नरोदा पाटिया : गुजरात, 2002
काव्य साहित्य | कविता सुशांत सुप्रिय2 Jun 2016
जला दिए गए मकान के खंडहर में
तनहा मैं भटक रहा हूँ
उस मकान में जो अब साबुत नहीं है
जिसे दंगाइयों ने जला दिया था
वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी
उस जले हुए मकान में अब उदास वीरानी है
जला दिए गए उसी मकान के खंडहर में
तनहा मैं भटक रहा हूँ
यह बिन चिड़ियों वाला
एक मुँहझौंसा दिन है
जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है
और शहर से संगीत नदारद है
उस जला दिए गए मकान में
एक टूटा हुआ आइना है
मैं जिसके सामने खड़ा हूँ
लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है
आप समझ रहे हैं न
जला दिए गए उसी मकान के खंडहर में
मैं लौटता हूँ बार-बार
वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ
क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ
मैं भी जला दिया गया था ...
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