अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

राष्ट्र पीड़ा

आज हमने अपने मन की,
कुंठाओं पर वार किया,
मजबूरी का लाचारी का,
चोला फेंक उतार दिया,
कब से यूँ ही हालातों के,
दास बने बैठे थे हम,
आज हृदय को विपदाओं से,
लड़ने को तैयार किया।

बहुत समय से बुरे समय के,
गीत सुनाते आये हैं,
अवसर और भाग्य के आगे,
शीश झुकाते आयें हैं,
जीवन के काले चेहरे का,
इक दिन नूर बदल देंगे,
भाग्य न बदला तो हम अपना,
वक़्त ज़रूर बदल देंगे।

छोटी-मोटी फिसलन हमको,
कब तक यूँ तड़पाएगी,
अँधियारों से लड़ने वाला,
कब तक दीप बुझाएगी,
कब तक ठहरेंगे अँधियारे,
सूने मन की गलियों में,
कब महकेंगी नई सुगंधें,
हृदय चमन की कलियों में।

निज विपदाएँ अर्थहीन हैं,
राष्ट्र-समस्या भारी है,
रोटी कपड़ा और भवन की,
जंग अभी भी जारी है,
खून बहेगा कब तक मेरी,
भारत माँ की छाती पर,
कब तक होगा वार देश के,
अरमानों की थाती पर।

क्या भूखे पेटों की रोटी की,
पूरी आस नहीं होगी,
क्या पतझड़ की शुष्क हवाएँ,
फिर मधुमास नहीं होगी,
रोशन कभी नहीं होंगे क्या,
अँधियारे चौबारों के,
बिना स्वार्थ के कब बोलेंगे,
ये पन्ने अख़बारों के।

रोज़ाना जो नंगे भूखे ,
सोते है फ़ुटपाथों पर,
क्यों संसद में बहस नहीं ,
होती उनके जज़्बातों पर,
क्यों कुछ बच्चे चौराहों पर,
हाथ पसारे रोते हैं,
क्यों कुछ कंधे बूढ़ेपन का,
बोझ अकेले ढोते हैं।

कब तक ठंडी होगी ज्वाला,
मेरे मन की पीड़ा की,
कब बदलेगी कार्यप्रणाली,
राजनीति की क्रीड़ा की,
कोई नहीं है जिस पर भारत,
माता का कोई क़र्ज़ नहीं,
मैं बस अपनी पीड़ा गाऊँ,
मैं इतना ख़ुदगर्ज़ नहीं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं