डरा-सहमा आदमी भला हँसता है क्या? नहीं, बात ज़रूर कुछ और थी। इतना तो ज़ाहिर था कि वह मुझे बातों में उलझाये-बहलाये रखना चाहती थी। मगर क्यों? मुझे बन्धक बना कर पैसे ऐंठने के लिये? मेरे शरीर के अंग चुराने के लिये? मुझ पर बलात्कार का इल्ज़ाम लगाने के लिये? हे भगवान, एक अनजान स्त्री की बातों में आकर मैंने कौन-सी बला सिर ले ली थी! मैं अपने को कोसने लगा। फ़ोन पास होता तो पत्नी से बात कर उसे चेतावनी दे देता, पर मैं हाट में फ़ोन चोरी हो जाने के डर से नहीं ले जाता। बावन हज़ार रुपयों का फ़ोन एक बार गँवा चुका हूँ, बार-बार थोड़े ही गँवाऊँगा! 

"वह तो मैं देख रहा हूँ। मेरी साँसें फूल गई हैं, झोला कई बार दोनों हाथों में बदल चुका हूँ, पैर घसीट-घसीट कर चल रहा हूँ, पर आप हैं कि बड़े इत्मीनान से चल रही हैं।" मैंने हाँफते हुए अपने भय पर पर्दा डाला और झूठी दिलेरी से उत्तर दिया।

इस बार झेंपने की बारी लड़की की थी। बोली, "हमारे यहाँ आवाज़ करके चलने को ख़राब समझते हैं।" फिर उसने बात बदलते हुए कहा, "आ गया! वो है हमारा घर!" 

मैंने चैन की साँस ली। उसका बताया घर एक मोड़ पर था, बड़ी सड़क के नज़दीक। घर के पास ही बैंक और एटीएम थे। शायद कोई पहरेदार भी होगा वहाँ। अब यह मेरा क्या बिगाड़ लेगी? मैंने सोचा।

"चलो, आख़िर मंज़िल आ ही गयी।" मैंने लड़की के अंदाज़ की नक़ल करते हुए कहा।

वह दोबारा हँस पड़ी, फिर बोली, "अभी कहाँ! देखिये न, सारी बत्तियाँ तो गुल हैं। इतने अँधेरे में बैग का बोझ लिये ज़ीना चढ़ूँगी, तो शर्तिया गिर पड़ूँगी। मैं बत्ती जला कर अभी आती हूँ। आप रुकेंगे न? बस पाँच सेकन्ड लगेंगे।" और मेरे जवाब का इन्तज़ार किये बग़ैर, धप् से झोला सड़क पर पटक, वह अन्दर ग़ायब हो गयी।  

मैं एक क्षण खड़ा रहा, फिर लगा कि मैं जीवन की सबसे बड़ी बेवक़ूफ़ी करने जा रहा हूँ। आधी रात को सुनसान अँधेरे मोड़ पर मैं किसी भी षड़यंत्र का शिकार हो सकता हूँ। सब्ज़ी ऐसी कौन-सी क़ीमती चीज़ है जिसके लिये वह मुझे पहरेदार बना कर छोड़ गयी है--मैंने सोचा। अपनी भूल का एहसास होते ही मैं तेज़ कदमों से चल दिया। झोला मेरे पैरों से टकरा-टकरा कर मुझे चाल धीमी करने को मजबूर करता रहा, पर मैं बड़ी सड़क आने तक लगभग सौ मीटर वैसे ही चलता रहा। मेरी साँसें फूल गयीं और सीने में धौंकनी-सी चलने लगी। कोने पर पहुँच कर मैं थोड़ा रुका। आसपास कोई नहीं था। दूर सड़क पर हाट की आख़िरी बत्तियाँ टिमटिमाती नज़र आ रही थीं। पीछे मुड़कर देखा, तो लड़कीवाले मकान में अब भी अँधेरा था। मैंने और रुकना मुनासिब न समझा।  

