अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

तीन लाख पचास हज़ार

१९९० के दशक में लगभग तीन लाख पचास हज़ार कश्मीर के मूलनिवासी कश्मीरी पंडित कश्मीर से पलायन कर गए। इस्लामी आतंकवाद आज़ादी का मुखौटा पहने कश्मीर में निज़ाम ए  मुस्तफ़ा स्थापित करने की शपथ ले चुका था। इस भयानक मानव त्रासदी का शिकार कश्मीर के हिंदू  हुए और सदा के लिए अपना घर-बार छोड़ गए

(अपना सामान बाँधते हुए, कश्मीर से पलायन के लिए तैयार एक वृद्ध कश्मीरी की दुविधा)

कांगर** तो नहीं भूला? 
या फिर वो दमचूल्हा?
मसाले का पैकेट? 
फिर वो जैकेट 
जिस में बना था मैं दूल्हा?
सर्टीफिकेटों का संदूक़? 
खिलौने वाली बंदूक़?
 
संदूक़ों में सिमटी 
विरासत सदियों की,
जैसे गागर में सिमटीं हो 
रवानी नदियों की। 


वो आहें वो तमन्नाएँ, 
उन्हें भी ट्रकों में लाद दो
अरमान या ख़्वाब हैं? 
तो भी तरपाल से बाँध दो।


वो सासें, वो बहुएँ, 
उनके झगड़े और तानें 
नई बीवियों के गहने, 
उनके नख़रे और बहाने
 
बाबू, व्यापारी,
वो अफ़सर, वो नानवाई
अध्यापक, डाक्टर, इंजीनियर, 
और हलवाई
ग़मगीन सा चाचा 
वो मुस्कुराती हुई मौसी 
निकम्मा दुकानदार 
वो चालक पड़ोसी 
सब समान बाँधे खड़े हैं
बस चलने की देर है,
मंज़िल की तलाश है
या बस जगहों का फेर है?
 
क्या मिलेगा उधर?  
चंदे का राशन?
बनावटी सहानुभूति? 
नेताओं के भाषण?
सुना है धूप से झुलसते 
हैं पाँव वहाँ 
पिघलती धरती पर 
बरसते अंगार जहाँ। 
क्या मिलेंगी चिनार की 
छाँव वहाँ?
यह सादगी और 
पड़ोसियों का प्यार वहाँ?
 
हुकुमरानों ने कहा : 
शांति आएगी, आतंक घटेगा 
रात जाएगी, रोशनी आएगी 
और अँधेरा छँटेगा
तो क्यूँ ना हम 
यह पलायन रोक दें? 
जो जा रहें हैं 
उन्हें भी टोक दें?
पर क्या मैं रह पाऊँगा 
मुस्तफ़ा के निज़ाम में?
क्या मैं रह पाऊँगा 
पाकिस्तान का ग़ुलाम में?
 
जाना होगा 
अखंडता के लिए, भारत की
जाना होगा 
कि नींव मज़बूत रहे इस इमारत की 
लड़ना होगा 
मज़हब के उन्माद से 
लड़ना होगा 
इक तरफ़ा संवाद से 
हम बीज हैं जीवंत होते हैं मिट्टी से मिलने के बाद से 
हम बीज हैं जीवंत होते हैं मिट्टी से मिलने के बाद से 

**कांगर : सर्दियों में गर्म रखने वाला छोटा सा अग्निकुण्ड जो कश्मीर में प्रयोग किया जाता है। 

विडियो

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2022/03/16 03:48 PM

भावुक संवेदनशील विषय पर रचित कविता

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं