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रिश्ता (संजय वर्मा ’दृष्टि’)

ज़िंदगी की राह कुछ ऐसी ही होती 
जब बेटी का विवाह हो नज़दीक 
पिता की आँखें डबडबाई  रहतीं
मानों आँसुओं का बाँध टूट रहा हो 
बचपन से पाला पोसा
वो अब घर छोड़ कर जाना होता है 


ये नियम तो है ही 
किंतु त्यौहार और घर का सूनापन 
भर जाता आँसू 
बेटी के न होने पर 
परिवार की भूख उड़ जाती 
बहुत कठिन रिश्ता होता है मध्यांतर का 
पिता ही इस बात को समझता
फ़िक्र अपनी जगह सही 
मगर बिछोह उसकी नींद उड़ाता 
ख़्वाब तो रास्ता ही भूल जाते 
दिल का टुकड़ा 
उस समय 
जिसकी क़ीमत नहीं 
वो बिछड़ जाता है 


ये विरहता कुछ सालों 
तक ही अपना अभिनय निभाती 
फिर भी बेटी तो बेटी है 
पिता की याद उसे और
पिता को बिटिया 
की फ़िक्र सताती 
पिता के बीमार होने पर 
बेटी ही संदेशा देकर हाल पूछती 
फिर झूठी आवाज़ दोहराती 
मै ठीक हूँ 
तुम अपना ख़्याल रखना 
ये संवेदना बूढ़े होने तक चलती 
मायका मायका होता 
स्वतंत्र तितली फिर से उड़ना चाहती
पिता की बगिया में 
समय वापस उसके निर्वहन के लिए बुलाता 
रिश्ता बेटी का ऐसा क्या 
जो हर वक़्त आँखों में आँसू लाता 

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