घर पहुँचते ही पत्नी ने सवालों की झड़ी लगा दी--"इतनी देर कहाँ रह गये थे? गिनीचुनी तो सब्ज़ियाँ लानी थीं, फिर भी बारह बजा दिये!" झोले से सब्ज़ियाँ पलटते ही उसने माथा ठोका.."आलू-प्याज़ क्यों नहीं लाये? दुनिया-भर की सब्ज़ी उठा लाये, लेकिन जो ज़रूरी था, वही लाना भूल गये।" मैं सच्ची बात क्या बताता, बस कुछ अनमना-सा उत्तर दे कर रह गया। 

वह लड़की मेरे दिमाग़ में रातभर घूमती रही। उसकी आवाज़, उसका अंदाज़, उसकी छवि मुझे परेशान करती रही, और मुझे अपनी बुजदिली पर अफ़सोस होता रहा। बेकार ही मैंने उस पर शक़ किया। दूर रह कर ही सही, पर मुझे उसके घर की बत्तियाँ जलने तक इंतज़ार करना चाहिये था। कहीं किसी विपत्ति में न फँस गयी हो बेचारी!

सुबह मैंने जल्दी-जल्दी रातवाला कुर्ता-पाजामा पहना और टहलने निकल पड़ा। सड़क पर आते ही ख़याल आया, उजाला चाहे ख़ुशक़िस्मती का हो, ज्ञान का हो, या सूरज की रोशनी का हो, परिस्थितियों में कितना बड़ा फ़र्क पैदा कर देता है! कुछ घण्टे पहले का भयावह वातावरण सूर्योदय के बाद कितना निरापद हो गया था। मन में प्रबल इच्छा हुई कि रातवाली लड़की के घर जाऊँ और आश्वस्त हो लूँ कि वह ठीकठाक है, वरना झूठमूठ का अपराधबोध मुझे सालता रहेगा। वैसे वह ठीक ही होगी, थोड़ी-सी देर में भला उसका क्या बिगड़ा होगा? हो सकता है कि वह बालकनी में खड़ी हो और मुझे आते देखकर हाथ हिलाये, चाय पीने का आग्रह करे। यूँ तो मैं सिर्फ़ दार्जीलिंग की चाय पीता हूँ, पर अगर वह ज़्यादा ज़ोर देगी तो उसका मन रखने के लिये जो भी पिलायेगी, पी लूँगा। 

लड़की के मकान के पास पहुँच कर मैं चकरा गया। वह जिस मकान के अन्दर गयी थी, वह रिहायशी नहीं था। वहाँ किसी प्राइवेट कम्पनी का टूटाफूटा बोर्ड टँगा था। बन्द खिड़कियाँ और दीवारों से लटकते मोटे-मोटे जाले उस घर के अव्यहवृत होने की चुगली कर रहे थे। बात शीशे की तरह साफ़ हो गयी थी। वह लड़की मुझे सड़क पर अकेला छोड़कर अपने साथियों को ख़बर देने गयी थी। कल रात मेरा काम तमाम होना तय था! अगर मैं समय रहते हट न गया होता, तो अभी न जाने कौन-सी मुसीबत झेल रहा होता। ज़िन्दा भी होता कि नहीं, पता नही।   
       
मैंने मन-ही-मन भगवान को समय पर सद्बुद्धि देने के लिये धन्यवाद दिया। वापस मुड़ने से पहले देखा, पौधों की उजाड़ क्यारी में बीन्स की आधी फली पड़ी थी। बाक़ी सब्ज़ियों का न जाने क्या हुआ होगा। मेरी गर्दन पर पसीने की एक बूँद फिर टपक आयी। पॉकेट से रुमाल निकाला, तो साथ में कुछ और भी निकल आया। 

वह एक फली थी, बीन्स की, आधी। पता नहीं मेरी जेब में कब और कैसे आ गयी थी। मैंने उसे क्यारी के सुपुर्द किया और तेज़ कदमों से चल दिया।
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टिप्पणियाँ

अमिताभ वर्मा 2019/09/26 05:56 AM

धन्यवाद, इन्दिराजी!

इन्दिरा वर्मा 2019/09/17 01:15 PM

मज़ेदार कहानी । अन्त तक रुचि बनी रही ।

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