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वे प्रणबद्ध हैं हिंदी की ज्योति को जलाए रखने के लिए...

प्रमाणपत्रों के संग आह्लादित छात्र - 1

वर्ष 1947 में जब भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की, हज़ारों मील दूर सूरीनाम देश में कुछ लोग रेडियो, (जो उस समय सुलभ भी नहीं थे) के चारों ओर कान लगाए बैठे थे और पंडित जवाहरलाल नेहरू के तिरंगे को लहराने के साथ-साथ भारत से हज़ारों मील दूर भी तिरंगा फहराया गया था। 1975 में डच शासकों से स्वतन्त्रता प्राप्त करने तक वहाँ बसा हर हिंदुस्तानी 'जन-गण-मन' को अपना राष्ट्रगान मानता रहा, हिंदी को अपनी मातृभाषा और तिरंगे को अपना ध्वज। आज भी बहुत से लोग तिरंगा अपने घर पर रखना चाहते हैं ताकि वह अपने बच्चों को बता सकें कि यह हमारे पूर्वजों का प्रतीक है। हिंदुस्तानी संस्कृति और भाषा के प्रति वह मन प्राण से समर्पित हैं। अपने को हिंदुस्तानी कहते हैं क्योंकि उनके पूर्वज स्वतंत्रतापूर्व के अविभाजित हिंदुस्तान से गए थे। हिंदी को जीवित रखने और उसे अपनी आगामी पीढ़ी को विरासत में देने का उनका जुनून एक दिन शपथ लेने तक सीमित नहीं है, हाँ उस दिन को उत्सव के रूप में अवश्य मनाया जाता है।

सूरीनाम में भारतीय संस्कृति व हिंदी भाषा का पदार्पण वर्ष 1873 में लालारुख जहाज़ के साथ हुआ। श्रीराम देश के सपने सँजोए इस जहाज़ से 410 व्यक्ति यहाँ पहुँचे। तीन माह की कष्टकारी यात्रा ने जाति-धर्म आदि सभी भेदों व नकारात्मकताओं का परिमार्जन कर दिया था और सभी जहाज़ी एक परिवार बन गए। इस परिवार में संस्कृति फलती-फूलती रही और नवागत पीढ़ियों को सौगात में दी जाती रही। आज सात जातियों यथा, यूरोपियन, अफ़्रीकी, इंडोनेशियन, चीनी, लेबनीज़, अमर इंडियन व हिंदुस्तानी, जो डच, स्रनाँग तोंगो, इंडोनेशियन, चीनी तथा बुश नीग्रो जनजातीय भाषाएँ व अमर इंडियन भाषाएँ बोलते हैं, के बीच हिंदी भाषा का उत्तरोत्तर विकास हिंदी की शक्ति व हिंदुस्तानियों की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। डच यहाँ की आधिकारिक भाषा है और संपर्क के लिए बोली जाने वाली सभी भाषाओं की ध्वनि भी भिन्न है। इस जातीय व भाषिक कॉलाज में सरनामी हिदीं ने सभी जातियों की ज़ुबान पर अपना स्थान बनाया है।

महत्वपूर्ण है कि पूर्वजों के इस दूर देश में आने के 146 वर्ष बाद यहाँ सरनामी हिंदी के रूप में बोली जाने वाली भाषा किसी सरकारी प्रयास के कारण जीवित नहीं है, वह इन्हीं हिंदुस्तानी वंशजों के कारण फल-फूल रही है। भारत सरकार के प्रयास तो उनके यहाँ पहुँचने के लगभग 87 वर्ष के बाद पहुँचे। सूरीनाम के हिन्दुस्तानी हिंदी भाषा को अपनी अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। वह उनके होने का प्रतीक है, दूसरी, तीसरी और चौथी पीढ़ी के ये वंशज वर्ष में बस एक दिन शपथ नहीं लेते, वह प्रणबद्ध हैं हिंदी की ज्योति को सदैव जिलाए रखने के लिए। कुछ ही वर्षों के अंतर पर इस क्षेत्र के अन्य देशों (गयाना, त्रिनिदाद) में पहुँचे हिंदुस्तानियों के वंशज जब हिंदी भाषा को लगभग खो चुके हैं सूरीनाम के हिंदुस्तानी अपनी भाषा बोलने में गौरवान्वित होते हैं।

सूरीनाम के हिंदी सेवी

सूरीनाम में हिंदी का जो रूप व विस्तार देखने को मिलता है उसमें सनातन धर्म महासभा, आर्य दिवाकर, सूरीनाम हिंदी परिषद, बाबू महातम सिंह व माता गौरी संस्था, सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था और ऑर्गनाइज़ेशन हिंदू मीडिया के साथ-साथ हर अनेक स्वैच्छिक हिंदी सेवियों का महत्वपूर्ण योगदान है जो विभिन्न मंदिरों व अलग-अलग स्थानों पर हिंदी कक्षाएँ लेते हैं। सूरीनाम स्थित भारतीय राजदूतावास व भारतीय सांस्कृतिक केंद्र के माध्यम से सूरीनाम में हिंदी के विकास में भारत सरकार का सहयोग भी उल्लेखनीय है ।

