तू तन्हा नहीं
काव्य साहित्य | कविता महेश पुष्पद15 Jan 2020 (अंक: 148, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
क्यों मन पर हरदम बोझ लिये,
चिंता दुनिया की रोज़ लिये,
पग-पग पर समझौता करके,
क्यों जीता है यूँ मर-मर के।
क्या दुःख है जो तू रोता है,
क्यों आँसू लेकर सोता है,
जीवन का पश्चाताप न कर,
बस बहुत हुआ ये पाप न कर।
तू मन के अंतरजाल समझ,
गत और अनागत काल समझ,
वो हुआ नहीं, ये कब होगा,
जब जो होना है, तब होगा।
यूँ हालातों से हार नहीं,
जीते जी ख़ुद को मार नहीं,
ये दुःख तो तेरा कण भर है,
तेरा अंत नहीं, मरण भर है।
है कौन जगत में ऐसा नर,
है द्वंद्व नहीं जिसके भीतर,
तू एक नहीं जो रोया है,
सबने अपना कुछ खोया है।
हर हृदय कष्ट से भरा हुआ,
हर नेत्र अश्क से भरा हुआ,
सबके कन्धों पर बोझ वही,
ये आपाधापी रोज़ वही।
जीने का ये क्या ढंग हुआ,
जीवन सारा बेरंग हुआ,
सपनों की अर्थी ढोते हैं,
बस जगते हैं, और सोते हैं।
तू छोड़ जगत की आस निकल,
करके ख़ुद पर विश्वास निकल,
हैं विपदाएँ, तो होने दे,
कोई रोता है, तो रोने दे।
मत सोच कि कल कैसा होगा,
उलझन का हल कैसा होगा,
तेरी सोच से कुछ न बदलेगा,
सूरज वैसे ही निकलेगा।
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Ashu 2023/03/22 03:04 PM
Loved it ♥️