भारत सरकार का सहयोग प्राप्त करने के लिए जिन लोगों ने परिश्रम किया उनका उल्लेख किए बिना बात अधूरी होगी अतः यह बताना आवश्यक है कि वर्ष 1957-58 के आसपास सूरीनाम में हिंदुस्तानी समाज को सांस्कृतिक तत्वों के संरक्षण के लिए एक व्यवस्थित पहुँच की आवश्यकता अनुभव होने लगी। सन् 1958 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् से श्री काका कालेलकर के सूरीनाम आगमन पर सूरीनाम में सांस्कृतिक वाहक भेजने का अनुरोध किया गया और बाद में सूरीनाम के पंडित गंगादीन सहतू के परामर्श पर तत्कालीन कृषि मंत्री डॉ. रामबरन मिश्र द्वारा अपनी भारत यात्रा के दौरान पुनः भारत सरकार के समक्ष यह अनुरोध दोहराया, जिसके परिणामस्वरूप 1954 से भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से गयाना में कार्य कर रहे सांस्कृतिक प्रवक्ता, बाबू महातम सिंह को 1960 में सूरीनाम भेज दिया गया। बाबू महातम सिंह जी के वहाँ पहुँचने से हिंदी के विकास को एक नई दिशा मिली और हिंदी दिवस मनाने की परंपरा भी लगभग उसी समय आरंभ हुई और तब से वर्ष 2010 तक हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसके लिए हिंदी पाठशालाएँ एकत्र होकर काव्य पाठ, नाटक, कहानी वाचन, श्रुतलेख आदि प्रतियोगिताएँ करते रहे। एक समय में यहाँ हिंदी दिवस पर पदयात्राएँ निकाली जातीं थी जिनमें कईं गाँवों के लोग शामिल होते और कई किलोमीटर पैदल चलते।

भारत का राजदूतावास भी निरंतर हिंदी दिवस पर हिंदी प्रतियोगिताएँ आयोजित करता रहा है जिनमें भाग लेने आए छात्रों का उत्साह देखने लायक़ होता है। हिंदी प्रमाण पत्र वितरण में तो कई छात्रों के साथ उनके अभिभावक व आजा-आजी (दादा-दादी ) भी उपस्थित रहते हैं, और वह हिंदी प्रमाणपत्र एक अमूल्य धरोहर के रूप में सँजोया जाता है, मानो इसके साथ वे उऋण हो रहे हों।

प्रमाणपत्रों के संग आह्लादित छात्र -2

 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने की परंपरा आरंभ होने पर हिंदी का यह उत्सव उतने ही उत्साह से दो बार मनाया जाने लगा। मुझे आज भी याद है कि 2011 में जब मंत्रालय ने यह निर्देश दिया कि 14 सितंबर भारतीयों व दूतावास के स्टाफ तक सीमित रखा जाए तो स्थानीय हिंदी प्रेमियों में काफ़ी मायूसी उत्पन्न हो गई। बार-बार टेलीफोन करके वे जानना चाहते कि हिंदी दिवस पर क्या कार्यक्रम आयोजित किए जा रहें हैं, दूतावास उनके गाँव में कब प्रतियोगिताएँ आयोजित कर रहा है? आदि…आदि… और मेरे हर्ष की सीमा न रही जब उन्होंने अपने स्तर पर कार्यक्रम आयोजित कर हमें आमंत्रित किया। वह पल साक्षी था कि सच्चे हिंदी-प्रेमियों को किसी देश में किसी अनुदान की आवश्यकता नहीं। 

पिछले कुछ वर्षों से सूरीनाम हिंदी परिषद द्वारा बृहत स्तर पर हिंदी भाषा का मिलन कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जिसमें हर ज़िले के हिंदी छात्र व शिक्षक भाग लेते हैं। इन हिंदी प्रेमियों की गतिविधियों को आज भी फ़ेसबुक के माध्यम से देखकर हृदय गदगद हो उठता है। हिंदी की मासिक कार्यशालाओं व गोष्ठियों में सूरीनाम हिंदी परिषद के अध्यक्ष श्री भोलानाथ नारायण, सचिव हैरोल्ड सत्यानंद परमसुख के साथ श्रीमती सुषमा खेदू, श्रीकिशन फिरतू, श्रीमती माला सिवपरसादी, श्रीमती ऋगवती तुकुन, श्रीमती कल्पू, श्रीमती कारमेन सोमाई, श्रीमती भजन धनवंती, श्री बख्तावर उदयभान, श्रीमती सरिता भगवंत, श्री धीरज कंधई और अनेक जाने-पहचाने व नए चेहरे देखकर सुकून मिलता है कि छः वर्ष पहले जहाँ सरकारी बाध्यताओं से मैं उनसे विदा हुई थी वे लगातार उस पथ पर आगे बढ़ते रहे हैं।

इन सभी सम्मिलित प्रयासों के कारण ही सूरीनाम में हिंदी की स्थिति सुदृढ़ है और मैं आशावान हूँ कि वहाँ के हिंदुस्तानी भाई-बहन हिंदी को अपने देश में उच्चतर राजकीय पद पर लाने में सफल होंगे। तथास्तु!

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